‘बंद’ आँखें खोलने के लिए ‘भारत बंद’

राकेश अचल

जनादेश की अनदेखी कर आँखें बंद किये बैठी सरकार को जगाने के लिए 8 दिसंबर को ‘भारत बंद’ है। किसानों के आव्हान पर आयोजित इस बंद के पीछे देश के तमाम राजनीतिक दल भी हाथ बाँध कर समर्थन में खड़े हैं। लेकिन ये बंद उनका नहीं किसानों का है। लोकतंत्र में ‘देशबन्दी’ प्रतिकार का अंतिम हथियार माना जाता है। बंद के बाद भी यदि सरकार की आँखें नहीं खुलतीं तो टकराव गहराता ही है।

बीते 12 दिन से तीन कानूनों को वापस किये जाने की मांग को लेकर दिल्ली के बाहर डेरा डाले बैठे किसान संगठनों ने पांच दौर की वार्ता विफल होने के बाद भारत बंद का आव्हान किया है। देश में गांधीवादी तरीके से इतना लंबा किसान आंदोलन जब केंद्र सरकार की आँखें नहीं खोल पाया तब हारकर बंद का आव्हान किया गया। ये बंद भी सरकार की आँखें खोल पायेगा इसमें मुझे संदेह है। आपको शायद पता होगा या न हो लेकिन किसी भी बंद से देश को कम से कम तीस हजार करोड़ रुपये की आर्थिक क्षति एक दिन में हो जाती है।

किसानों की मांगे सीधी-सादी हैं, स्पष्ट हैं इसलिए उनके बारे में निर्णय लेने में इतना समय नहीं लगना चाहिए था। सरकार को ‘हाँ’ या ‘ना’ में से किसी एक को चुनना है, लेकिन सरकार ऐसा जानबूझकर नहीं कर रही, क्योंकि वह शायद नहीं चाहती कि कानूनों को रद्द किया जाये। केंद्र की मंशा कानूनों में आंशिक संशोधन की तो है लेकिन उन्हें वापस लेने की नहीं। लगता है कि सरकार ने किसानों की मांगों को न मानने की कसम खा ली है।

भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के जमाने में ये पहला भारत बंद नहीं है। 2018 , 2019 में भी अलग-अलग विषयों को लेकर भारत बंद जैसे आंदोलन हुए हैं। 2018 में आरक्षण समर्थकों और विरोधियों ने अलग-अलग तारीखों पर भारतबंद किया था। 2019 में केंद्र की श्रमिक विरोधी नीतियों के खिलाफ भारत बंद का आव्हान किया गया था। देशव्यापी इस आंदोलन से भी जब सरकार नहीं जागती तब अराजक स्थितियां उत्पन्न होती हैं। बंद कितना भी शांतिपूर्ण हो अराजक तत्व इसकी आड़ में गड़बड़ियां करते ही हैं, और बदनाम होते हैं बंद के आयोजक या आव्हानकर्ता। भारतबंद के हथियार का इस्तेमाल हर विपक्षी दल ने किया है। भाजपा ने भी 2012 में भारत बंद कराया था और कांग्रेस ने भी 2019 में भारत बंद के जरिये सरकार को जगाने का प्रयास किया था। इसलिए बंद एक आजमाया हुआ औजार है।

देश की अर्थव्यवस्था की धुरी माने जाने वाले किसानों की ओर से पिछले तीन साल में ये दूसरा भारत बंद का आंदोलन है। इससे पहले 2018 में भारतबंद का आव्हान किया गया था। उस समय किसानों के छोटे-बड़े करीब 110 संगठन आंदोलन में शामिल थे। कल 8 दिसंबर को होने वाले भारत बंद के आव्हान में 40 संगठन शामिल हैं। इसके अलावा देश के तमाम छोटे-बड़े राजनीतिक दल भी इस बंद के आंदोलन के समर्थन में आ खड़े हुए हैं। इस बंद को सत्तारूढ़ दल तो राष्ट्रविरोधी मान ही रहा है लेकिन आयोजनकर्ताओं के पास इसके अलावा अब कोई और विकल्प बचा ही नहीं है। देश ने नोटबंदी के विरोध में भी भारतबंद देखा लेकिन जैसी एकजुटता 8 दिसंबर के भारत बंद को लेकर देखी जा रही है वैसी एकता पहले कभी नजर नहीं आयी है।

