क्‍या कहती हैं अदालतें धारा 144 लागू करने के बारे में

गिरीश उपाध्‍याय

लखीमपुर खीरी में हुई हिंसा और उसके बाद वहां बाहरी लोगों के प्रवेश को रोकने के लिए उत्‍तरप्रदेश के जिला प्रशासनों द्वारा धारा 144 के तहत लागू किए गए प्रतिबंधात्‍मक आदेशों की इस समय बहुत चर्चा है। दरअसल भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की यह धारा जिला प्रशासनों को यह अधिकार देती है कि वे कानून व्‍यवस्‍था बिगड़ने की आशंका वाली स्थिति में चार से अधिक लोगों को एक ही स्‍थान पर एकत्रित होने से रोक सकते हैं। इसके अलावा सार्वजनिक धरना, प्रदर्शनों पर भी रोक लगाई जा सकती है।

इस समय जब कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी, राहुल गांधी, सपा नेता अखिलेश यादव और अन्‍य कई राजनीतिक दलों के नेताओं को पीडि़त किसानों से मिलने जाने के लिए रोका जा रहा है और उन्‍हें हिरासत में लिया जा रहा है, तब यह जानना जरूरी हो जाता है कि आखिर धारा 144 को लेकर हमारी अदालतें क्‍या कहती हैं। ज्‍यादा पुरानी बातों पर न जाते हुए पिछले डेढ़ दो सालों में ही हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसलों पर नजर दौड़ाएं तो उनमें धारा 144 के इस्‍तेमाल को लेकर जो बातें कही गई हैं उन पर भी ध्‍यान दिया जाना जरूरी है।

ऐसा ही एक मामला कर्नाटक हाईकोर्ट के सामने 2019 में आया था जब बेंगलुरू में सीएए के खिलाफ होने वाले प्रदर्शनों पर रोक लगाने के लिए प्रशासन ने धारा 144 का उपयोग किया था। कर्नाटक हाईकोर्ट ने उस मामले को लेकर दिए गए अपने फैसले में कहा था कि वह आदेश गैर कानूनी है और कानूनी परीक्षण के दौरान कहीं नहीं ठहरता। बेंगलुरू प्रशासन ने 18 दिसंबर 2019 को धारा 144 के तहत प्रतिबंधात्‍मक आदेश लागू करते हुए शहर में किसी भी प्रकार के धरने, प्रदर्शन पर रोक लगा दी थी और सीएए को लेकर उन आयोजनों को भी निरस्‍त कर दिया था जिनकी अनुमति पहले दी जा चुकी थी।

प्रशासन के इस आदेश के खिलाफ कांग्रेस के राज्‍यसभा सदस्‍य राजीव गौडा, विधायक सौम्‍या रेड्डी और अन्‍य ने याचिका दायर करते हुए मांग की थी कि प्रशासन के आदेश को गैर कानूनी घोषित करते हुए रद्द किया जाए। राज्‍य में भाजपा की तत्‍कालीन सरकार की ओर से दलील दी गई थी कि शांतिपूर्ण प्रदर्शन का अधिकार, अभिव्‍यक्ति की आजादी के तहत बुनियादी अधिकार है लेकिन इस पर भी कुछ उचित प्रतिबंध लागू होते हैं।

इस मामले में 13 फरवरी 2020 को अपना निर्णय सुनाते हुए कर्नाटक हाईकोर्ट के मुख्‍य न्‍यायाधीश ने इस आदेश को गैर कानूनी ठहराया था। सुनवाई के दौरान अदालत ने कहा था कि सरकार प्रदर्शन आदि के लिए विधिवत दिए गए आवेदनों पर दी गई पूर्वानुमति को रातोरात कैसे रद्द कर सकती है। सरकार यह कैसे मानकर चलती है कि होने वाला हर प्रदर्शन हिंसक ही होगा। कर्नाटक हाईकोर्ट ने अपने इस फैसले में जनवरी 2020 के सुप्रीम कोर्ट के उस ऐतिहासिक फैसले का भी जिक्र किया था जो कश्‍मीर में धारा 370 खत्‍म करने के बाद लागू किए गए लॉकडाउन को लेकर दिया गया था। दरअसल सुप्रीम कोर्ट का वह फैसला जिला प्रशासनों व पुलिस द्वारा धारा 144 के उपयोग और उसके अंतर्गत लागू किए जाने वाले प्रतिबंधात्‍मक आदेशों की बहुत विस्‍तार से व्‍याख्‍या करता है।

