दीपक गौतम
जी हाँ मैं गाँव हूँ, जो धड़कता रहता है हर उस शख्स के अंदर जिसने मुझे अपनी आत्मा में ओढ़ रखा है। क्योंकि किसी कोढ़ी मनुष्य के तन में वो आत्मा हो ही नहीं सकती, जो मुझे ओढ़ ले। अब तलक कायनात में वो रूह ही नहीं उतरी, जिसने मुझे कभी न कभी जिया न हो। मैं तो रूह को फानी कर देने वाली हवाओं से संवरा हूँ। महज़ मेरी सौंधी मिट्टी की खुशबू मरती हुई काया में प्राण फूँक सकती है। क्योंकि मैं गाँव हूँ। जी हाँ मैं गाँव हूँ। मैं ही गाँव हूँ और मैं शाश्वत हूँ। मैं ही शाश्वत हूँ।
मैं भला कहाँ किसी से कहने जाता हूँ कि मुझे अपने अंदर पालो। मैं दिखता जरूर छोटा हूँ, लेकिन असल में बहुत विशाल हूँ। मुझ में ये पूरा देश समाया है। मैं इंसान के इतर जगत के और अन्य प्राणियों को कई जन्मों से पाल रहा हूँ। क्या तुम्हें याद नहीं है कि बचपन में जब तुम्हें चोट लगी थी, तो मैंने ही तुम्हारे छिले हुए घुटने पर अपनी सुनहरी भस्म मली थी। क्या तुम भूल गए कि तभी तुम्हारे जी को आराम आया था ?
क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि मेरी जिस सुनहरी भस्म को तुम धूल कहते हो, उसी में लोटपोट कर तुमने अपने पैरों पर चलना सीखा है। तुम्हारा बाप और तुम्हारे बाप का बाप भी जब बचपन में मेरी गोद पर सिर रखकर सोते थे, तो मैं उनकी आत्मा में बिंध जाया करता था। तुम मुझे आज भले ही पहचानने से इंकार कर दो, लेकिन छुटपन में खेलते समय गिरते-पड़ते हुए तुम्हारे बदन पर पड़े चोट के निशान मेरा चुम्बन समझकर तुमने सहेज ही रखे होंगे। वो तुम्हें कभी भी झूठ नहीं बोलने देंगे। भला अपनी आत्मा पर हाथ रखकर कह दो कि वो निशान तुम्हारी आत्मा पर मेरे स्पर्श का, मेरी छुअन का, मेरे अपनेपन का, मेरी माटी का, मेरे बेहिसाब चुम्बनों का गवाह नहीं हैं ?
क्या तुम नहीं जानते कि प्रेम में पगे चुम्बन कभी झूठे नहीं होते हैं। वो हमेशा वक्त की सुनहरी जंजीरों पर लिपट जाया करते हैं। गोया कि जैसे किसी ठहरी हुई याद का फाहा हों। यूँ ही वो मन को ठंडक देते रहते हैं। मुझे माफ करना! मैं अपनी बतकही में तुम्हारा हाल-समाचार तो लेना ही भूल गया था। सुना है कि तुम किसी बड़े शहर में रहने लगे हो। मुझे न जाने कितने सालों बाद कोरोना काल में मेरी पगडंडी और खेतों पर चलते वक्त तुम्हारा स्पर्श मिला था। शायद शहर में तुम चप्पल पहनते होगे।
यहां न जाने क्यों तुम सुबह-सुबह उगते सूरज को देखने खेत पर खड़े थे, तभी तुमने मेड़ पर बिछी मेरी घास की चादर पर अपना पैर रखा था। बस तभी तुम्हें छू लिया था। मैं उस दिन तुमसे लिपटकर रोना चाहता था, लेकिन तुम्हारे आलिंगन का इंतजार ही करता रह गया। तुम कुछ देर रुककर उल्टे पाँव अपने घर चले गए थे। मैं तुम्हारी छुअन अब तक नहीं भूला हूँ। मैं तुम्हें तभी पहचान गया था। हाँ वो तुम ही थे। यकीनन तुम ही थे, जिसने वर्षों बाद मुझे मेरे बचपन का अहसास कराया था।
शायद तुम नहीं जानते हो कि मैं अब तक तुम्हारे दिल की धड़कनों से साँसें चुराता आया हूँ। अब जब तुम सालों-साल मेरे पास नहीं आते, तो तुम्हारी गंध इतने लंबे समय तक अपने नथुनों में सहेज पाना मेरे लिए सम्भव नहीं हो पाता है। क्योंकि मैं अब बूढ़ा हो चला हूँ। मेरे जिस बरगद के पेड़ की लटकने वाली जड़ें कभी तुम्हारा झूला थीं। क्या अब वो तुम्हारी स्मृतियों से जा चुकी हैं?
