अजय बोकिल
अफसोस कि संचार क्रांति के पहले के दौर में कभी बच्चों में सर्वाधिक लोकप्रिय खेल रहा ‘लूडो’ अब बड़े पैमाने पर जुएं के खेल में बदल गया है। खासकर इसके डिजीटल वर्जन ने बच्चों के इस मनोरंजन को बड़े पैमाने पर गेम्बलिंग में तब्दील कर दिया है। मामला कितना बढ़ गया है, इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि हाल में बॉम्बे हाइकोर्ट में दायर एक याचिका में कहा गया है चूंकि लूडो गेम एक सामाजिक बुराई बन गया है, इसलिए कोर्ट इस मामले में तुरंत हस्तक्षेप करे। कोई कोर्ट ऐसे प्रकरण में किस प्रकार और क्यों हस्तक्षेप करेगा, समझना मुश्किल है, फिर भी हाईकोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार को नोटिस जरूर जारी किया है।
इसके पहले यही मामला मजिस्ट्रेट कोर्ट में गया था। तब मजिस्ट्रेट कोर्ट ने लूडो को ‘कौशल’ का खेल मानते हुए इसकेखिलाफ एफआईआर दर्ज करने से इंकार कर दिया था। जो भी हो, इस पूरे मामले ने जहां आधी सदी पार कर चुके लोगों को अपने ‘लूडोमय’ बचपन की याद दिला दी, वहीं यह नई बहस भी छेड़ दी है कि क्या लूडो केवल एक कौशल व मनोरंजन का खेल (जो कभी हुआ करता था) है या फिर यह वास्तव में जुआं ही है। हालांकि लूडो जिस दौर में बोर्ड पर खेला जाता था, तब भी कुछ फड़ों पर इसमें जुएं के दांव चले जाते थे, लेकिन अब डिजीटल लूडो गेम में तो ज्यादातर जुआं ही खेला जा रहा है, जिसकी वजह से गेम निर्माता कंपनी, एडमिन एजेंट और खिलाड़ी मालामाल हो रहे हैं। इस दृष्टि से यह एक जमाने में बचपन को रिझाने वाले दिलचस्प खेल की ट्रेजिडी है।
फिर कोर्ट की बात। यानी जो किसी जमाने में राज दरबार में द्यूत के रूप में मौजूद था, वह अब न्याय की गुहार के लिए अदालत की चौखट पर है। बॉम्बे हाईकोर्ट में राजनीतिक पार्टी मनसे के एक पदाधिकारी केशव मुले ने याचिका दायर कर कहा कि लूडो सुप्रीम ऐप पर लोग पैसे दांव पर लगा कर खेल रहे हैं। जो गेम्बलिंग प्रतिबंधक कानून की धारा 3, 4, और 5 के तहत आता है। इसलिए ऐप से जुड़े प्रबंधन के लोगों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। याचिकाकर्ता के मुताबिक यह गेम चार लोग 5-5 रुपए का दांव पर लगा कर खेलते हैं। जीतने वाले को 17 रुपए मिलते हैं, जबकि ऐप चलाने वाले को 3 रुपए मिलते हैं। यह सामाजिक बुराई बड़ी तेजी से समाज में घर करती जा रही है। अदालत इसमें हस्तक्षेप करे।
अब अदालत इसमें क्या और कैसे हस्तक्षेप करेगी, करेगी भी या नहीं, यह देखने की बात है। लेकिन जो बहस का मुद्दा बन रहा है, वो ये कि लूडो कौशल का खेल या किस्मत का? किस्मत का खेल मानने वालों का तर्क यह है कि लूडो का खेल गिरने वाले पांसे के अंकों पर निर्भर करता है। और जब लोग पैसा दांव पर लगाते हैं तो यह कौशल का खेल न रहकर ‘किस्मत का खेल’ हो जाता है। जुआं कानूनन अपराध है और इसके लिए सजा का प्रावधान है।
अलबत्ता यह खबर पढ़कर पहली नजर में खुशी इस बात की हुई कि मोबाइल युग शुरू होने के पूर्व के बचपन के ‘अभिन्न साथी’ माने जाने वाले ‘लूडो’ और ‘सांप सीढ़ी’ जैसे खेल अभी भी न सिर्फ जिंदा हैं, बल्कि ज्यादा लतियल तरीके से खेले जा रहे हैं। आज मोबाइल के साथ जीने वाले बच्चे उन खेलों को कितना खेलते होंगे, यह जानने की जिज्ञासा इस हकीकत से चकित हुई कि बच्चों से ज्यादा आजकल बड़े ये खेल ऑनलाइन खेल रहे हैं और इसी बहाने जमकर जुआं खेला जा रहा है। बड़े पैमाने पर पैसे का लेन-देन हो रहा है।
