आयुर्वेद के लिए कोरोना वायरस बना वरदान

प्रमोद भार्गव

देश में कोविड-19 के चलते आयुर्वेद व अन्य आयुष पद्धतियों से परंपरागत उपचार में शोध की संस्कृति कोरोना काल में विकसित हुई। नतीजतन ठोस उपचार के लिए साक्ष्य आधारित अध्ययन हुए ताकि एलोपैथी की तरह आयुर्वेद को भी महत्व मिले। इस लक्ष्य के लिए केंद्रीय आयुष मंत्रालय की आर्थिक मदद और तमिलनाडु सरकार के सहयोग से ‘द आर्या वैद्य फार्मेसी रिसर्च फाउंडेशन’ कोयंबटूर तथा स्टेनली मेडिकल कॉलेज चैन्नई के संयुक्त क्लीनिकल शोध में साफ हुआ कि कोरोना संक्रमित रोगी के इलाज में एलोपैथी की तुलना में आयुर्वेद कहीं अधिक कारगर है।

इस शोध के निदेशक डॉक्टर सोमित कुमार के अनुसार मरीजों को दो समूहों में बांटकर तमिलनाडु की पांच हजार साल पुरानी सिद्धा प्रणाली ‘कबसुर काढ़ा’ से तीस मरीजों का उपचार किया गया और 24 का एलोपैथी से इलाज किया गया। आयुर्वेद उपचार के सार्थक परिणाम आने के बाद सरकार ने कोरोना वायरस का आयुर्वेद से उपचार की मंजूरी दे दी है। अब यह काम कानूनी प्रक्रिया के तहत आगे बढ़ेगा।

कोरोना संकट के चलते चिकित्सा विज्ञान आयुर्वेद औषधियों को परखने के लिए मजबूर हुआ था। जिससे ये दवाएं आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की कसौटी पर खरी उतरें। दिल्ली के मेदांता अस्पताल समेत आर्या वैद्य फार्मेसी और स्टेनली मेडिकल कॉलेज में आयुर्वेद दवाओं का क्लीनिकल ट्रायल शुरू हुआ। आयुर्वेद औषधियों पर पहली बार इस ट्रायल की शुरुआत गिलोय, पिपली, अश्वगंधा और मुलेठी से की गई थी। आर्या फार्मेसी के परिणाम आ गए हैं। इनमें चिकित्सा विज्ञान की कसौटी पर आयुर्वेद के इलाज को सही माना गया है।

डॉ. सोमित कुमार के अनुसार, शोध के दौरान पाया गया कि जिन मरीजों को आयुर्वेद की दवाएं दी गईं, उनके शरीर में लिंफोसाइट तेजी से बढ़ा। इस कारण वे जल्द स्वस्थ हो गए। लिंफोसाइट सफेद रक्त कोशिकाओं का एक प्रकार है, जो अस्थि-मज्जा (बोन-मैरो) में बनते हैं। ये कोशिकाएं शरीर में रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में अहम् भूमिका निभाती हैं।’ आयुर्वेद दवाओं को कोविड-19 महामारी के उपचार की मान्यता मिलने से इसका विश्वव्यापी विस्तार होगा। संभव है कि भविष्य में संयुक्त राष्ट्र संघ योग दिवस की तरह आयुर्वेद दिवस मनाने की मान्यता भी दे दे।

धरा पर प्राणियों की सृष्टि से पहले ही प्रकृति ने घटक-द्रव्य युक्त वनस्पति जगत की सृष्टि कर दी थी, ताकि रोगग्रस्त होने पर उपचार के लिए मनुष्य उनका प्रयोग कर सके। भारत के प्राचीन वैद्य धन्वन्तरि और उनकी पीढ़ियों ने ऐसी अनेक वनस्पतियों की खोज व उनका रोगी मनुष्य पर प्रयोग किए। इन प्रयोगों के निष्कर्ष श्लोकों में ढालने का उल्लेखनीय काम भी किया, जिससे इस खोजी विरासत का लोप न हो। इन्हीं श्लोकों का संग्रह ‘आयुर्वेद’ है। एक लाख श्लोकों की इस संहिता को ‘ब्रह्म-संहिता’ भी कहा जाता है।