मेरे बरसाती नाले में ही तो तुमने तैरना सीखा है, जो तुम्हारे बाप के बचपन के समय नदी हुआ करता था। लेकिन अब वो नदी से नाला बन चुका पानी का बहता स्रोत बद से बदतर हो गया है। मेरे प्यारे, तुमने मेरी सुध लेने में बहुत रोज लगा दिए हैं। तुम्हें मेरी याद तब आई है, जब ‘कोरोना काल’ में ‘लॉकडाउन’ के जानवर ने तुम्हारी आँख में पड़ी शहरी मायाजाल के भ्रम की पट्टी को नोंचकर फेंका दिया था। मैं छद्म और छलावों से दूर हूँ। शायद इसीलिए मीलों-मील पैदल चलकर लौटे मजदूरों से लेकर महिलाओं, बच्चों और तुम तक हर व्यक्ति को मैंने पाला है।
ये जो थाली तुम्हें दिख रही है न। इसमें जुंढ़ी (ज्वार) की चाची और अम्मा के हाथ की पोयी मोटी रोटी है। आलू और टमाटर का भुर्ता है। कुम्हड़े की बरी वाली रसीली तरकारी है। सिलबट्टे पर पिसा लहसुन- धनिया का नमक, कैथे की चटनी और थोड़ा सा गुड़ है। शहर में तुमने खूब छप्पन-भोग उड़ाए हैं, लेकिन मेरी ये थाली उसे भी मात देती है। क्योंकि इसमें परोसा गया अन्न अम्मा के स्नेह की आँच में पका है। क्या तुम इस थाली को कभी भूल सकते हो? मौसम के अनरूप ये थाली भी अपना रंग बदलती रहती है, ताकि तुम्हारी सेहत पर बदलते मौसम कोई बुरा असर न पड़े।
शायद तुम नहीं जानते हो कि जीवन इस थाली में परोसी गई बरी वाली तरकारी की तरह सस्टेनेबल है। तुम जानते ही होगे कि बरिहा कुम्हड़ा के फूलते-फरते ही हींग सहित दुनिया भर के मसालों को मिलाकर तैयार हुई ये बरी (बड़ी) तक हमारी दूरदर्शी सोच का परिणाम है। अब तो हाईब्रिड का जमाना है तो सालभर कच्ची सब्जियाँ हाट-बाजार में मिलती रहती हैं। लेकिन ये कुम्हड़ौरी बरी सब्ज़ियों की अनउपलब्धता वाले मौसम के लिए बनाकर रखी जाती है। खाने के साथ-साथ जीवन जीने की ऐसी तैयारी और अन्य कई उपक्रमों से ही तो मैं भरा पड़ा हूँ।
ताश के फड़ से लेकर चौसर और शतरंज की बाजी तक हर बिसात का मैं माहिर खिलाड़ी हूँ। चाहो तो तुम मुझे आजमा सकते हो। तंग गलियों के मामले में मैं उस्तादों का भी उस्ताद हूँ। मेरी चौपाल और चौक-चौराहों की चर्चा हर दिल में होती रहती है। माना कि मैं अखबारों की खबरों से नदारद हूँ, लेकिन हर आदमी की आबादी का खुला इश्तहार हूँ। क्योंकि मैं गाँव हूँ। मुझे तुम्हारे जैसे भूले-भटके लोगों को भी कभी न कभी पालना ही पड़ ही जाता है। मुफ़लिसी के महीने हों या फिर जिंदगी में लॉकडाउन। जीवन के हर बुरे दौर में मैं तुम्हारे साथ खड़ा था, खड़ा हूँ और खड़ा ही रहूँगा। क्योंकि मैं शाश्वत हूँ। मैं तुम्हारा गाँव हूँ।
