अरुण कुमार त्रिपाठी
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के राजकीय इंटर कालेज के मैदान में देश के पंद्रह राज्यों से आए दस लाख किसानों की महापंचायत ने मौजूदा सत्ताधीशों के सामने वही स्थिति पैदा कर दी है जो 1987 में चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत ने राजीव गांधी की सरकार के सामने और 2011 में भारत बनाम भ्रष्टाचार के आंदोलन ने यूपीए सरकार के सामने पैदा कर दी थी। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार और उसके पीछे पूरी ताकत से खड़ी मोदी सरकार भले पेज भर का विज्ञापन देकर दावा करे कि ‘भरपूर फसल, वाजिब दाम, खुशहाल किसान’ लेकिन हकीकत यह है कि पेज भर विज्ञापन, मैदान भर किसान, विपक्ष निहाल, सरकार परेशान।
किसान आंदोलन ने अराजनीतिक होते हुए भी वह काम कर दिया है जो विपक्ष की राजनीति नहीं कर पा रही थी। पिछले चालीस सालों में देश में ऐसा दो बार हो चुका है जब सत्तारूढ़ दल और उसके नेता अपने बहुमत के घमंड में चूर थे और उन्हें पता ही नहीं चला कि कब उनके नीचे से कुर्सी खिसक गई। संयोग से उन दोनों मौकों पर जो आंदोलन खड़े हुए उसमें साम्प्रदायिक एकता और जनता के मुद्दे शामिल थे। भले ही बाद में उसे विभाजनकारी ताकतों ने हड़प लिया। इस बार किसानों का मुकाबला सीधे विभाजनकारी ताकतों से है और सत्ता में बैठे होने के नाते उन विभाजनकारी ताकतों को आंदोलनकारी बनने में मुश्किल आ रही है। इसलिए अगर इसे आंदोलन की जीत कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि सत्ता जमीन पर उतर कर किसानों के सवालों का जवाब देने की कोशिश कर रही है।
यानी अब इधर उधर की बात करने से काम बन नहीं रहा है। न तो किसी को देशद्रोही और खालिस्तानी कहने से काम बन रहा है और न ही रामद्रोही। अब्बाजान की बात भी आई गई हो गई। रामराज की असलियत भी सामने आ चुकी है। इसलिए महापंचायत के मंच से राकेश टिकैत और दूसरे किसान नेता एलान करते हैं कि- फसलों के वाजिब दाम नहीं तो वोट नहीं या वे कहते हैं कि उत्तर प्रदेश में मोदी, शाह और योगी जैसे बाहरी लोगों की सरकार नहीं चलेगी, तो योगी को कहना पड़ता है कि किसानों के नाम पर नेतागिरी करने वाले परेशान।
लगभग सरकारी मुखपत्र बन चुके उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े हिंदी अखबार ने पहले पेज पर जैकेट विज्ञापन में पहले मोदी जी के माध्यम से दावा किया है- ‘’आत्मनिर्भर भारत अभियान का बड़ा लाभ उत्तर प्रदेश सरकार के किसानों को मिल रहा है। अब अन्नदाता जहां मंडी से बाहर भी अपनी उपज बेच सकते हैं वहीं बुआई के समय ही अपनी फसल का दाम तय कर सकते हैं। पशुपालन और डेयरी सेक्टर के लिए रुपए 15 हजार करोड़ का एक इन्फ्रास्ट्रक्चर भी बनाया गया है।’’ उसी रौ में योगी ने दावा किया है- ‘’किसान अन्नदाता हैं और समाज के भाग्यविधाता भी। किसान भाई सर्दी, गर्मी, बरसात और महामारी में भी अपनी मेहनत से अन्न का उत्पादन कर सभी का पेट भरने का कार्य करते हैं। इसलिए किसान उत्थान उत्तर प्रदेश सरकार की प्राथमिकता है।’’
