अजय बोकिल
लगता है पश्चिम बंगाल का विधानसभा चुनाव अब ‘दर्द’ पर केन्द्रित होता जा रहा है। एक तरफ मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी का कथित हमले से लगी चोट का ‘दर्द’ है तो दूसरी तरह भाजपा उस ‘दर्द’ की बात कर रही है, जो बंगाल में मारे गए भाजपा कार्यकर्ताओं की मांओं का है। इन शोशेबाजियों के बीच असली राजनीतिक दर्द इस बात को लेकर है कि इस चुनावी भंडारे का फलितार्थ अनुकूल रहेगा या नहीं? ममता का दर्द यह है कि इस बार भाजपा उनसे राज्य की सत्ता छीन न ले, वहीं भाजपा का ‘दर्द’ यह है कि ममता के ‘इमोशनल कार्ड’ से उसका बना बनाया खेल कहीं ऐन वक्त पर बिगड़ न जाए। पहली बार बंगाल विजय का सपना अधूरा न रह जाए।
इसी कॉलम में पिछले दिनों मैंने लिखा था कि अगर पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव पूरी तरह ममता बैनर्जी पर फोकस हो गया तो पूरी ताकत से चुनाव लड़ रही भाजपा के लिए मुश्किल खड़ी हो सकती है। प्रचार के दौरान ममता पर हुए कथित हमले और उससे लगी चोट को लेकर ‘दीदी’ ने जो इमोशनल कार्ड खेला है, उसकी कोई माकूल काट भाजपा को सूझ नहीं रही है। राज्य में विपक्षी भाजपा और कांग्रेस-लेफ्ट भी ममता की इस चोट को महज चुनावी नाटक बताकर उसे खारिज करने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। लेकिन अपने देश में हुए पिछले कई चुनावों का अनुभव है कि अगर चुनाव के दौरान कोई भावनात्मक मुद्दा ‘चवन्नी’ की तरह चल गया तो प्रतिस्पर्द्धी पार्टियों को हाथ मलते रह जाना पड़ता है।
मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बैनर्जी पैर में प्लास्टर बांधे, व्हीलचेयर पर बैठकर चुनाव प्रचार कर रही हैं। कह रही हैं कि ‘मेरे दर्द से ज्यादा मुझे आपके दर्द की चिंता है। सो मैं तकलीफ सहकर भी लोगों से अपनी बात कहने के लिए निकली हूं।‘ ऐसी भावुक अपील मतदाताओं और खासकर महिला मतदाताओं को द्रवित कर सकती है। हालांकि इसके जवाब में केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने अपनी रैलियों में ममता को चुनौती के अंदाज में सवाल किया कि बंगाल में 120 भाजपा कार्यकर्ता मारे गए। क्या ममताजी को उनकी माताओं का दर्द महसूस हुआ? ममता को लगी चोट को आम बंगाली मतदाता किस रूप में लेता है, इस पर काफी कुछ निर्भर है। लेकिन इतना तय है कि भाजपा के आक्रामक प्रचार और भारी तोड़फोड़ से परेशान ममता ने बंगाल के चुनाव मुकाबले को फिर बराबरी पर ला दिया है।
ध्यान रहे कि शारीरिक दर्द, मानसिक दर्द और राजनीतिक दर्द में मूलभूत अंतर होता है। पश्चिम बंगाल के चुनाव में हम इन तीनो का ब्लेंड देख रहे हैं। ये चुनावी ‘खेला’ अब ‘डाल-डाल और पात-पात’ की तर्ज पर खेला जा रहा है। ममता बैनर्जी की चोट नवीनतम दांव है। तृणमूल कांग्रेस ने पहले ‘ममता पर हमले’ का दांव चला था। लेकिन बाद में साफ हो गया कि ममता को चोट हमले की वजह से नहीं, हादसे के कारण लगी है। बताया जाता है कि ममता कार में साइड का दरवाजा थोड़ा खुला रखकर और एक पैर थोड़ा बाहर निकाल कर बैठती हैं। नंदीग्राम में चुनाव नामांकन भरने के बाद इसी चक्कर में चलती कार के दौरान उनका एक पैर पोल से टकरा गया और चोट लग गई। मता और उनकी पार्टी ने तुरंत इसे ‘बंगाली अस्मिता’ पर हमला और इसके पीछे भाजपाइयों का हाथ बता दिया।
लेकिन इस सवाल का उनके पास कोई जवाब नहीं था कि बतौर मुख्यमंत्री उनकी कड़ी सुरक्षा के चलते यह हमला हो कैसे गया, किसने और क्यों किया? जानकारों का मानना है कि इसके पीछे ममता के चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर का दिमाग है। लिहाजा इस बात की पूरी संभावना है कि ममता के बाएं पैर पर लगा प्लास्टर राज्य में आखिरी दौर के चुनाव प्रचार के बाद ही उतरे। मतदाताओं को यह संदेश देने की कोशिश है कि दीदी घायल होकर भी किला लड़ा रही हैं। शायद इसीलिए ममता बैनर्जी ने पुरुलिया की सभा में कहा भी कि घायल शेर ज्यादा खतरनाक होता है। और फिर यह तो ‘शेरनी’ का मामला है।
