भूमि सुपोषण जन-जन का अभियान बने

बृजकिशोर भार्गव

प्राचीन काल से ही प्रकृति के जिन तत्वों से प्राणी मात्र का जीवन चलता है, ऐसे तत्वों को सदैव श्रद्धा भक्ति समर्पण के साथ संरक्षण का व्यवहार करने की हमने परंपरा डाली है। वह जल नदी के रूप में होगा तो हमने उसे माता के रूप में स्वीकार कर तीर्थों के रूप में स्थापित कर संरक्षण करने की परंपरा बनाई। वायु को देवता के रूप में माना, वृक्षों में भी देवता का वास है। पीपल, बट, आंवला, तुलसी जैसे अनेक वृक्षों का प्राणी मात्र को निरंतर प्राणवायु देने का गुण होने से इनका संरक्षण संवर्धन हो और नए वृक्ष लगते रहें, इसके लिए हजारों साल पहले हरियाली अमावस्या पर वृक्ष लगाने जैसी परंपराएं चलाईं। वृक्षों में प्राण होते हैं ऐसे शोध कार्य किए। एक वृक्ष सौ पुत्र समान इस प्रकार का विचार प्रसारित किया। जिससे पर्यावरण संरक्षण करने का स्वभाव बना।

प्रकृति के ऐसे अनेक तत्वों को संरक्षित करने का हमने प्रयत्न किया। इन सभी तत्वों का हमारे जीवन में बहुत बड़ा योगदान है, इसलिए भूमि के प्रति देखने का हमारा दृष्टिकोण माता के समान है। प्राचीन काल से ही हम प्रात: जागरण करते समय ही भूमि पर पैर रखने से पहले चरण स्पर्श करते हैं और कहते हैं ‘समुद्र वसने देवी पर्वतस्तन मंडले, विष्णु पत्नी नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे। भूमि के प्रति इस प्रकार का भाव परंपरा से चला आ रहा है, क्योंकि हमारी सारी जीवन चर्या पृथ्वी पर ही होती है और हमारा जीवन पृथ्वी से उत्पन्न अनाज और भिन्न-भिन्न वस्तुओं से समृद्ध होता है।

मानव जीवन में भूमि का बहुत बड़ा महत्व है, विशेषकर भारतवर्ष में। यहां की अर्थव्यवस्था कृषि आधारित ही है। हम किसी उद्योगपति से भी यदि पूछेंगे तो वह भी यही कहेगा कि भारत की अर्थव्यवस्था का आधार कृषि है। भारतीय परंपरा में कृषि बहुत पुरानी है। ऐसा बताते हैं कि भारतीय कृषि का अस्तित्व 9000 वर्षों से भी अधिक है। भागवत पुराण में तो आता है कि महाराज पृथु के समय पूरी पृथ्वी को समतल कर खेती योग्य बनाया गया था, उसी समय कृषि करने के विभिन्न प्रकार के यंत्र निर्माण किए गए थे। उसी समय से गौ आधारित, प्रकृति आधारित खेती भारतवर्ष में हो रही है। हमारी खेती स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों और परिस्थितियों पर निर्भर है। हम वर्षों से गाय के गोबर से खाद निर्माण कर गोमूत्र, नीम आदि वृक्षों के पत्तों से कीट नियंत्रक बनाकर अपनी कृषि का संचालन कर रहे थे।

भूमि हमारी माता है इसलिए सदैव उसका संरक्षण होना चाहिए। इसकी चिंता होना चाहिए। इसमें उर्वरक शक्ति हमेशा बनी रहे, इसके हम प्रयत्न करते थे। गोबर की खाद डालकर भिन्न-भिन्न प्रकार की फसलें लगा कर जमीन को वर्ष में दो-तीन महीने के लिए खाली छोड़ देते थे, ताकि भूमि का पोषण होता रहे। इस प्रकार के अनेक उपाय हम सदियों से करते चले आ रहे थे। पर आज दुर्भाग्य से हमारी भूमि उस स्थिति में पहुंच गई है, जहां पर हम अपने आप को ठगा हुआ महसूस करने लगे हैं। हमारी भूमि विषैली अनुपजाऊ होने की दिशा में तीव्र गति से बढ़ती जा रही है। आम लोगों में यह धारणा बन गई कि भूमि एक आर्थिक स्रोत है, जिससे ज्यादा से ज्यादा अनाज की पैदावार लेना है।

स्वतंत्रता के बाद हमारे राष्ट्र में अनाज की कमी थी। खाद्य आपूर्ति के लिए तत्कालीन भारत सरकार ने हरित क्रांति कार्यक्रम क्रियान्वयन किया। उस समय लाल बहादुर शास्त्री जी ने अनाज की कमी को ध्यान में रखकर एक दिन का उपवास का भी आह्वान किया। उसी समय बीज, खाद, सिंचाई, हरित क्रांति कार्यक्रम का मुख्य आधार था। गेहूं और धान के खेतों में रासायनिक खाद एवं सिंचाई की मदद से अनाज उत्पादन की प्रतिस्पर्धा होने लगी। नि:संदेह हरित क्रांति ने हमें खाद्य सुरक्षा से बाहर निकाला लेकिन हरित क्रांति से पाए गए खाद्य ने पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र को बहुत बड़ी हानि पहुंचाई है।