इन संहिताओं में सौ-सौ श्लोक वाले एक हजार अध्याय हैं। बाद में इनका वर्गीकरण भी किया गया। इसका आधार अल्प-आयु तथा अल्प-बुद्धि को बनाया गया। वनस्पतियों के इस कोश और उपचार विधियों का संकलन ‘अथर्ववेद’ भी है। अथर्ववेद के इसी सारभूत संपूर्ण आयुर्वेद का ज्ञान धन्वन्तरि ने पहले दक्ष प्रजापति को दिया और फिर अश्विनी कुमारों को पारगंत किया। अश्विनी कुमारों ने ही वैद्यों के ज्ञान-वृद्धि की दृष्टि से ‘अश्विनी कुमार संहिता’ की रचना की। चरक ने ऋषि-मुनियों द्वारा रचित संहिताओं को परिमार्जित करके ‘चरक-संहिता’ की रचना की। यह आयुर्वेद का प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है।

इसी कालखंड में सद्वैद्य वाग्भट्ट ने धन्वन्तरि से ज्ञान प्राप्त किया और ‘अष्टांग हृदय संहिता’ की रचना की। सुश्रुत संहिता तथा अष्टांग हृदय संहिता आयुर्वेद के प्रमाणिक ग्रंथों के रूप में आदि काल से आज तक हमारा मार्गदर्शन कर रहे हैं। आयुर्वेद व अन्य उपचार संहिताओं में स्पष्ट उल्लेख है कि प्रत्येक प्राणी का अस्तित्व पंच-तत्वों से निर्मित है और संपूर्ण प्राणी स्वेदज, जरायुज, अण्डज और उद्भ्जि रूपों में विभक्त हैं। इन शास्त्रों में केवल मनुष्य ही नहीं पशुओं, पक्षियों और वृक्षों के उपचार की विधियां भी उल्लेखित हैं। साफ है, भारत में चिकित्सा विज्ञान का इतिहास वैदिक काल में ही चरम पर पहुंच गया था। क्योंकि वनस्पतियों के औषध रूप में उपयोग किए जाने का प्राचीनतम उल्लेख ऋग्वेद में उपलब्ध हैं। ऋग्वेद की रचना ईसा से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व हुई मानी जाती है।

ऋग्वेद के पश्चात अथर्ववेद लिखा गया, जिसमें भेषजों की उपयोगिताओं के वर्णन हैं। भेषजों के सुनिश्चित गुणों और उपयोगों का उल्लेख कुछ अधिक विस्तार से आयुर्वेद में हुआ है। यही आयुर्वेद भारतीय चिकित्सा विज्ञान की आधारशिला है। इसे उपवेद भी माना गया है। इसके आठ ध्याय हैं, जिनमें आयुर्विज्ञान और चिकित्सा के विभिन्न पक्षों पर विचार किया गया है। इसका रचनाकाल पाश्चात्य विद्वानों ने ईसा से ढाई से तीन हजार साल पुराना माना है। इसके आठ अध्याय हैं, इसलिए इसे ‘अष्टांग आयुर्वेद’ भी कहा गया है। आयुर्वेद की रचना के बाद पुराणों में सुश्रुत और चरक ऋषियों और उनके द्वारा रचित संहिताओं का उल्लेख है। ईसा से करीब डेढ़ हजार साल पहले लिखी गई सुश्रुत संहिता में शल्य-विज्ञान का विस्तृत विवरण है।

चरक संहिता में रेचक, वामनकारक द्रव्यों और उनके गुणों का वर्णन है। चरक ने केवल एकल औषधियों को ही 45 वर्गों में विभाजित किया है। इसमें औषधियों की मात्रा और सेवन विधियों का भी तार्किक वर्णन है। इनका आज की प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों से साम्य है। यहां तक की कुछ विधियों में इंजेक्शन द्वारा शरीर में दवा पहुंचाने का भी उल्लेख है। यह वह समय था जब भारतीय चिकित्सा विज्ञान अपने उत्कर्ष पर था और भारतीय चिकित्सकों की भेषज तथा विष विज्ञान संबंधी प्रणालियां अन्य देशों की तुलना में उन्नत थीं।

भूमि गर्भ में समाए अनेक खनिज पदार्थों के गुणों का ऋषि परंपरा ने गहन अध्यन किया था और रोग तथा भेषजों की मदद से उनके उपचार की दिशा में वैज्ञानिक ढंग से अनुसंधान किए। सुश्रुत और चरक की आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में अब गणना होने लगी है। यही कारण है कि ऐलोपैथी की दवा निर्माता कंपनियां भी सुश्रुत और चरक के अपने कैलेंडरों में शल्य क्रिया करते हुए चित्र छापने लगे हैं। इस विचरण से पता चलता है कि धन्वन्तरि द्वारा आविष्कृत आयुर्वेद की ज्ञान परंपरा वैदिक युग के पूर्व से लेकर भारत में विदेशी आक्रांताओं के आने से पहले तक विकसित होती रही है।