बाघमुंडी की सभा में ममता ने खुद के घायल होने का जिक्र करते हुए कहा- ‘मुझे चोट लगी, लेकिन सौभाग्य से बच गई। चोट के बावजूद मुझे घर से निकलना पड़ा। इसकी वजह मेरा फर्ज है जो मेरे दर्द से ज्याादा जरूरी है। मेरे दर्द से ज्यादा दर्द राज्य के लोगों का है। मैं उन्हें छोड़ नहीं सकती।‘ दूसरी ओर बांकुड़ा की रैली में अमित शाह ने ममता की चोट को टीएमसी की साजिश बताया। वैसे इस चुनाव ‘दर्द’ के अलावा आम लोगों से जुड़े मुद्दे भी उठाए जा रहे हैं। ममता महंगी रसोई गैस, पेट्रोल डीजल को लेकर मोदी सरकार को घेर रही हैं। साथ ही बीजेपी से बंगाल की रक्षा करने की अपील भी कर रही हैं।
उधर भाजपा नेता अमित शाह और कैलाश विजयवर्गीय बंगाल के किसानों को 6 हजार रुपये पेंशन, टीचरों की तनख्वाह बढ़ाने, आदिवासियों के लिए एकलव्य स्कूल खोलने और बंगाल को ‘सोनार बांगला’ बनाने के वादे कर रहे हैं। ममता की चोट के जवाब में वो प्रदेश में राजनीतिक हत्याओं का मुद्दा भी उठा रहे हैं। भाजपा की उम्मीदों का एक आधार मुस्लिम वोटों का विभाजन भी है। इसमें कितनी कामयाबी मिलेगी, यह तो नतीजों से पता चलेगा।
बहरहाल सोचने की बात यह है कि चुनाव में ऐसे ‘इमोशनल कार्ड’ कितना लाभांश देते हैं? इस तरह का सबसे बड़ा राजनीतिक लाभ तो कांग्रेस को पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद मिला था। उसके बाद हुए एक आम चुनाव में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के बाद उपजी सहानुभूति लहर ने भी दिल्ली की सत्ता में लौटने के विपक्षी दलों के अरमानों पर पानी फेर दिया। उल्लेखनीय बात यह थी कि राजीव गांधी की हत्या के पूर्व चरण के चुनाव नतीजे मुख्य रूप से विपक्षी पार्टियों के पक्ष में रहे तो हत्या के बाद के चरणों के परिणामों में ज्यादातर जगह कांग्रेस जीती।
मध्यप्रदेश में ही भाजपा से जुड़े (अब रिटायर कर दिए गए) एक दलित नेता ने विधानसभा चुनाव में अपनी पतली हालत देखकर दलित होने का इमोशनल कार्ड खेला। वो चुनाव सभाओं में मंच पर नीचे बैठने लगे। अपना गिलास और चाय का कप यह कहकर अलग रखने लगे कि भाई मैं तो दलित हूं। अछूत हूं। बस आपकी दया का आकांक्षी हूं। नतीजा यह हुआ कि खुद को दीन-हीन बताने वाले उम्मीदवार के प्रति मतदाताओं में सहानुभूति बढ़ने लगी और मतदान की तारीख आते-आते खिलाफ माहौल पक्ष में बदल गया। वो चुनाव जीत गए।
बंगाल में भी ममता बैनर्जी के निजी सहानुभूति बटोरने की चाल की काट है तो पर एक सीमा तक। क्योंकि पैर की चोट के जवाब में कोई सिर तो फुड़वाने से रहा। फुड़वा भी ले तो लात का जवाब खोपड़ी से दिया जा सकेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। बात वही है, पहले मारे सो मीर। पहले दीदी ने पैर पर प्लास्टर बंधवा लिया है! यूं चुनाव परिणामों को लेकर आशंकाएं दोनों खेमों में है। दीदी को डर इस बात का है कि उनका किला कहीं ढह तो नहीं जाएगा? बीजेपी को डर यह है कि इतनी कोशिशों के बाद भी बंगाल में सत्ता का किला हाथ आएगा या नहीं? या फिर उसे मुख्य विपक्षी पार्टी बनकर संतोष करना पड़ेगा।
उधर बरसों सत्ता में रही लेफ्ट पार्टियां यह चुनाव कांग्रेस और मुस्लिम कट्टरपंथी पार्टी आईएसएफ के भरोसे लड़ रही हैं। लेकिन उन्हें सबसे बड़ा ‘धोखा’ उस किसान आंदोलन से मिल रहा है, जिसे खड़ा करने में उन्होंने पूरी ताकत लगा दी थी। कृषि कानूनों की वापसी की मांग को लेकर राजनीतिक दबाव बनाने की इस मुहिम का झंडा अब भारतीय किसान यूनियन के राकेश सिंह टिकैत ने थाम लिया है। टिकैत बंगाल में किसान महापंचायतें कर भाजपा को हराने की अपील कर रहे हैं। टिकैत की अपील का फायदा ममता की तृणमूल कांग्रेस को होता दिख रहा है, बजाए वामपंथी पार्टियों के। उधर टिकैत हैं कि लेफ्ट को ज्यादा भाव नहीं दे रहे।
अब रहा सवाल दर्द को राजनीतिक रूप से भुनाने का। कहते हैं कि ममता इस मामले में माहिर हैं। वामपंथियों के राज में भी वो अक्सर इस तरह के दांव चला करती थीं। एक तो मतदाता से गुहार और वो भी महिला नेता करे तो फर्क पड़ता ही है। इस बार यह चाल कितनी कामयाब होगी, अंदाज लगाना कठिन है, क्योंकि सहानुभूति के अलावा दस साल तक सत्ता में रहने के कारण एंटी इनकम्बेंसी भी उनके साथ है। जबकि बीजेपी राज्य में पहली बार ही सत्ता की दावेदारी कर रही है। देखना यही है कि ‘दर्द’ की यह सियासत किस करवट बैठती है। शायर कौसर मजहरी का शेर है-
ये तो अच्छा है कि दुख-दर्द सुनाने लग जाओ,
हर किसी को न मगर जख्म दिखाने लग जाओ।
(मध्यमत)
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