आज 96.40 लाख हेक्टेयर भूमि अवनत है जो कि हमारे राष्ट्र के कुल भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 30 प्रतिशत है। मिट्टी की ऊपरी परत के क्षरण की वार्षिक गति 15.35 टन प्रति हेक्टेयर है। नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटेशियम की सर्व साधारण उचित मात्रा 4:2:1 है किंतु वर्तमान में प्रत्यक्ष मात्रा 7:2:4:1 है! पंजाब और हरियाणा में यह मात्रा 30:8:1 है। इतना होने के बाद भी अनाज का उत्पादन बढ़ नहीं रहा, स्थिर हो गया। हमारे खेत की मिट्टी इतनी कठोर हो गई है कि जिस खेत में आज से 30 साल पहले 30 एचपी का ट्रैक्टर चलता था उसी खेत में आज 60 एचपी का ट्रैक्टर चलाना पड़ रहा है। मिट्टी इतनी कठोर हो गई है कि उसमें बारिश का पानी भी अंदर नहीं जा सकता है, जिसके कारण भूमिगत पानी बहुत तेजी से कम हो गया।

भूमि के प्रति आर्थिक भाव होने के कारण हम एकल फसल गेहूं, चना, सोयाबीन बड़ी मात्रा में उत्पादन करने लगे। बड़ी मात्रा में रासायनिक खाद और कीटनाशक का उपयोग करने लगे। इस कारण कहा जा सकता है कि भूमि के प्रति जो दोहन था वह आज शोषण में बदल गया। जमीन को वर्ष में कुछ समय खाली छोड़ने का वक्त ही नहीं मिला। दो नहीं तीन-तीन फसल हम पैदा करने लगे। परिणाम स्वरूप जमीन में उपजाऊ पन घटने लगा। इन परिस्थितियों में हमें भूमि के सुपोषण की चिंता करना होगी। इसके लिए प्राचीन परंपरा और आधुनिक कृषि में समन्वय बिठाकर अपने परिसर एवं कृषि पद्धति के अनुरूप मनुष्य और पशु चालित छोटे यंत्र तथा औजारों को बढ़ावा देना, मजदूरों के साथ मिलकर कार्य करना होगा।

परिवार के लोगों द्वारा सभी कृषि कार्यों में सहयोग देना, गौ आधारित खेती के लिए प्रत्येक किसान अपने घर में गाय पालने, गाय के गोबर का खाद निर्माण करना। गोमूत्र प्रकृति के अन्य चीजों से कीट नियंत्रण बनाना, फसल चक्र का पालन करना, बदल-बदल कर फसलें लगाना, एक साथ अनेक फसले लगाना, पानी का अपव्यय रोकना, घर का पानी घर में, गांव का पानी गांव में, खेत का पानी खेत में, नाले का पानी नाले में, नदी का पानी नदी में जल संरक्षण के अनेक उपाय करना।

प्लास्टिक थर्माकोल जैसे पदार्थों का कम से कम उपयोग इस प्रकार के आज बहुत प्रयोग करने की आवश्यकता है। इस हेतु से भूमि सुपोषण अभियान, अक्षय कृषि परिवार द्वारा संघ की ग्राम विकास गौ सेवा पर्यावरण गतिविधि, विविध संगठन, धार्मिक संस्थाएं सब मिलकर के इस अभियान में 13 अप्रैल से लगी हुई हैं। गांव-गांव में भूमि पूजन अपने खेत में, अपने घर पर, गांव में सामूहिक कम संख्या में सम्मिलित होकर भूमि के प्रति पूजन के द्वारा फिर से श्रद्धा भक्ति की भावना पैदा करना, ताकि हम भूमि के प्रति देखने का हमारा दृष्टिकोण, माता के समान दोहन करने की वृत्ति, वृक्ष लगाने का, हरियाली चादर ओढ़ाने का और रासायनिक विश्व मुक्त कृषि करने का संकल्प सबके मन में आए और अपने घर में विष मुक्त अनाज खाने से शुरुआत करें।

गांव में रहने वाले, शहर में रहने वाले सभी लोग विष मुक्त अनाज अपने जीवन में उपयोग करें। बड़ी-बड़ी बीमारियों से रोग ग्रस्त शरीर से मुक्त होने का यही एक रास्ता है। सुखी समृद्ध समाज और देश तभी बनेगा, जब हमारे देश की भूमि सुपोषित होगी। आओ हम सभी संकल्प लें और भूमि सुपोषण अभियान को किसी संस्था संगठन का ना होकर जनजन का अभियान बनाएं और इस कार्य में लगें। (मध्‍यमत)
डिस्‍क्‍लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं।
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