गिरीश उपाध्याय
मीडिया में खबरों पर बात करते समय हम अकसर कई ऐसे विषयों या बिंदुओं को भूल जाते हैं जो समाज के जीवित होने का प्रमाण देते हैं। और जब बात राजनीतिक खबरों की हो तो यह चूक और भी ज्यादा होती है। राजनीतिक विषयों पर बात करते हुए हम भी बहुत हद तक राजनीतिक ही हो जाते हैं। हमें राजनीतिक घटनाओं में समाज के भीतर धड़कते जीवन के बाकी पहलू या तो दिखाई नहीं देते या फिर हम उन्हें देखने का जतन ही नहीं करते।
बुधवार को जब दिल्ली में भाजपा मुख्यालय पर, हाल के चुनावों/उपचुनावों में मिली सफलता को लेकर मनाए गए जश्न में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भाषण सुना तो लगा कि हां, हम ऐसी कई बातों को सरासर नजरअंदाज कर रहे हैं जिन पर हमारा ध्यान जाना चाहिए। मोदी ने अपने भाषण में इस बात का सबसे पहले उल्लेख किया कि ये सारे चुनाव/उपचुनाव कोरोना काल के बावजूद न सिर्फ निर्विघ्न संपन्न हुए बल्कि उनमें लोगों ने बढ़ चढ़कर हिस्सा भी लिया।
मोदी ने कहा- ‘’कुछ चीजें तो हम देश में भूल गए हैं। आपको पता होगा कि पहले जब चुनाव होते थे तो दूसरे दिन हेडलाइंस आती थीं बूथ लूट की, दोबारा मतदान की। आज खबर आती है कि पोलिंग बढ़ा, पुरुषों का वोट बढ़ा। पहले बिहार में यह खबर आती थी कि इतने लोग मारे गए। लेकिन अब नहीं। कोरोना की वजह से मतदान कम होगा, इस आशंका को लोगों ने ध्वस्त कर दिया। कोरोना के इस संकट काल में चुनाव कराना आसान नहीं था लेकिन हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं इतनी सशक्त और पारदर्शी हैं कि चुनाव कराकर दुनिया को भी भारत की ताकत का अहसास कराया है।‘’
प्रधानमंत्री बोले- ‘’लोकतंत्र के प्रति हम भारतीयों की जो आस्था है, उसकी मिसाल पूरी दुनिया में कहीं नहीं मिलती। चुनाव नतीजों में हार-जीत अपनी जगह है लेकिन चुनाव की ये प्रक्रिया हर भारतीय के लिए गौरव का विषय है, इसलिए मैं पूरे देश को बधाई देता हूं, धन्यवाद करता हूं।‘’
दरअसल चुनाव बिहार में ही नहीं हमारे यहां भी हुए हैं। पूरी विधानसभा के लिए न सही, पर इतनी अधिक संख्या में एकसाथ उपचुनाव भी कभी नहीं हुए। परिणाम आने के बाद से मैं मीडिया में उनके विश्लेषण देख रहा हूं। करीब करीब सभी विश्लेषण राजनीतिक हार-जीत पर केंद्रित हैं। किसी में इस बात को रेखांकित नहीं किया गया कि कोरोना काल की तमाम विपरीतताओं के बावजूद मतदाता लोकतंत्र के इस अनुष्ठान में पूरे उत्साह से शामिल हुआ।
जरा सोचकर देखिये, कोरोना संकट के इस कालखंड में मतदाता यदि घर से बाहर ही नहीं निकलते तो चुनावों का क्या होता। लेकिन मध्यप्रदेश के मतदाताओं ने चुनाव में बढ़चढ़कर भाग लिया। यह कोई मामूली बात नहीं है। जिस कांटे की टक्कर वाला यह चुनाव था और प्रचार में भाषा के जिस स्तर तक यह उतर गया था, उसमें इसका अहिंसक या शांतिपूर्ण तरीके से संपन्न हो जाना अपने आप में अद्भुत है, खासतौर से ग्वालियर चंबल संभाग में।
चुनाव के विश्लेषक सिंधिया और कमलनाथ के कद और हैसियत पर तो बात कर रहे हैं, लेकिन वे इस महत्वपूर्ण बात को भूल रहे हैं कि मतदाताओं ने बहुत समझदारी से अपना प्रतिनिधि भी चुना है और राजनीतिक खरीद-फरोख्त पर मुहर भी नहीं लगाई है। कोई यह नहीं लिख रहा कि चुनाव मैदान में दल बदलकर उतरे एक तिहाई से अधिक उम्मीदवारों को मतदाताओं ने खारिज भी किया है। इनमें कांग्रेस छोड़कर भाजपा के टिकट पर लड़ने वाले भी हैं और भाजपा या अन्य दल छोड़कर कांग्रेस के टिकट पर लड़ने वाले भी। खारिज किए जाने वालों में मंत्री भी हैं और पूर्व मंत्री भी।
ऐसा करके मतदाताओं ने लोकतंत्र का मान रखा है। राजनीतिक दलों की दिवाली तो इस बार मनेगी ही, लेकिन हमें उन लोगों का शुक्रगुजार होना चाहिए जिन्होंने दिवाली से पहले लोकतंत्र की दहलीज पर दिया रखकर उसे रोशन किया है। दिवाली की रोशनी एकबारगी हो या न हो लेकिन लोकतंत्र को हमेशा रोशन रहना चाहिए। उसे जगमग करने की कोशिशें कभी कम नहीं होनी चाहिए। आप भी कल जब दिवाली का त्योहार मना रहे हों तो एक दिया देश और लोकतंत्र के नाम पर जरूर जलाएं…
आप सभी को दीपपर्व की हार्दिक शुभकामनाएं!