लूडो की यह लत पिछले साल हुए और इस साल जारी कोरोना लॉक डाउन में कई गुना बढ़ गई है। घरों में कैद लोग इस तरह डिजीटल जुआं खेलकर मालामाल भी हो रहे हैं और लुट भी रहे हैं। लॉक डाउन के दौरान हमारे सामाजिक व्यवहार में यह बड़ा, नकारात्मक लेकिन उल्लेखनीय बदलाव है। ‘लूडो’ नाम से भले विदेशी लगता हो, लेकिन है मूलत: स्वदेशी ही। भारतीय संस्कृति पर गर्व करने के लिए यह काफी है, क्योंकि यह आधुनिक देशी खेल पुराने ‘पचीसी’ का ही परिवर्तित रूप है। ये खेल भारत में प्राचीन काल से खेला जा रहा है। महाभारत में यह ‘पाश’ के नाम से उल्लेखित है। तब यह कौडि़यों और शंखों से खेला जाता था। महाभारत का विनाशकारी महायुद्ध भी इसी जुएं का परिणाम था।
इसी का थोड़ा बदला रूप ‘चौपड़’ है, जो गांवों में आज भी खेला जाता है। कहते हैं कि यह खेल भारत से ही चीन गया। भारत में मुगल काल में भी यह काफी लोकप्रिय था। समय बिताने के लिए राजा महाराजा और रईस चौपड़ की बाजियां लगाया करते थे। 1938 में एक अमेरिकी खिलौना कंपनी ने ट्रांसोग्राम नामक खेल ‘बोर्ड गेम’ के रूप में भारत में भी लांच किया। लूडो में चार खिलाड़ी तक एक साथ खेल सकते हैं। इसमें चार खाने होते हैं और एक पांसे के हिसाब से गोटियां चली जाती हैं। जो सबसे पहले अपना चौखाना पूरा कर लेता है, वह विजेता होता है।
पिछले कुछ सालों में संचार क्रांति के दौर में लूडो बच्चों की प्राथमिकता सूची में शायद नीचे चला गया था, वरना तीन दशक पहले तक ज्यादातर बच्चों की गर्मियों की छुट्टियां लूडो, सांप-सीढ़ी, ताश की बाजियां और अष्ट-चंग-पे जैसे खेल खेलते, आम चूसते और इमलियां फोड़ते-खाते, खेलते कूदते ही बीतती थीं। फोन वगैरह तो मध्यमवर्गीय घरों में भी सपने जैसा था। वो छुट्टियां बच्चों के लिए सचमुच छुट्टियों की तरह होती थीं। पूरी तरह तनाव और दबाव रहित। वही भूला बिसरा ‘लूडो’ गेम अब नए डिजीटल अवतार में टाइमपास मनोरंजन से ज्यादा पैसों पर दांव लगाने के खेल के रूप में समाज में अपनी पैठ बना रहा है।
पांच साल पहले एक भारतीय कंपनी ‘गेमेशन टैक्नोलॉजीस प्रा. लि.’ ने ‘लूडो किंग’ नाम से गेमिंग ऐप लांच किया। इस खेल की दीवानगी अब इस कदर है कि पिछले साल इस कंपनी की लूडो किंग गेम ऐप से होने वाली कमाई 145 करोड़ रुपये थी। ‘द मिंट’ में छपी एक रिपोर्ट बताती है कि पिछले कोरोना लॉक डाउन में इस लूडो गेम को 10 करोड़ से अधिक लोगों ने डाउन लोड किया था। दिसंबर 2020 तक यह संख्या बढ़कर 50 करोड़ हो गई। अनुमान है कि इस साल के अंत तक ऑनलाइन गेमिंग का बाजार भारत में 730 अरब रुपये से ज्यादा का हो जाएगा।
एक दृष्टि से यह भारत में ‘मेक इन इंडिया’ का चमत्कार है और दूसरी दृष्टि से जब लॉक डाउन में गरीबों के पेट पर लात पड़ रही है तब लूडो के नाम पर ऑनलाइन जुआं खेलने वालों की चांदी हो रही है। जो कमा रहे या गवां भी रहे हैं, वो इसके लतियल होते जा रहे हैं। यह नई तरह की सट्टेबाजी है और यही बड़ी चिंता की बात है। इसमें कोर्ट ज्यादा कुछ नहीं कर पाएगी। समाज को ही इस खेल को बुरी लत में बदलने से रोकना होगा। मनोरंजन और कौशल के खेल को ‘किस्मत के खेल’ में तब्दील होने पर लगाम लगानी होगी। क्योंकि देश और समाज पुरुषार्थ और कौशल से चलते हैं, ‘किस्मत’ के भरोसे नहीं चलते। (मध्यमत)
डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं।
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