राकेश अचल
पिछले 47 दिन से दिल्ली की दहलीज पर डटे किसानों के मामले में देश की सबसे बड़ी अदालत की भूमिका पर सबकी निगाहें हैं लेकिन हमारी निगाहें सरकार पर हैं, क्योंकि सरकार को हर मुद्दे के लिए अदालत के कन्धों पर बन्दूक रखने की लत लग गयी है। सरकार कभी खुद अदालत जाती है तो कभी छद्म तरीके से अपने समर्थकों को अदालत भेजती है। किसान अब तक किसी अदालत में नहीं गए हैं लेकिन उन्हें अदालत में घसीटने की कोशिश की जा रही है। देश की सबसे बड़ी अदालत किसान आंदोलन को लेकर फिलहाल सख्त मुद्रा में है।
आंदोलनों से निबटना अदालत का काम नहीं है, ये काम सरकारों का है और दुर्भाग्य ये है कि सरकारें अपना काम जिम्मेदारी के साथ नहीं कर रही हैं। यदि कर रही होतीं तो देश के किसानों को फैसले के लिए इतनी लम्बी अवधि तक अपना घरबार छोड़कर सड़कों पर नहीं बैठना पड़ता। किसानों के आंदोलन को लेकर अब सरकार की स्थिति उस सांप जैसी हो चुकी है जो छछूंदर को मुंह में ले तो गया है लेकिन अब न उगल पा रहा है और न निगल पा रहा है। निगलता है तो अंधा होने का खतरा है और न निगलता है तो भी खतरा ही खतरा है।
पिछले 47 दिनों में सरकार की ओर से किसान आंदोलन को तरह-तरह से बदनाम करने की कोशिश की गयी। कभी इस आंदोलन को पृथकतावादी बताया गया तो कभी विपक्ष की साजिश। कभी आंदोलन को तोड़ने के लिए समानांतर आंदोलन करने का कुत्सित प्रयास किया गया तो कभी देश भर में सात सौ से अधिक सभायें कर आंदोलन को पंचर करने की कोशिश की गयी। जब किसानों का सब्र और एकता खंडित नहीं हुई तो सरकार और उसके शुभचिंतक देश की सबसे बड़ी अदालत जा पहुंचे, लेकिन दूध से जला छाछ को भी फूंककर पीता है सो अदालत ने भी फिलहाल इस मामले से अपने हाथ खींच लिए हैं।
देश की अदालतों की विश्वसनीयता पिछले कुछ सालों में घटी है, बावजूद इसके देश का भरोसा अब भी अदालतों पर है, इसे बचाये रखने का दायित्व भी उन्हीं कन्धों पर है जिनके ऊपर अदालत की विश्वसनीयता को कम करने के लिए उँगलियाँ उठाई जाती हैं। अच्छी बात ये है कि देश की सबसे बड़ी अदालत ने केंद्र सरकार से कहा है कि वो किसान आंदोलन के लिए बनाये कानूनों को स्थगित करे, यदि सरकार ऐसा नहीं करती तो अदालत स्वयं कुछ करेगी।
दरअसल सरकार भी यही चाहती है कि अब जो करे अदालत ही करे, क्योंकि सरकार तो कुछ करने की स्थिति में है नहीं। सरकार लगातार आठ दौर की बातचीत के बावजूद किसानों की मांगें मानते हुए कानूनों को रद्द करने के लिए राजी नहीं है और किसान भी इन्हें रद्द कराये बिना घर जाने को राजी नहीं है, ऐसे में अदालत ही सरकार का और किसानों का मान रख सकती है। किसानों की मांगों को लेकर अदालत का हस्तक्षेप अस्वाभाविक होगा। अदालत चाहे कानूनों को ‘होल्ड’ करने के निर्देश दे या कोई समिति बनाने की व्यवस्था करे, लेकिन इससे आंदोलनकारियों का तो भला होना नहीं है।
किसान कानूनों की वापसी से कम पर घर जाने को तैयार नहीं है और सरकार ने साफ़ कर दिया है कि वो कोई क़ानून वापस नहीं लेगी। आखिर फिर गतिरोध कैसे टूटेगा? क्या सरकार देश में ऐसी स्थितियां बना देगी कि किसान और आमजन आपस में ही भिड़ने लगें? यदि ऐसा करने की कोशिश की जा रही है तो ये खतरनाक है। अदालत को इसका पटाक्षेप करना चाहिए।
