गिरीश उपाध्याय
पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में भारी जीत के बाद से ही केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार और भारतीय जनता पार्टी से पंगा ले रही मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने अब एक बड़ा दांव खेला है। देश के कई पत्रकारों, राजनेताओं, मंत्रियों, चुनाव आयुक्त व सरकारी जांच एजेंसी के अफसरों और यहां तक कि न्यायाधीशों की भी कथित जासूसी से जुड़े पेगासस कांड को लेकर ममता सरकार ने अपने स्तर पर एक जांच आयोग का गठन कर दिया है।
ममता सरकार ने इस जांच आयोग की घोषणा के लिए टाइमिंग भी बहुत चतुराई से चुना। यह घोषणा उसी 26 जुलाई के दिन हुई जिस दिन ममता ने अपनी नई दिल्ली यात्रा का ऐलान किया। उन्होंने मीडिया को बताया कि वे दो तीन दिन के लिए दिल्ली जा रही हैं और वहां उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात का भी समय मांगा है। इसके अलावा वे राष्ट्रपति जी से भी मुलाकात की कोशिश करेंगी। उनका संसद जाने और वहां भी कई दलों के नेताओं से मिलने का कार्यक्रम है। यानी ममता ने दिल्ली रवाना होने और प्रधानमंत्री से मुलाकात होने से पहले ही मुलाकात का एजेंडा सेट कर दिया है।
ममता का पेगासस जासूसी मामले में पहल करना इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि मामले में जिन लोगों की जासूसी किए जाने को लेकर नाम आए हैं उनमें एक ममता के भतीजे अभिषेक बैनर्जी और दूसरे प्रशांत किशोर का नाम भी है। प्रशांत किशोर पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के दौरान तृणमूल कांग्रेस के चुनाव सलाहकार रहे हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि जिन लोगों ने मामले की जांच के लिए एमनेस्टी इंटरनैशनल को अपना फोन उपलब्ध कराया था उनमें प्रशांत किशोर का नाम भी है।
ममता ने इस जांच आयोग का गठन करके एक साथ कई निशाने साधे हैं। इस मामले पर संसद में बहस और हंगामा हो चुकने के बाद कहा जाने लगा था कि यह मामला जल्दी ही ठंडा पड़ जाएगा। सरकार ने संसद में इस मामले पर जो स्टैंड लिया वह भी दर्शाता था कि वह मामले को उठाने वाले लोगों पर विदेशी ताकतों के हाथों में खेलने, देश को कमजोर करने और संसद की कार्यवाही न चलने देने का आरोप लगाकर उन्हें चुप कराना चाहती है। यही कारण रहा कि सरकार की ओर से इस बात का भी कोई साफ साफ जवाब नहीं आया कि वह कम से कम इतना तो बता दे कि क्या उसने पेगासस स्पाईवेयर का निर्माण करने वाली इजरायली एजेंसी एनएसओ से यह स्पाईवेयर खरीदा है या नहीं।
विपक्ष ने इस मामले में संसद की एक समिति बनाकर जांच कराने या फिर सुप्रीम कोर्ट के किसी न्यायाधीश की निगरानी में जांच कराने की मांग रखी थी पर वैसी कोई मांग नहीं मानी गई। 26 जुलाई को ही देश के पूर्व गृहमंत्री पी. चिदंबरम का यह बयान अखबारों में आया कि अगर फ्रांस और इजराइल की सरकार पेगासस जासूसी मामले की जांच के आदेश दे सकती है तो भारत सरकार क्यों नहीं? उधर सरकार की ओर से भले ही कोई पहल नहीं हुई हो लेकिन मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंच गया है। वहां मामले की जांच को लेकर एसआईटी गठित करने की मांग को लेकर दो याचिकाएं दायर की जा चुकी हैं।
