राकेश अचल
आज लिखना तो अमेरिका की सियासत पर चाहिए था लेकिन अपना विदेशनीति पर ज्ञान शून्य है इसलिए गृहक्षेत्र चंबल पर लिखने का मन बना लिया। चंबल एक जमाने में किंवदंतियों की खान थी, थी इसलिए कि चंबल घाटी न होते हुए भी घाटी है, नदी तो है ही। बगावत का प्रतीक है। और आज से नहीं है शताब्दियों से है। चंबल की बगावत ने मुगलों और अंग्रेजों तक को चैन से नहीं बैठने दिया था तो बेचारे कमलनाथ किस खेत की मूली हैं।
चंबल की बगावत से मध्यप्रदेश का दो साल पहले आया जनादेश अचानक धनादेश में बदल गया था, इस तब्दीली के पीछे बगावत थी और दो दिन बाद इसी बगावत के नतीजे आने वाले हैं। चंबल की जनता को बताना है कि उसे महल की बगावत पसंद है या नहीं। चंबल के पानी में बगावत है, ये कहावत भी है और हकीकत भी। चंबल में सदियों से बाग़ी अपने गिरोह बनाकर रहते आये हैं, लेकिन बीते एक दशक से तकनीक ने चंबल के बागियों को अपना पेशा बदलने के लिए मजबूर कर दिया था। अब चंबल में बीहड़ों में रहने वाला कोई नामचीन्ह सूचीबद्ध गिरोह नहीं है।
चंबल में केवल चंबल है। बाग़ी या तो रेत और पत्थर के वैध उत्खनन में व्यस्त हो गए या फिर उन्होंने सियासत को अपना भविष्य बना लिया। दोनों ही धंधों में जोखिम कम और मुनाफ़ा ज्यादा है, लेकिन दोनों ही नए धंधों में धनबल और बाहुबल पहले की तरह ही इस्तेमाल किया जाता है। अंतर सिर्फ इतना है कि एक जमाने में जो महल बागियों के खिलाफ कार्रवाई करता था, वो ही अब खुद बगावत करने लगा है। वैसे महल ने फिरंगियों के खिलाफ बगावत भी की और दोस्ती भी। महल को बगावत का तजुर्बा तो है ही। कमलनाथ से पहले द्वारिका प्रसाद मिश्र की सरकार को महल के बाग़ी गिरा चुके हैं।
चम्बल में आज के बागियों के गिरोह खाकी नहीं खादी पहनते हैं। अब बागियों के कन्धों पर बंदूकें नहीं विधायक होते हैं। इन विधायकों को चाहे जब बेचा जा सकता है, इस्तीफा दिलाया जा सकता है, चुनाव लड़ाया जा सकता है। यानि विधायक ही बन्दूक हैं, इन्हें सरदार जैसे चाहे चलाएं या हांकें। जिन विधायकों को पांच साल के लिए चुनकर जनता ने भोपाल भेजा था वे 18 महीने में ही बागी होकर भोपाल से वापस लौट आये। अब सबने दोबारा विधानसभा में जाने के लिए चुनाव लड़ा है। जनादेश ईवीएम मशीनों में बंद है।
चंबल की जनता इस दशक की बगावत पर अपनी मुहर लगाती है या ठुकराती है, इसका पता दो दिन बाद सबको लग जाएगा। बाबू जयप्रकाश नारायण ने भी कल्पना नहीं की होगी की चम्बल में एक दिन खादी वाले बागी भी अपने गिरोह बनाकर काम करेंगे। बाबू जयप्रकाश नारायण के जमाने के बाग़ी सरगना अब बचे नहीं, उनकी जगह खादी वाले डाकू गिरोहों के सरगनाओं ने ले ली हैं। ये सरगना कभी केंद्र में मंत्री होते हैं तो कभी राज्य में। कभी लोकसभा और विधानसभा के सदस्य होते हैं तो कभी राज्य सभा के। इन बागियों के डंडे-झंडे और दुपट्टे कब बदल जाएँ कोई नहीं जानता। जनता भी नहीं जानती जो इन्हें अपना आदेश देकर विभिन्न सदनों के लिए चुनती है।
मजे की बात ये है कि चंबल के बाग़ी कभी भी, किसी से भी बगावत कर सकते हैं। बगावत कभी नेता के कारण होती है कभी विचार के कारण, कभी मान के कारण होती है तो कभी सम्मान के कारण। अब इन उपचुनावों में भी बगावत होने की खबर है। कहते हैं कि भाजपा के तपोनिष्ठ कार्यकार्ताओं ने तिरंगे विधायकों को उनके ऊपर थोपे जाने के कारण दल के भीतर बगावत की है। कुछ बागियों ने समर्पण कर कांग्रेसी बागियों को स्वीकार कर लिया है तो अनेक ने उन्हें सिरे से ख़ारिज कर दिया है। एक बागी दूसरे बागी से हमेशा प्रतिप्रश्न करने की स्थिति में होता है। वो पूछ सकता है कि जब आपकी बगावत सही है तो मेरी बगावत गलत कैसे हो सकती है?