अदालत में देश के सबसे विद्वान वकील सरकार और याचिकाकर्ताओं की तरफ से पैरवी कर रहे हैं इसलिए हम जैसे छोटे लेखकों की राय का कोई महत्व नहीं है। किन्तु हम जैसे लोग जो कहते या लिखते हैं उसमें कोई लाग-लपेट नहीं है। दुर्भाग्य ये है कि किसान आंदोलन के मामले में हमारा लेखक समुदाय भी बंटा हुआ है। कोई सरकार की हाँ में हाँ मिला रहा है तो कोई सरकार की आलोचना करने के लिए ही कमर कसे हुए है।
किसान आंदोलन मामले में सुप्रीम कोर्ट के अप्रत्याशित रुख के बाद केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में प्रारंभिक हलफनामा दाखिल किया है। केंद्र ने कोर्ट से कहा कि प्रदर्शनकारियों की ‘गलत धारणा’ को दूर करने की जरूरत है। कृषि मंत्रालय ने शीर्ष अदालत को बताया कि प्रदर्शनकारियों में यह गलत धारणा है कि केंद्र सरकार और संसद ने कभी भी किसी भी समिति द्वारा परामर्श प्रक्रिया का पालन करते हुए मुद्दों की जांच नहीं की है। सरकार का हलफनामा देखेंगे तो पाएंगे कि सरकार अपने रुख से पीछे हटने के लिए राजी है ही नहीं। हलफनामे में कहा गया है कि कानून जल्दबाजी में नहीं बने हैं बल्कि ये तो दो दशकों के विचार-विमर्श का परिणाम है।
सरकार जोर देकर कह रही है कि नए कानूनों से देश के किसान खुश हैं क्योंकि उन्हें अपनी फसलें बेचने के लिए मौजूदा विकल्प के साथ एक अतिरिक्त विकल्प भी दिया गया है। इससे साफ है कि किसानों का कोई भी निहित अधिकार इन कानूनों के जरिए छीना नहीं जा रहा है। हलफनामे में आगे कहा गया है कि केंद्र सरकार ने किसी भी तरह की गलतफहमी को दूर करने के लिए किसानों के साथ जुड़ने की पूरी कोशिश की है और किसी भी प्रयास में कमी नहीं की है। जबकि ये सरासर झूठ है।
अब सवाल ये है कि जब सरकार के रुख में कोई बदलाव है ही नहीं तो किसानों का आंदोलन आखिर समाप्त कैसे होगा? सरकार आखिर किसानों को कब तक सड़कों पर बैठाये रखेगी? क्या सरकार किसानों को खाली हाथ भेजने पर ही आमादा है? सरकार का अहंकार आखिर क्या जनादेश से भी बड़ा है? ये ऐसे तमाम सवाल हैं जिनका उत्तर अभी तक न आया है और न आने की कोई उम्मीद है। अदालत भी सरकार के हलक में हाथ डालकर कुछ कहलवा नहीं सकती। सरकार को जो कहना है सो उसने अपने हलफनामे में कह दिया है। अब तो सरकार ने अदालत को भी संशय में डाल दिया है। अदालत से ऐसा काम करने की अपेक्षा की जा रही है जो अदालत का काम है ही नहीं।
देश में अगले पखवाड़े गणतंत्र दिवस मनाया जाना है, यदि इस शुभ दिन से पहले किसानों का आंदोलन समाप्त न हुआ तो सरकार और किसानों के बीच की दूरियां और बढ़ सकतीं हैं। क्योंकि किसान भी 26 जनवरी को दिल्ली में रैली करने पर अड़े हुए हैं। गणतंत्र दिवस पर अब तक देश दुनिया को अपनी सामरिक, आर्थिक और सांस्कृतिक उपलब्धियों से परिचित कराता आया है, लेकिन यदि किसान आंदोलन समाप्त न हुआ तो ये पहली बार होगा कि दुनिया देश में पनप रहे असंतोष को भी पहली बार देखेगी। इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही माना जाएगा। उम्मीद कि जाना चाहिए कि दोनों पक्षों के बीच होने वाला वार्ता का अगला दौर निर्णायक और समाधानकारक होगा। सरकार, अदालत और किसानों के सम्मान के लिए ऐसा होना ही पहला और अंतिम विकल्प है।