सरकार इतने से ही नहीं हार मानने वाली है। उसने न सिर्फ पूरे पेज का विज्ञापन दिया है बल्कि दूसरी तरफ एक पूरा पन्ना किसानों की खुशहाली वाली खबरों का दिया है। यानी महज विज्ञापन पर योगी सरकार को भरोसा नहीं था, इसलिए उसने अखबार से एक पेज किसानों की पाजिटिव खबरों का करवाया है। उन खबरों में उन तमाम सवालों का जवाब देने की कोशिश है जो किसान उठाते रहे हैं। गोदी मीडिया के इस सबसे बड़े अखबार ने इन दोनों पृष्ठों से अपनी पत्रकारीय नैतिकता की भद्द पिटवा ली है। उसने साबित कर दिया है कि जो विज्ञापन देगा और सत्ता का दबाव डाल पाएगा उसकी ही तारीफ में खबरें की जाएंगी। इस तरह दोनों अविश्वसनीय हो गए हैं।
यानी अखबार का स्पेस लोक का नहीं है। वह सत्तातंत्र और धनतंत्र के लिए सुरक्षित है। अखबार की थोड़ी बहुत नाक बच गई होती अगर उसने किसान आंदोलन की खबरों को अच्छी तरह से प्रस्तुत किया होता। लेकिन उस खबर को खानापूरी वाली खबर के रूप में प्रस्तुत करके उस अखबार ने अपना पक्षपात प्रकट कर दिया है। भाजपा और उसके समर्थक तबके की खूबी यही है कि अब वे निष्पक्ष दिख नहीं पाते या फिर दिखना नहीं चाहते। उनका सारा कारोबार चाहे वह कॉरपोरेट लूट का हो या हिंदू मुस्लिम विभेद की राजनीति का, वह एकदम खुला खेल हो चुका है।
किसान आंदोलन की खूबी यह है कि उसने कॉरपोरेट मीडिया की बमबारी और भाजपा और संघ परिवार के उत्तर सत्य और मिथकों के धुंध को चीरने वाले उजाले की एक आहट उपस्थित की है। वैसे तो इस देश और दुनिया के किसान तभी से बेचैन हैं और आत्महत्याएं कर रहे हैं, जबसे इस उदारीकरण और वैश्वीकरण की नीतियां लागू हुई हैं लेकिन उन नीतियों ने जबसे हिंदुत्व के साथ गठजोड़ किया है तबसे पहली बार इतना बड़ा और जागरूक किसान आंदोलन देश में खड़ा हुआ है। इस आंदोलन की खासियत यह है कि सरकार की लाख कोशिशों के बावजूद यह विभाजित होता हुआ दिखता नहीं है। इतने सारे संगठन और इतने सारे नेता इतने लंबे समय तक कैसे एक साथ हैं और बिके नहीं इससे सरकार हैरान है। इसलिए उसने अपने शहरी और सांप्रदायिक मतदाताओं को संभालने की ठान रखी है।
उलटे किसान आंदोलन जहां सत्तापक्ष के भीतर दरार डालता हुआ दिख रहा है वहीं समाज के भीतर पैदा की गई दरार को पाटता हुआ दिख रहा है। यह कोई सामान्य बात नहीं है कि किसान आंदोलन के पक्ष में भाजपा की सांसद मेनका गांधी और उनके बेटे वरुण फिरोज गांधी ने ट्विट किया। किसानों ने सरकार की कलई खोलने वाली जो बातें कही हैं उसी की लीपापोती के लिए पेज भर का विज्ञापन दिया गया है। किसानों ने कहा कि सरकारी खरीद 20 प्रतिशत भी नहीं हुई है। राज्य सरकार ने 86 लाख किसानों का कर्ज माफ करने का वादा किया था लेकिन सिर्फ 45 लाख किसानों का कर्ज माफ किया गया। कृषि लागत और मूल्य आयोग का दावा है कि 2017 में गन्ने की कीमत 383 रुपए प्रति क्विंटल थी लेकिन किसानों को सिर्फ 325 रुपए ही मिलते थे। बकाया भुगतान के तमाम दावों के बावजूद चीनी मिलों पर गन्ना किसानों का 8,700 करोड़ रुपए बकाया है।
लेकिन आंकड़ों की इस सरकारी बाजीगरी को उजागर करने के अलावा किसानों ने एक बड़ा काम उस सांप्रदायिक साजिश को समझने का किया है जिसके वे 2013 में शिकार हो गए थे। जब मंच से राकेश टिकैत नारा लगा रहे थे ‘अल्लाहू अकबर’ तो दूसरी ओर से नारा लग रहा था `हर हर महादेव’, तब विभाजनकारी राजनीति कांप रही थी।(मध्यमत)
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