नीतीश का आखिरी चुनाव, उम्‍मीद या हताशा!

अजय बोकिल

जब नेता कहने लगे कि यह उसका ‘आखिरी चुनाव’ है, तो समझ लीजिए कि राजनीतिक हसरतों की नाव में कहीं गहरा छेद हो चुका है। किसी चलते चुनाव में ‘यह कहना कि ‘ये  मेरा आखिरी चुनाव है’, वोटर की सहानुभूति अर्जित करने का आखिरी ब्रह्मास्त्र है, जिससे प्रभावित होकर जनता जनार्दन किसी और उपलब्धि पर दे न दे, कम से कम बालों की सफेदी देखकर तो वोट दे ही दे। बिहार विधानसभा चुनाव में प्रचार के अंतिम चरण में, राज्य के 15 साल से मुख्यमंत्री चल रहे नीतीश कुमार का कहना कि ‘यह मेरा आखिरी चुनाव है’, इस बात की जमानत है कि उनके पास पब्लिक को रिझाने का अब यही टोटका बाकी रह गया है।

यूं नीतीश अपनी चुनाव सभाओं में इस बेफिकरी के साथ भाषण दे रहे हैं कि नतीजा वही रहेगा, जिसका ताना-बुना उन्होंने तैयार किया है। लेकिन अब संकेत मिल रहे हैं कि चुनाव की शुरुआत में राजग की बंपर जीत के जो दावे किए जा रहे थे, जमीनी हकीकत वैसी है नहीं। खासकर तब, जब सेनापति को ही ‘एसओएस’ संदेश पब्लिक हेडक्वार्टर को भेजना पड़े।

हालांकि राजनीतिक मूर्छा को भंग करने ‘आखिरी चुनाव’ की बूटी कोई नई नहीं है। इस देश में पहले भी कई लोकसभा व विधानसभा चुनावों में नेताओं ने इसे आजमाया है। यह बात अलग है कि यह ‘बूटी’ चीनी पटाखों की माफिक होती है, चल गए तो ठीक वरना फुस्स..! जरा अतीत में सर्फिंग करें तो बड़े नेताओं में सपा सुप्रीमो मुलायमसिंह ने ‍2019 का लोकसभा चुनाव मैनपुरी से बार-बार यही दुहाई देते हुए जीता कि यह उनका ‘आखिरी चुनाव’ है, सो जीत का जश्न जरा धूम धड़ाके के साथ मने। पब्लिक ने मुलायम की बात पर भरोसा कर उन्हें लोकसभा भेज दिया।

यही हाल यूपी में मथुरा सीट से भाजपा प्रत्याशी और ‘ड्रीम गर्ल’ हेमामालिनी का था। उन्होंने तो लोकसभा चुनाव का नामांकन भरते ही कह डाला कि ‘यह मेरा अंतिम चुनाव है।‘ मोदी लहर में वो जीतीं भी। लेकिन ‘आखिरी चुनाव’ का यह ‘सिम्पैथी बम’ हर बार धमाका नहीं करता। पिछले लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र के वरिष्ठ कांग्रेस नेता व पूर्व केन्द्रीय मंत्री सुशील कुमार शिंदे सोलापुर सीट पर जनता के हाथ जोड़-जोड़ कर थक ‍गए कि भैया, यह मेरा आखिरी चुनाव है, इस बार और संसद‍ भिजवा दो। लेकिन जनता ने उसे तवज्जो नहीं दी। उल्टे शिंदे को घर भेज दिया।

यही आलम मप्र में वरिष्ठ कांग्रेस नेता अजय सिंह का भी रहा। मतदाता इसके पूर्व‍ विधानसभा चुनाव में उन्हें नकार चुका था, लेकिन वो सतना सीट से फिर लोकसभा के लिए मैदान में उतरे। उन्होंने यहां तक कहा कि अगर आपने फिर (मुझे हराने की) वही गलती दोहराई तो आपको और मुझे कोई नहीं पूछने वाला। अफसोस कि इसके बाद भी जनता ने वही ‘गलती’ करने में संकोच नहीं किया। अजय सिंह चुनावी कोर्ट से हमेशा के लिए बाहर हो गए। वैसे पिछले लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी एक दफा ‘आखिरी बार’ की सुर्री बिहार में चुनाव प्रचार के अंतिम दौर में छोड़ी थी। उन्होंने कहा था-‘मित्रो बिहार में मेरी यह ‘आखिरी चुनाव सभा है।‘ जनता ने मोदी की इस अदा पर ही कमल को वोट दे दिया।

विधानसभा चुनावों में तो ‘आखिरी चुनाव’ का दांव हर बार नए सिरे से खेला जाता रहा है। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने 2017 का विधानसभा चुनाव यह ‘मेरा आखिरी चुनाव है’, की टैग लाइन के साथ ही जीता और सीएम भी बन गए। अगले विधानसभा चुनाव में यह टैग लाइन उन्हें याद रहती है या नहीं, देखने की बात है। इसी तरह कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने भी पिछला विधानसभा चुनाव इस वादे के साथ जीता कि ये अंतिम चुनाव है। वो अब विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष हैं और मौका मिले तो सीएम बनने को तैयार हैं।