बागियों से सवाल करने का हक केवल जनता को नहीं होता। जनता तो बागियों को चौथ देने के लिए अभिशप्त है ही। पहले खाकी वर्दी पहनने वाले बागियों को चौथ देती थी, अब खादी पहनने वाले बागियों को चौथ दे रही है। पहले भी बीहड़ में माधोसिंह और मोहर सिंह होते थे, आज भी होते हैं केवल उनके नाम बदल गए हैं। किसी गिरोह का सरगना टोपी है तो किसी का गोपी। जब खाकी पहने बाग़ी होते थे तब हम उनसे मिलने खूब जाते थे, लेकिन अब खादी पहनने वाले बागियों से मिलने में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं रही। दरअसल इनके किस्से बाजार में बिकते नहीं हैं। यकीन मानिये कि जब से बीहड़ खाकी पहनने वाले बागियों से खाली हुए हैं हम खबरनबीसों को कोई भाव ही नहीं देता।
चंबल की बगावत जनता को पसंद है या नहीं, इसका फैसला आने पर ही हमें राहत मिलेगी। यदि बगावत एप्रूव्ह हो गयी तो समझिये कि चंबल की आन-बान-शान बची रहेगी और अगर रिजेक्ट कर दी गयी तो ये तीनों चीजे धूल में मिल जाएँगी। जनता के मन की बात जानना आसान नहीं होता फिर जनता चाहे चंबल की हो या अमेरिका की। कभी भी कुछ भी उलटफेर कर सकती है। शायद इसीलिए जनता को जनार्दन कहा जाता है। भारत वालों की दिलचस्पी चंबल के बाद अमेरिका से ज्यादा बिहार के चुनाव नतीजों में है। वहां भी बाग़ी-दागी चुनाव मैदान में हैं। बगावत के मामले में चंबल का बिहार से सनातनी मुकाबल चलता आया है।
देश के दूसरे हिस्सों में बैठे हमारी बिरादरी वाले अक्सर हमें फोन कर पूछते रहते हैं चंबल के बागियों के बारे में। इस बार भी सबने जानना चाहा है की बागियों का भविष्य क्या है? हमने सबसे कहा है कि और सब पूछ लीजिये लेकिन ऊँट की करवट और बागियों के भविष्य के बारे में हमसे कोई भविष्यवाणी मत कराइये, क्योंकि हमें ही पता नहीं है कि कौन, कितने पानी में है?
दरअसल अब चंबल का पानी भी अपनी तासीर बदल रहा है। उसमें भी मिलावट हो चली है, इसलिए ये कहना कठिन है कि चंबल का पानी पीने वाले किस स्तर की बगावत कर रहे हैं। ख़ास बात ये है कि आत्मसमर्पित बागी इस बार कमल के फूल लिए घूम रहे थे। दद्दा मलखान सिंह की पसंद भी कमलफूल है। उन्होंने साइकल चलाकर देख ली लेकिन मजा नहीं आया। और दूसरों ने उनका हाथ कभी अपने हाथ में लिया नहीं। हाथ की सवारी से मलखान को डर लगता है।
हमारे पास चंबल में डोंगर-बटरी के जमाने से लेकर जेपी बाबू के जमाने तक की बगावत का कच्चा-पक्का चिठ्ठा मौजूद है। लेकिन इसका इस्तेमाल फिर कभी किया जाएगा। अभी तो आप दस तारीख का इन्तजार कीजिये।