आखिर कैसे सुरक्षित रहें मध्‍यप्रदेश में बच्‍चे?

गिरीश उपाध्‍याय 

मध्‍यप्रदेश में एक बार फिर अस्‍पताल की अव्‍यवस्‍थाएं और लापरवाही बच्‍चों पर मौत का कहर बनकर टूटी हैं। राजधानी भोपाल में बच्‍चों के कमला नेहरू सरकारी अस्‍पताल में गंभीर रूप से बीमार बच्‍चों की देखरेख के लिए बनाई गई विशिष्‍ट देखभाल यूनिट (एसएनसीयू) में आग लगने से कई बच्‍चों की मौत हो गई है। बताया जा रहा है कि घटना के समय यूनिट में करीब 40 बच्‍चे थे, जिनमें से बाकी को अस्‍पताल के स्‍टाफ ने किसी तरह बचा लिया लेकिन उनमें से भी कई की हालत नाजुक है।

मध्‍यप्रदेश के अस्‍पतालों में बच्‍चों के साथ होने वाला यह न तो कोई नया हादसा है और न ही पहला। इस तरह होने वाली बच्‍चों की मौतों की खबरें गाहे बगाहे राज्‍य के किसी न किसी कोने से आती रहती हैं। ठीक एक साल पहले राज्‍य के शहडोल जिला अस्‍पताल में भी ऐसी ही विशिष्‍ट देखभाल यूनिट में बड़ी संख्‍या में बच्‍चों ने दम तोड़ दिया था।

तरक्‍की की तमाम सीढियां चढ़ने के दावों के बावजूद मध्‍यप्रदेश बच्‍चों की देखभाल के मामले में कई सालों से बदनामी का दाग ही झेलता आ रहा है। शिशु मृत्‍यु दर (आईएमआर) के मामले में भी यह राज्‍य पूरे देश में अव्‍वल बना हुआ है। हालांकि कुछ दशकों के प्रयासों के चलते शिशु मृत्‍यु दर में थोड़ी कमी जरूर आई है लेकिन अब भी यहां प्रति हजार शिशुओं पर होने वाली मौतों की संख्‍या देश के औसत से काफी अधिक है।

हाल ही में जारी वर्ष 2019 की एसआरएस रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश में शिशु मृत्‍यु दर प्रति हजार शिशुओं पर 46 है जबकि ऐसी मौतों का देश का औसत 30 ही है। शिशु मृत्‍यु दर के मामले में सबसे कम 3 की दर वाले राज्‍यों मिजोरम और नागालैंड की तुलना में तो मध्‍यप्रदेश की दर करीब 15 गुना अधिक है।

अब सवाल ये है कि आखिर ये क्‍यों हो रहा है और ऐसा कब तक चलता रहेगा। सरकार की दृष्टि से देखें तो तर्क दिया जा सकता है कि 2005−07 में जहां मध्‍यप्रदेश में शिशु मृत्‍यु दर प्रति हजार 74 थी वहीं 15 साल बाद यह 46 हो गई है यानी दर में प्रति हजार पर 28 की कमी आई है। पर स्थिति में सुधार की यह गति बहुत धीमी है। इसे बढ़ाने के लिए हर स्‍तर पर काम करना जरूरी है। और ये स्‍तर विवाह और गर्भधारण की उम्र से लेकर नवजात की समुचित देखभाल और उसके एवं उसकी मां के पोषण तक से जुड़े हुए हैं।

मध्‍यप्रदेश में एक बड़ा मामला बच्‍चों के कुपोषण का भी रहा है और उसी के चलते नवजात बच्‍चों का जीवन बचाने व बीमार होने पर अस्‍पतालों में उनकी समुचित चिकित्‍सा व देखभाल के लिए जिला अस्‍पतालों के स्‍तर पर एसएनसीयू जैसी सुविधाओं का जाल बिछाया गया। लेकिन बच्‍चों की जान बचाने वाले ये यूनिट ही उनके लिए जानलेवा बन गए हैं। ऐसा नहीं है कि एसएनसीयू में आग के मामले पहली बार सामने आए हैं।

इससे पहले मध्‍यप्रदेश के मुरैना, भोपाल, इंदौर सहित कई अन्‍य शहरों के जिला अस्‍पतालों में एसएससीयू में आग लगने या शार्ट सर्किट की घटनाएं हो चुकी हैं। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार भोपाल के कमला नेहरू अस्‍पताल में ही इसी साल मार्च में ऐसा मामला सामने आने पर राजधानी परियोजना प्रशासन के गैस राहत डिविजन ने अस्‍पताल प्रबंधन को बिजली सुरक्षा नियमों के पालन को लेकर पत्र लिखा था। ऐसे पत्र 2015 से लिखे जाते रहे हैं। लेकिन इस ओर कभी भी गंभीरता से ध्‍यान नहीं दिया गया।

