भारतीय मीडिया मुनाफे की तिजोरी का बंदी बन गया है

भोपाल/ वरिष्‍ठ पत्रकार और मीडिया विश्‍लेषक पी. साईनाथ ने कहा है कि पत्रकारिता और मीडिया को गड्डमड्ड करना ठीक नहीं है। आधी सदी पहले भले वह लगभग एक रहा हो पर आज एक नहीं है। देश के मीडिया के बड़े हिस्से पर कारपोरेट का कब्जा है। आज का मीडिया बिजनेस की हिमायत में नहीं है वह खुद एक बिजनेस है। अब दो तरह की पत्रकारिता बची है; एक पत्रकारिता, दूसरी स्टेनोग्राफी; जो बोलकर लिखाया गया वही लिख और छाप दिया गया। यही वजह है कि न पत्रकारिता सुरक्षित है न पत्रकार।

शैलेन्द्र शैली स्मृति व्याख्यान 2021 की शुरुआत करते हुए पी. साईनाथ ने “लुप्त होती पत्रकारिता और छीजता मीडिया” विषय पर अनोखी सूचनाओं और असाधारण विश्लेषण के साथ अपनी बात रखी। पत्रिका ‘लोकजतन’ द्वारा अपने संस्थापक सम्पादक की स्मृति में पखवाड़े भर तक चलाई जाने वाली व्याख्यानमाला में छात्र आंदोलन में शैली के साथी और सहयोगी रहे साईनाथ ने इन दिनों की पत्रकारिता के संकट को ही नहीं बताया- पत्रकारिता के इतिहास से भी उसे जोड़ा।

इसका उदाहरण देते हुए उन्होंने दो बाते कहीं- कि कोरोनाकाल में जब पत्रकारिता और कवरेज की देश और जनता को सबसे ज्यादा आवश्यकता थी ठीक तब 2000 पत्रकारों की छंटनी कर दी गयी, 10 हजार से ज्यादा तकनीकी तथा सहयोगी स्टाफ घर बिठा दिया गया। इसके पहले नोटबंदी के समय भी यही हुआ था जब हिन्दुस्तान टाइम्स और टेलीग्राफ सहित कई संस्थानों ने अपने अपने कई संस्करण बंद कर दिए गए थे।

दूसरी बात है गाँवों का खबरों से पूरी तरह गायब रहना। साईनाथ ने उदाहरण दिया कि पिछले साल फरवरी-मार्च में प्रवासी मजदूरों की खबरें आयीं फिर अचानक बंद हो गयीं- क्योंकि वे अपने गाँव पहुँच गए थे और गांव का कोई कवरेज भारत के मीडिया में नहीं है। सीएमएस की रिपोर्ट के अनुसार जिस देश-भारत- की 69 प्रतिशत आबादी गाँवों में रहती हैं वहां अखबारों में उनकी खबरों को मुखपृष्ठ पर 0.67 प्रतिशत ही जगह मिलती है।

साईनाथ ने कहा कि मोदी सरकार के आने के बाद दबाव बढ़ा है। उत्तरप्रदेश के पंचायत चुनावों में 1700 शिक्षकों की कोरोना से मौत हो गयी मगर वह बड़ी खबर नहीं बनी। कुम्भ- जिसे सिर्फ चुनावी लाभ के लिए एक साल पहले कर दिया गया था- उसने कोरोना महामारी फैलाई मगर अखबारों में चर्चा तक नहीं हुयी। उलटे कोरोना फैलाने वालों और 40 लाख मौतों के जिम्मेदारों का गुणगान किया जा रहा है। यह भारतीय पत्रकारिता के 200 वर्षों के इतिहास में सबसे खराव कवरेज था। उन्होंने पेड न्यूज़ को कार्पोरेटी पत्रकारिता की महामारी बताया।

साईनाथ ने कहा कि ऐसा शायद ही कोई मीडिया हाउस हो जिसका कोई धंधा न हो। सारे धंधों में वे हैं इसलिए सरकार के दबाव में हैं। इसके कई उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि इसी स्वार्थ के चलते कवरेज पूर्वाग्रही हो गया है। कार्पोरेट्स को खेती कब्जानी है तो तीन कानूनों के खिलाफ दुनिया के सबसे बड़े किसान आंदोलन के विरुध्द मुहिम छेड़ी जा रही है।