10 जनवरी 2020 को दिए गए अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि धारा 144 का उपयोग लोगों को वैधानिक तरीके से अपना मत रखने, अपने विरोध को प्रकट करने या अपने लोकतांत्रिक अधिकार का इस्‍तेमाल करने से रोकने के लिए नहीं किया जा सकता। अदालत का मानना था कि धारा 144 के तहत पारित आदेशों का जनता के मौलिक अधिकारों पर सीधा असर पड़ता है। अगर पुलिस और प्रशासन इस तरह की शक्ति का इस्तेमाल यूं ही गाहे बगाहे लापरवाह तरीके करते हैं तो इसके परिणाम गंभीर और गैरकानूनी भी होंगे।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जिला प्रशासनों को धारा 144 में प्रदत्‍त शक्तियों का उपयोग बहुत सोच समझकर करना चाहिए। इसका इस्‍तेमाल सिर्फ कानून और व्यवस्था को बनाए रखने के उपाय के रूप में ही होना चाहिए ना कि लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों के अवरोध के रूप में। प्रशासनों को यह भी याद रखना चाहिए कि ऐसे आदेश न्यायिक समीक्षा के लिए हमेशा खुले रहते हैं, ताकि इस तरह की कार्रवाई से पीड़ित कोई भी व्यक्ति कभी भी उपयुक्त मंच से संपर्क कर उन्‍हें। ऐसे में इस तरह के आदेश यदि स्‍वयं में ही अनुचित या असूचित होंगे तो न्यायिक समीक्षा के साधन भी अपंग हो जाएंगे।

अदालत ने स्‍पष्‍ट किया था कि संविधान में अलग-अलग विचारों, वैध अभिव्यक्तियों और असहमति की अभिव्यक्ति की रक्षा करने की बात कही गई है। इन्‍हें रोकने के लिए धारा 144 को लागू नहीं किया जा सकता। इसका इस्‍तेमाल तभी होना चाहिए जब इस बात का पर्याप्‍त आधार हो कि किसी भी कृत्‍य से हिंसा भड़कने, हिंसा के लिए उकसाने या सार्वजनिक सुरक्षा के खतरे में पड़ने की आशंका है। धारा 144 को लगातार जारी रखना या बार बार उसका इस्‍तेमाल करना भी ठीक नहीं है।निर्णय में प्रतिबंधात्‍मक आदेश जारी करने वाले अधिकारियों से अपेक्षा की गई थी कि वे अपने दिमाग का सही सही इस्‍तेमाल करते हुए, उचित तर्कों के आधार पर ही आदेश जारी करें। यंत्रवत या गुप्त तरीके से पारित आदेश को कानून के अनुसार पारित आदेश नहीं कहा जा सकता।

अदालत ने यह भी कहा था कि आदेश जारी करते समय उसके लाभ और जोखिम दोनों को तौला जाना चाहिए। यह नहीं भूलना चाहिए कि आदेश की अवधि और उसकी भौगोलिक सीमा जितनी अधिक होगी लोगों को उतनी ही अधिक परेशानी का सामना करना पड़ेगा। आदेश जारी करने वाला अधिकारी एक डंडे से सभी को नहीं हांक सकता (स्‍ट्रेट जैकेट फार्मूला) उसे कानून व्‍यवस्‍था, सार्वजनिक व्‍यवस्‍था और राज्‍य की सुरक्षा के बीच अंतर को ठीक से समझना होगा। और उसी के हिसाब से अपने आदेश की सीमा और परिधि को तय करना होगा।एक उदाहरण देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने समझाया था कि जैसे दो परिवारों के बीच सिंचाई के पानी को लेकर झगड़ा हो तो इससे कानून व्‍यवस्‍था बिगड़ सकती है लेकिन ऐसा ही झगड़ा यदि दो समुदायों के बीच हो तो पूरी सार्वजनिक व्‍यवस्‍था पर ही असर हो सकता है।

इन निर्णयों से साफ है कि हमारी अदालतों ने जिला प्रशासनों से धारा 144 के उपयोग को लेकर बहुत सावधानी बरतने की अपेक्षा की है। लेकिन अदालतों के फैसलों और स्‍पष्‍ट निर्देशों के बावजूद ऐसा लगता है कि जिला प्रशासन प्रतिबंधात्‍मक आदेशों का उपयोग शांति या कानून व्‍यवस्‍था बनाए रखने के उद्देश्‍य से कम और राजनीतिक उद्देश्‍य हासिल करने या लोकतांत्रिक विरोध को दबाने के टूल के रूप में ज्‍यादा कर रहे हैं। जाहिर है यह रवैया संविधान की व्‍यवस्‍थाओं और मंशाओं के अनुरूप तो नहीं ही है।(मध्‍यमत)
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