एक बड़ी समस्‍या निर्माण और रखरखाव की गुणवत्‍ता को लेकर है। कहने को निर्माण और उसकी गुणवत्‍ता सुनिश्चित करने का काम सरकारों के लोक निर्माण विभाग का होता है। जब भी कोई सरकारी भवन बनता है तो सिविल से लेकर बिजली आदि के काम की अंतिम स्‍वीकृति लोक निर्माण विभाग मैन्‍युअल के हिसाब से ही दिए जाने का नियम है लेकिन ऐसा होता नहीं है। सरकारी निर्माण और रखरखाव के काम में भ्रष्‍टाचार और पैसों की लूट खसोट के चलते इन नियमों की अनदेखी कर दी जाती है।

मध्‍यप्रदेश में तो कुछ सालों से एक और खेल शुरू हुआ है। कहने को निर्माण की सरकारी एजेंसी लोक निर्माण विभाग है लेकिन अलग अलग विभागों को निर्माण के लिए केंद्र व राज्‍य से मिलने वाली हजारों करोड़ रुपये की राशि में बंदरबांट की नीयत से अनेक विभागों ने अपने यहां इंजीनियरिंग विंग खोलकर खुद ही निर्माण करवाने का खेल शुरू कर दिया है। किसी को भी यह जानकर हैरानी हो सकती है कि शिक्षा विभाग से लेकर स्‍वास्‍थ्‍य विभाग तक निर्माण कार्यों और उसकी ठेकेदारी के काम कर रहे हैं।

ऐसे में जब भी कोई हादसा होता है तो उसकी जांच भी उसी विभाग के वे ही अफसर करते और करवाते हैं जो उस निर्माण के गुणवत्‍तापूर्ण न होने के लिए जिम्‍मेदार होते हैं। यह ठीक वैसा ही है जैसे किसी नाली में गंदगी की जांच का काम किसी नाले को सौंप दिया जाए। मध्‍यप्रदेश में ही ठीक एक साल पहले शहडोल जिला अस्‍पताल के एसएनसीयू में बच्‍चों की बडी संख्‍या में मौत का मामला सामने आया था।

बहुत कम दिनों के अंतराल में 20 से अधिक बच्‍चों की मौत के बाद मुख्‍यमंत्री के निर्देश पर स्‍वास्‍थ्‍य विभाग के अपर मुख्‍य सचिव मोहम्‍मद सुलेमान को जांच का जिम्‍मा सौंपा गया था। लेकिन बाद में जो जांच रिपोर्ट आई उसमें कहा गया कि मरने वाले बच्‍चों में से 30 प्रतिशत तो समुदाय यानी घर परिवार स्‍तर पर ही दम तोड़ चुके थे और अस्‍पताल में मरने वाले 70 प्रतिशत बच्‍चों की मौत भी सांस रुकने, संक्रमण, कम वजन और निमोनिया आदि के कारण हुई। यानी चिकित्‍सा और स्‍वास्‍थ्‍य का अमला इसके लिए कतई जिम्‍मेदार नहीं है।

भोपाल में हुए ताजा हादसे की जांच का काम भी एक बार फिर उसी विभाग के अपर मुख्‍य सचिव मोहम्‍मद सुलेमान को सौंपा गया है। जांच रिपोर्ट कब और क्‍या आएगी इसका तो पता नहीं है लेकिन मामले पर लीपापोती का प्रयास अभी से शुरू हो गया है। स्‍थानीय अखबार जहां हादसे में मरने वाले बच्‍चों की संख्‍या 12 से अधिक बता रहे हैं वहीं सरकारी आंकड़ा सिर्फ पांच मौतों का है। कई माता पिता की शिकायत है कि हादसे के वक्‍त अस्‍पताल के एसएनसीयू में भरती उनके बच्‍चों के बारे में कुछ पता नहीं चल रहा है। अस्‍पताल प्रबंधन भी इस बारे में समुचित जानकारी नहीं दे रहा है।

हो सकता है ताजा हादसे की जांच रिपोर्ट भी वेंटिलेटर में आग लगने का कारण बिजली के घटिया तारों को बता दे। लेकिन बड़ा सवाल ये है कि प्रदेश में बच्‍चों की इस तरह होने वाली मौतों के पीछे भ्रष्‍टाचार के जो तार जुड़े हैं उनकी जवाबदेही कौन तय करेगा। और जब जवाबदेही तय होने के ही हालात नहीं हैं तो दोषियों को सजा देने और सिस्‍टम के सुधरने की बात तो भूल ही जाइये।(मध्‍यमत)
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