मुझे मिटाने की लगातार कोशिशें होती रही हैं। अब सतत चलने वाले विकास की प्रक्रिया और आधुनिकता की आँधी में मुझे पिछड़ने की दुहाई दी जाती है। लेकिन मैं अनंत की विकास यात्रा का साक्षी रहा हूँ। मैंने बाल-गोपाल की नटखट लीलाओं के साथ अपना बचपन जिया है। श्री कृष्ण और राधा रानी के प्रेम में सनकर जवान हुआ हूँ। मैंने प्रभु प्रेम में दीवानी और पागल हुई मीरा के विष का प्याला भी हंसते-हंसते उसी के साथ पिया है। अब तुम ही कहो प्यारे कि गोकुल से लेकर बृज-बरसाने तक जो स्वयं ईश्वर के प्रेम-सागर में गोता लगाकर नहाया हो। अब भला उसे किसी और तरह की प्यास कहाँ? मैं तो प्रेम- प्याले से ही तृप्त हूँ।
प्यारे, मैं अब इस पानी वाली वर्षा या प्यास के जोड़-तोड़ से बहुत आगे बढ़ गया हूँ। तुम ही कहो कि जिसने खुद बांके-बिहारी की रासलीलाओं को जिया हो, तुम उस ”गाँव” नामक संस्था को भला कैसे मार सकते हो? कैसे उसे पिछड़ा कैसे कह सकते हो? मैं तो अनंत की यात्राओं का गवाह हूँ। ईश्वर के अगाध प्रेम की जिस एक बूँद को पाने के लिए योगी, साधक और भक्त युगों-युगों तक तप में तल्लीन रहते हैं, उस प्रेम की ‘अमृत-वर्षा’ से ही मैं सदैव हरियाता हूँ, क्योंकि मैं गाँव हूँ।
मैं खिन्न हूँ कि शहर जाकर तुमने मुझे भुला दिया है। मैं बस कहानी, किस्सों, किताबों और चित्रों में ही खूबसूरत नहीं हूँ। तुम मुझे करीब से देखो। चले आओ लौटकर फिर तुम्हें उसी ऊमर, इमली या नीम के बिरबा पर चढ़कर नदी में कूदकर नहाना है। चले आओ कि करहों खिल गया है, अमराई जवान हो चुकी है। चले आओ कि यहाँ तुम्हारा प्रेम दफ़न है। अब ये मिट्टी सोना हो गई है। मेरी सुनहरी धूल का वास्ता है तुम्हें, जिसमें पलकर तुम जवान हुए हो। लो फिर वो गज़ल याद आ रही है। ”चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले”। इंकलाबी शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ साहब की ये गज़ल अक्सर तुम्हारी याद में गुनगुनाता रहता हूँ।
क्या तुम्हें मालूम है कि मेरे नथुनों में तुम्हारी गन्ध अब भी ताजा है? जबकि तुम्हें वापस गए हुए पाँच माह से भी ज्यादा समय हो गया है। मैं सिर्फ तुम्हारे ही नहीं बल्कि हर उस रूह के रूहानी इश्क में पागल हूँ, जिसके अंदर मैं समाया हूँ। तुम अब भी आश्चर्य कर रहे हो क्या? मैं तुम्हारा गाँव ही तो हूँ, तुम सबका अपना गाँव ही तो हूँ। तुम मेरे ताप से भला कहाँ बच पाओगे?
क्योंकि इस संसार में कोई ऐसी आत्मा नहीं है, जो मेरी छुअन या स्पर्श से वंचित हो। तुम हौले से अपने जी के किंवाड़ खोलकर तो देखो, मैं तुम्हारे अंदर न जाने कब से दाखिल हूँ। मैं तुम्हारी आत्मा का हाहाकार हूँ। मैं वही अनहद नाद हूँ, जिसे समाधिस्थ होकर योगी सुनने की चेष्टा करते हैं। चले आओ प्यारे तुम्हारे लिए प्रेम में पगी ये थाली लगा रखी है। मैं जानता हूँ कि तुम अभागे हो, तुमने कई वर्षों से प्रेम के पकवान नहीं खाये हैं। चले भी आओ कि अब मैं तुम्हारे इंतजार में हूँ। मैं सिर्फ तुम्हारी छुअन चाहता हूँ…!!
– तुम्हारा सिर्फ तुम्हारा गाँव।