वैसे इस मामले में मप्र के पूर्व मुख्यमंत्री स्व. बाबूलाल गौर का अलग तरह का रिकॉर्ड है। उन्होंने जीवन के अखिरी दो विधानसभा चुनाव इसी वचन के साथ जीते कि वह अब आखिरी बार चुनाव लड़ रहे हैं। और अगला चुनाव आते ही वो फिर उसे ‘आखिरी चुनाव’ बताने लगते थे। ऐसे में पार्टी के युवा नेताओं को समझ ही नहीं आता था कि गिनती कहां से शुरू करें। विगत चुनाव से या आगत चुनाव से।

कहने का आशय इतना है कि ‘ये मेरा आखिरी चुनाव है’- जैसा जुमला उस राजनीतिक बूटी की तरह है, जिसका इस्तेमाल सारे वशीकरण मंत्र फेल होने के बाद किया जाता है। निर्मोह के आवरण में सत्ता के मोह पाश की यह ऐसी हवस है, जो मिटते नहीं मिटती और बाहर से भीतर तक ‘मैं ही मैं’ के रूप में गूंजती रहती है। नेताओं का बस चले तो वो यमदूतों को भी यह कहकर लौटा दें कि यह मेरा ‘आखिरी चुनाव’ है। अगले चुनाव के वक्त आना। दूसरे शब्दों में कहें तो यह नेताओं के लिए अपने सियासी वजूद की वो जीवन रक्षक दवा है, जिसके कारगर होने की संभावना फिफ्टी-फिफ्टी रहती है। इसमें राजनीतिक वानप्रस्थ का छद्म वैराग्य भाव छिपा रहता है।

जहां तक नीतीश कुमार का प्रश्न है तो उन्होंने किसी जमाने में खुद को वैकल्पिक राजनीति का चेहरा होने की उम्मीद जगाई थी। बाद में खुद उसी ‘सोने के पिंजरे’ में फंस गए, जिसे वो अब चाहकर भी नहीं तोड़ सकते। पहले मोदी और भाजपा को गाली देने और फिर उन्हीं को गले लगाने का सिद्ध मंत्र इस बार बूमरेंग होता लग रहा है। वरना ‘सुशासन बाबू’, शराबबंदी कर महिलाओं के हितरक्षक, शिक्षा प्रसारक,  सर्व समावेशी और और बिहारी अस्मिता के रखवाले जैसे लकब धारण करने के बाद भी उन्हें ‘यह मेरा आखिरी चुनाव है…’ जैसी गुहार करनी पड़े तो इसे आत्मीयता से ज्यादा हताशाजनित मनुहार ही समझा जाना चाहिए।

चर्चा तो यहां तक है कि बिहार के लोग ‘सुशासन’ का चेहरा अब और झेलने की स्थिति में नहीं है, बावजूद राजग में नीतीश की सहयोगी भाजपा के इस दावे के कि उनका गठबंधन दो तिहाई सीटों से ज्यादा जीत रहा है। इसमें इशारा यह भी है कि तेजस्वी यादव की सभाओं में बढ़ती भीड़ को वोटों का महासागर समझने की भूल न करें। वैसे भी आजकल सभाओं की भीड़ वोटों का दर्पण नहीं मानी जाती।

दरअसल इस विधानसभा चुनाव में नीतीश की परेशानी दोहरी है। एक तरफ उन्हें तेजस्वी, चिराग पासवान और कन्हैया कुमार जैसे युवा चेहरों से चुनौती मिल रही है, वहीं उनकी सहयोगी भाजपा ने फिर सत्ता हासिल करने का ‘प्लान बी’ पहले से तय कर रखा है और इसमें नीतीश भी हों, जरूरी नहीं है। वैसे भी राजनीति में खाने और दिखाने के दांत अलग होते हैं।

एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि भले ही नीतीश इस विधानसभा चुनाव को अपना ‘आखिरी चुनाव’ बता रहे हों, लेकिन खुद उन्होंने 2004 के बाद से कोई चुनाव नहीं लड़ा है। उसके बाद से बतौर सीएम वो बिहार विधान परिषद के सदस्य ही हैं। 2004 में भी उन्होंने लोकसभा चुनाव जीता था। राज्य विधानसभा में तो आखिरी बार चुनकर वो 1985 में पहुंचे थे। फिर भी वो अगर इस विधानसभा चुनाव को अपना ‘आखिरी’ मान रहे हैं तो इसका मतलब यह है कि बिहार की राजनीति कोई नई दिशा पकड़ रही है।

यह दिशा भाजपा की विकास के खोल में हिंदुत्व की राजनीति की हो सकती है या फिर तेजस्वी के सामाजिक-आर्थिक मुद्दों की। फैसला इन्हीं दोनों में से होना है। बिहार में जातीय लामबंदियां पहले जैसी काम करती हैं या नहीं, यह भी देखना है। कोई आहट तो है, जिसे नीतीश की अनुभवी आंखों ने पहले ही बांच लिया है। वरना सत्ता की लत ऐसी है, जो छूटे नहीं छूटती। जनसेवा’ के नाम पर हर बार सत्ता हासिल करने ‘अब‍कि बार..’ या ‘एक बार फिर..’ जैसे नारे इसी अदम्य आकांक्षा से उपजते हैं। क्योंकि कोई चुनाव अगर सचमुच ‘आखिरी’ है तो ‘आखिरी बार भेज दो यार.. जैसे जुमलों की पूंछ पकड़कर जनमत की वैतरणी पार करने की जरूरत क्या है?

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