मुझे याद है कि 1992 में भाजपा के शीर्ष नेता लाकृष्ण आडवाणी की गिरफ्तारी के विरोध में भी भारत बंद जैसे आव्हान किये गए थे, तब संसद को भी बंद करने का प्रयास किया गया था। आज दुर्भाग्य से संसद को कोरोना की आड़ में पहले से ही बंद किया जा चुका है, इसलिए किसानों को सड़कों पर आना पड़ा है। संसद में तो अब जनता की सुनता ही कौन है। संसद में तो ध्वनिमत ही सबसे बड़ा अमोघ अस्त्र बन गया है।

पहले के भारत बंद और कल 8 दिसंबर को होने वाले भारत बंद में बुनियादी फर्क है। पहले के बंद में राजनीतिक दल आगे होते थे, इसमें राजनीतिक दल पीछे हैं। बंद के अगले दिन ही किसान संगठनों और केंद्र सरकार के बीच छठवें और शायद अंतिम दौर की वार्ता प्रस्तावित है। इस बंद को यदि सरकार ने गंभीरता से न लिया तो कोई बड़ी बात नहीं कि देश में अराजक स्थितियां बन जाएँ और देश एक बार फिर 1975 की तरह किसी अंधेरी सुरंग में धकेल दिया जाये। इसलिए इस भारत बंद पर सबकी यानि पूरे देश और दुनिया की निगाहें टिकी हुई हैं।

पिछले एक पखवाड़े में सरकार ने किसान आंदोलन को लेकर अपने हाथ-पांव मारे हैं लेकिन सरकार किसानों को संतुष्ट नहीं कर पा रही है। वार्ताएं बेनतीजा समाप्त हो रही हैं। बैठकों में ‘नमक’ महत्वपूर्ण हो गया है, आंदोलनकारियों और सरकार के बीच सौजन्यता का भीषण संकट है। सरकार किसानों को नए कानूनों के बारे में समझने में लगी है, लेकिन अब तक सरकार ने ऐसा एक भी संकेत नहीं दिया है जिससे लगे कि वह किसानों की मांगों के अनुरूप कोई कदम उठा रही है। देश हित में ये गतिरोध टूटना चाहिए। पता नहीं क्यों केंद्र सरकार किसानों के पीछे खड़े देश को नहीं देख रही। सरकार को इस आंदोलन के पीछे मरी मराई कांग्रेस और अकाली दल दिखाई दे रहा है।

आज की सूरत में कोई भी सरकार बल प्रयोग से किसानों को दिल्ली से खदेड़ तो नहीं सकती, ऐसा करना सरकार को भारी पड़ सकता है। कोविड के दौर में सरकार नहीं चाहेगी कि देश में किसी भी तरह की अराजकता न हो, लेकिन यदि ऐसा होता है तो इस बार जिम्मेदारी किसी संगठन या दल की नहीं अपितु सरकार की मानी जाएगी। आंदोलनकारियों ने सरकार को विमर्श के लिए जितना आवश्यक समय चाहिए था उससे कहीं अधिक समय दे दिया है। गौरतलब है कि इस मामले में भाजपा अपने विशाल संगठन के जरिये भी देश के किसानों की भ्रांतियों या धारणाओं को निर्मूल करने में नाकाम रही है।

कुल मिलाकर 8 दिसंबर का दिन सरकार और आंदोलनकारियों के लिए ‘अग्निपरीक्षा’ का दिन है। भारत बंद को भी किसान आंदोलन की तरह शांतिपूर्ण रखना जितना जरूरी है उतना ही जरूरी है कि सरकार बंद के विरोध में जानबूझकर कोई टकराव पैदा न करे, अन्यथा अनहोनी को टाला नहीं जा सकेगा। और इस समय कोई भी अनहोनी देश बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं हैं। भारत बंद से यदि सरकार की आँखें खुल जाएँ तो देश का कल्याण हो। आमीन।

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