70 साल में असमानता उतनी नहीं बढ़ी जितनी 20 साल में बढी है। सन 1991 में एक भी डॉलर अरबपति नहीं था जो कोरोना काल में भी बढे और अब 140 हो गए। एक तरफ 140 रईस हैं दूसरी तरफ 140 करोड़ भारतीय हैं। अकेले अम्बानी की दौलत पंजाब की पूरी जीडीपी के बराबर हो गयी है।  उसके बाद भी मोदी सरकार किसानों से छीनकर अम्बानी अडानी को देना चाहती है। यह मैनस्ट्रीम मीडिया नहीं है- रेवेन्यू स्ट्रीम मीडिया है। यही वजह है कि राफेल के घोटाले दबाये जा रहे हैं।  पत्रकारों के संगठन खत्म किये जा रहे हैं। यही काम वे अब खेती किसानी में करना चाहते हैं।   निजीकरण जितना बढ़ेगा उतना ही अभिव्यक्ति और प्रेस की आजादी पर हमला बढ़ेगा।

साईनाथ ने कहा कि प्रेस की स्वतन्त्रता 1991 से लगातार गिरी है। भूलना नहीं चाहिए कि यूएपीए चिदंबरम लेकर आये थे। विश्व प्रेस स्वातंत्र्य संगठन ने माना है कि भारत में प्रेस की आजादी घटते घटते 188 देशों में 142 नंबर पर आ गयी है। इस गोरों की आलोचना से बचने के लिए मोदी सरकार झूठी बयानबाजी का सहारा ले रही है। इसका स्वयं का संस्मरण भी उन्होंने सुनाया।

मध्यमवर्ग की चिंताओं और कोरोना कवरेज के रिश्ते को उजागर करते हुए साईनाथ ने कहा कि जितनी मौतें सरकार ने कोरोना से मानी है उतनी- 4 लाख 45 हजार मौतें 2019 में टीबी से हुयी थीं।  मगर वह गरीबों की मौत थी, कोरोना मध्‍यम वर्ग और सभ्रांतों के घर तक मौतें ले आया है इसलिए उसका थोड़ा बहुत कवरेज है।

अपने व्याख्यान की शुरुआत उन्होंने 200 वर्ष पहले 12 अप्रैल 1822 को राजा राममोहन राय के फारसी में निकाले गए अखबार द्वारा किये गए संघर्ष के उदाहरण से की और अंत में साईनाथ ने कहा कि भारत की प्रेस स्वतन्त्रता संग्राम की पैदाइश है। भगत सिंह, गांधी, नेहरू, आंबेडकर खुद पत्रकार थे।  इसलिए समर्पण नहीं किया जाना चाहिए। पेड न्यूज़ को आपराधिक बनाने और निजी प्रेस पर अंकुश लगाने के क़ानून बनाने की मांग उठाई जानी चाहिए। वैकल्पिक मीडिया की मदद की जानी चाहिए और इसी के साथ कारपोरेट मोनोपोली को ध्वस्त करने की मुहिम छेड़ी जानी चाहिए।

इस सबमें सोशल मीडिया के इस्तेमाल की जरूरत भी उन्होंने बताई। उन्होंने इतिहास का सबक याद दिलाया कि छोटे समझे जाने मीडिया और व्यक्तियों ने भी रीढ़ पर खड़े होकर और लड़कर दिखाया है। अगले वर्ष आने वाली भारत की आजादी की 75वीं वर्षगाँठ मीडिया और डिजिटल स्पेस की आजादी की लड़ाई के लिए काम आनी चाहिए।(मध्‍यमत)
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नोट- मध्‍यमत में प्रकाशित आलेखों का आप उपयोग कर सकते हैं। आग्रह यही है कि प्रकाशन के दौरान लेखक का नाम और अंत में मध्‍यमत की क्रेडिट लाइन अवश्‍य दें और प्रकाशित सामग्री की एक प्रति/लिंक हमें [email protected] पर प्रेषित कर दें।संपादक

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