अब इस पृष्ठभूमि में पश्चिम बंगाल की ममता सरकार का अपनी ओर से जांच आयोग गठित कर देना मामले को नया मोड़ देने वाला है। ध्यान देने वाली बात ये है कि ममता सरकार ने बहुत ही चतुराई से इस दो सदस्यीय जांच आयोग के सदस्यों को चुना है। इसके अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मदन बी. लोकुर होंगे और दूसरे सदस्य होंगे कलकत्ता उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ज्योतिर्मय भट्टाचार्य। यानी ममता ने इतने बड़े नाम चुनकर इस बात की गुंजाइश को भी खत्म कर दिया है कि आयोग की मंशा पर कोई संदेह किया जा सके।
देश का जांच आयोग कानून 1952 में बना था। ममता सरकार ने अपने जांच आयोग का गठन इसी कानून- जांच आयोग अधिनियम, 1952 (संख्यांक 60) के तहत किया है। आयोग के गठन की अधिसूचना में इस बात का साफ तौर पर जिक्र किया गया है कि जांच आयोग को अधिनियम की धारा 5 के तहत सारी शक्तियां प्राप्त होंगी। धारा 5 की उपधारा-2 कहती है कि आयोग जांच से संबंधित किसी विषय का अन्वेषण करने के लिये किसी व्यक्ति को समन कर सकेगा और हाजिर करा सकेगा तथा उसकी परीक्षा कर सकेगा; किसी दस्तावेज के प्रकटीकरण एवं पेश किए जाने की अपेक्षा कर सकेगा; तथा किसी कार्यालय से किसी लोक अभिलेख या उसकी प्रतिलिपि की अपेक्षा कर सकेगा। इसके साथ ही आयोग संबंधित जांच एजेंसियों से ऐसे किसी मामले की जांच करने की सिफारिश कर सकता है।
यहां सवाल उठता है कि यदि ममता के जांच आयोग ने केंद्र की एजेंसियों, आईटी व अन्य संबद्ध मंत्रालय के अधिकारियों को गवाही के लिए तलब किया तब क्या होगा? क्या वे अधिकारी गवाही या साक्ष्य के लिए आयोग के सामने उपस्थित होंगे और यदि नहीं हुए तो क्या एक नई टकराहट की स्थिति नहीं बनेगी? यहां याद रखना होगा कि ममता लंबे समय से राज्य के अधिकारों को लेकर केंद्र से टकराती रही हैं। चुनाव के समय से लेकर उसके फौरन बाद तक राज्य के मुख्य सचिव को लेकर राज्य व केंद्र सरकार का शक्ति परीक्षण पूरे देश ने देखा था। वहां भी ममता ने बड़ा दांव चलते हुए मुख्य सचिव से इस्तीफा दिलवाकर उन्हें अपना सलाहकार नियुक्त कर लिया था। इससे पहले कोलकाता के पुलिस कमिश्नर को लेकर भी केंद्र व पश्चिम बंगाल की सरकारें आपस में टकरा चुकी थीं।
तो क्या पेगासस जांच आयोग के बहाने ममता और मोदी सरकार एक नए युद्धक्षेत्र में प्रवेश कर रहे हैं? यह सवाल इसलिए उठता है क्योंकि जांच आयोग को जांच प्रक्रिया के दौरान ज्यादातर इनपुट की जरूरत उन अधिकारियों और संस्थाओं से होगी जो केंद्र सरकार के अधीन हैं। वहां से सहयोग न मिलने पर ममता के पास केंद्र पर यह कहते हुए हमला करने का बहुत अच्छा अवसर होगा कि एक कथित आपराधिक मामले की न्यायिक जांच में खुद केंद्र सरकार ही अड़ंगा डाल रही है। उस आधार पर ममता भविष्य के लिए यह रणनीति भी अपना सकती हैं कि जब केंद्र सरकार सहयोग नहीं करती तो राज्य सरकार केंद्र की जांच एजेंसियों को सहयोग क्यों करे।
और आखिर में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा… तमाम बाधाओं और अड़चनों के बावजूद ममता का जांच आयोग यदि अपना काम पूरा करने में सफल रहा और उसने अपने निष्कर्षों में यह माना कि जासूसी हुई है और यदि उसने इसकी आगे किसी और एजेंसी से जांच कराने की सिफारिश कर दी तो…? वैसी स्थिति में केंद्र सरकार के लिए नई उलझन पैदा होगी। भले ही वह राज्य सरकार द्वारा गठित आयोग के निष्कर्षों और सिफारिशों को कोई तवज्जो न दे लेकिन उस आयोग की अनदेखी करने का आरोप लगाते हुए भविष्य में केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा करने की ममता की कोशिश को कैसे रोका जा सकेगा? जाहिर है पेगासस का भूत जल्दी ही बोतल के अंदर जाने वाला नहीं है…(मध्यमत)
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