सुनो ऐसी नदी की कहानी जो आंसुओं से निकली है

सुरेंद्रसिंह दांगी

किंवदंती है कि गंज बासौदा शहर से लगभग 16 किलोमीटर दूर ग्राम हिन्नोदा में ऋषि पाराशर का आश्रम था। जहां तपस्यारत ऋषि की आँखों से बहे आंसुओं से पाराशरी नदी निकली है। पाराशरी, स्थानीय छोटी सी नदी है जो अपने उद्गम स्थल ग्राम हिन्नोदा से बहकर लगभग 30 किलो मीटर की यात्रा कर गाँव जुगयायी के आगे बेतवा नदी से संगम करती है। अपनी इस यात्रा में वह लगभग 12 गावों को कृतार्थ करती है।

आज अपने अस्तित्‍व के लिये जूझती पाराशरी नदी में कभी बारहों महीने भरपूर पानी रहता था। गंज बासौदा शहर के बीचों बीच बहकर शहर को दो हिस्सों में विभाजित करती  पाराशरी नदी सदानीरा रहती थी। लगभग 50-55 वर्ष पहले नदी लबालब रहती थी। डोल ग्यारस पर भगवान का जल बिहार होता था, नागपंचमी पर शीतला घाट पर दंगल का आयोजन होता था। जवारे-भुजरियां, महुलिया, दूल्हा-दुल्हन के मोहर इसी नदी में सिराये जाते थे।

कार्तिकस्नान करती महिलाएं इसी के घाटों पर कृष्ण के भजन गाती थीं। ऊमर घाट, कबीट घाट, चमर घाट, चकला घाट, मरघटा घाट पर पानी की कोई कमी नहीं थी। पाराशरी श्‍मशान घाट से लगा हुआ मरघटिया घाट पत्थरों से पक्का बना था (जो अभी भी है) यहां अंतिम संस्कार करने के बाद लोग स्नान करके ही घर जाते थे। पितृ पक्ष में पितरों का तर्पण इसी के घाटों पर होता था।

चकला घाट से स्थानीय रेलवे स्टेशन के लिये पानी की सप्लाई होती थी। इस घाट पर वाटर लिफ्टिंग के लिये इंजन लगा था। नदी शहरवासियों की जरूरतों को पूरा करती थी। नहाने-धोने और पशुओं के लिये पानी के लिये शहर इसी नदी पर निर्भर था। यहाँ तक कि पीने के लिये इसी नदी का पानी उपयोग किया जाता था। शहर की मंडी में अनाज बेचने आने वाले किसान इसी के किनारे दाल-भर्ता बनाकर भोग लगाते, अपने बैलों को पानी पिलाते और इसी में स्नान करते थे। कई लोगों ने इसी नदी में तैराकी सीखी।

लेकिन कभी हँसती-खेलती, इठलाती-बलखाती यह नदी आज अंतिम सांसें गिन रही है। अपने उद्गम स्थल से लेकर संगम स्थल तक नदी अतिक्रमण की चपेट में है। किसानों ने नदी के किनारों की पड़त भूमि आबाद कर ली है। जिससे खेतों की मिट्टी ने बरसाती पानी के साथ बहकर नदी को उथला कर दिया है। रही-सही कसर फसलों की सिंचाई के लिये लगे पंप पूरी कर देते हैं। सैकड़ों सिंचाई पम्प नदी की बूंद-बूंद चूस लेते हैं। जून में सूखने वाली नदी दिसम्बर-जनवरी में ही दम तोड़ देती है।

उद्गम स्‍थल से निकलकर जैसे-तैसे नदी शहर में प्रवेश करती है। इसके साथ सबसे ज्यादा बुरा बर्ताव शहर के पढ़े-लिखे, साधन संपन्न वर्ग ने ही किया है। उन्‍होंने इसके दोनों किनारों पर अतिक्रमण कर बहुमंजिला भवन बना लिये हैं। इतना ही नहीं अनेक ने तो शौचालय के लिये टैंक तक नहीं बनाए हैं। शौचालय के पाइप सीधे नदी में ही खुले छोड़ दिये हैं। इस तरह से जल वाहिनी आज मलवाहिनी बन गई है। शहर का कूड़ा-करकट और निस्तार का गंदा पानी सीधे नदी में ही मिल रहा है। नदी को एक तरह से शहर का डस्टबिन बना कर रख दिया गया है। कभी बारहमासी रही यह नदी आज नाला बन गई है।

आश्चर्य है कि नदी के किनारों पर किये गए अतिक्रमण जिम्मेदारों को नहीं दिखते। प्रशासन और राजनीति की मिलीभगत के बिना यह सम्भव ही नहीं है। इसीलिये बिना आँख वालों को भी दिखने वाले अतिक्रमण आँख वालों की नजर में नहीं चढ़ते।

क्या नदी को बचाया जा सकता है
नदी प्रेमी घनश्याम दास साध, विजय अग्रवाल, शेखर चौरसिया एक स्वर से कहते हैं कि यदि नीयत साफ़ हो तो नदी को बिल्कुल बचाया जा सकता है। राजस्व रिकार्ड के अनुसार नदी के क्षेत्र को अतिक्रमण से पूरी तरह मुक्त करवाया जाए और दोनों किनारों पर सघन पौधा रोपण कर दिया जाए। नदी में जो गन्दा पानी मिलता है उसके शुद्धिकरण के लिये ट्रीटमेंट प्लांट स्थापित हो और शहर का कचरा नदी में न डाला जाए। नदी के उद्गम स्थल से संगम तक गहरीकरण कर दिया जाए तो नदी आज भी पुनर्जीवित हो सकती है। यह कठिन अवश्य है लेकिन असम्भव नहीं है। इसके लिये भगीरथी प्रयास ही करना होगा।

अभी तक नदी को बचाने के लिये गम्भीर प्रयास करना तो दूर इस दिशा में सोचा तक नहीं गया है। हर साल गर्मियों में नदी पर श्रमदान का नाटक अनिवार्य रूप से मंचित किया जाता है। जिसमें शहर के जनप्रतिनिधियों सहित गणमान्यजन और वरिष्ठ अधिकारी भाग लेते हैं। समाचार पत्रों में समाचार प्रकाशित होते हैं। फ़ेसबुक की वॉल्‍स श्रमदान की तस्वीरों से भर जाती है। सेल्फियां ली जाती हैं। और बस कर्तव्यों की इतिश्री हो जाती है।

यह स्थिति पाराशरी जैसी सभी स्थानीय नदियों की है। हमारे गाँव (कुल्हार) की वेगमती नदी की भी यही कहानी है। गंगा, यमुना, नर्मदा, क्षिप्रा जैसी विशाल नदियां ही जब अपने अस्तित्‍व की लड़ाई लड़ रही हों तब पाराशरी और वेगमती जैसी छोटी-छोटी स्थानीय नदियों की बिसात ही क्या है? यदि समाज इसी तरह सोने का ढोंग करता रहा तो नदी के दुश्मन अतिक्रमणकारी नदी में ही ‘पाराशरी-मार्केट’ बना कर नीलाम कर देंगे और नदियों को माँ मानने वाला पाखंडी समाज यूँ ही नदी पूजन करता रहेगा।
(लेखक पंचतत्व संरक्षण समिति, गंज बासौदा के अध्‍यक्ष हैं।)

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