इतनी उत्कृष्ठ चिकित्सा पद्धति होने के पश्चात भी इसका पतन क्यों हुआ? हमारे यहां संकट तब पैदा हुआ, जब तांत्रिकों, सिद्धों और पाखंडियों ने इनमें कर्मकांड से जीवन की समृद्धि का घालमेल शुरू कर दिया। इसके तत्काल बाद एक और बड़ा संकट तब आया, जब भारत पर यूनानियों, शकों, हूणों और मुसलमानों के हमलों का सिलसिला शुरू हुआ। जो कुछ शेष था, उसे नेस्तनाबूद करने का काम अंग्रेजों ने किया। इस संक्रमण काल में आयुर्विज्ञान की ज्योति न केवल धुंधली हुई, बल्कि नष्टप्रायः हो गई। नए शोध और मौलिक ग्रंथों का सृजन थम गया।

इन आक्रमणों के कारण जो अराजकता, हिंसा और अशांति फैली, उसके चलते अनेक आयुर्वेदिक ग्रंथ छिन्न-भिन्न व लुप्त हो गए। आयुर्विज्ञान के जो केंद्र और शाखाएं थीं, वे पंडे-पुजारियों के हवाले हो गईं, नतीजतन भेषज और जड़ी-बूटियों के स्थान पर तंत्र-मंत्र के प्रयोग होने लग गए। यही वह कालखंड था, जब बौद्ध धर्म ने भी पतनशीलता की राह पकड़ ली। इसके साथ ही जो शल्य क्रिया व चिकित्सा से जुड़ा विज्ञान था, उसमें अनुशीलन तो छोड़िए, वह यथास्थिति में भी नहीं रह पाया।

इसके बाद रही-सही ज्ञान परंपराओं पर बड़े ही सुनियोजित ढंग से पानी फेरने का काम अंग्रेजों ने कर किया। डॉ. धर्मपाल की पुस्तक ‘इंडियन साइंस एंड टेक्नोलॉजी’ में लिखा है कि 1731 में बंगाल में डॉ. ओलिवर काउल्ट नियुक्त थे। काउल्ट ने लिखा है कि ‘भारत में रोगियों को टीका देने का चलन था। बंगाल के वैद्य एक बड़ी पैनी व नुकीली सुई से चेचक के घाव की पीब लेकर उसे टीका की जरूरत पड़ने वाले रोगी के शरीर में कई बार चुभोते थे। इस उपचार पद्धति को संपन्न करने के बाद वे उबले चावल की लेई सी बनाकर रोगी के घाव पर चिपका देते थे।

इसके तीसरे या चौथे दिन रोगी को बुखार आता था। इसलिए वे रोगी को ठंडी जगह में रखते थे और उसे बार-बार ठंडे पानी से नहलाते थे, जिससे शरीर का ताप नियंत्रित रहे। डॉ. काउल्ट ने लिखा है कि टीका लगाने की विधि मेरे भारत आने के भी ड़ेढ़ सौ साल पहले से प्रचलन में थी। यह काम ज्यादातर ब्राह्मण करते थे और साल के निश्चित महीनों में वे इसे अपना उत्तरदायित्व मानते हुए घर-घर जाकर रोगी ढूंढते थे। ओलिवर लिखते हैं कि इस चिकित्सा प्रणाली का अध्ययन व अनुभव के बाद मैं इस विधि की गुणवत्ता का प्रशंसक हो गया। मैंने कहा भी कि जो लोग उपचार की इस विधि को नहीं अपना रहे हैं, तो वे उन रोगियों के साथ अन्याय कर रहे हैं, जिनकी जान बचाई जा सकती है।’

लेकिन जब अंग्रेजों ने भारत में ऐलोपैथी चिकित्सा थोपने की शुरुआत की तो षड्यंत्रपूर्वक एक-एक कर सभी प्रणालियों को नष्ट करने का अभियान चला दिया। याद रहे, करीब तीन साल पहले हमने प्राचीन भारतीय ज्ञान परंपरा के बूते दो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विरुद्ध पेटेंट की लड़ाई जीती थी। पहली लड़ाई ‘कुल्ला’ करने के पारंपरिक तरीकों को हथियाने के परिप्रेक्ष्य में कोलगेट पामोलिव से जीती, तो दूसरी आयोडीन युक्त नमक उत्पादन को लेकर, हिंदुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड से जीती। दरअसल कोलगेट ने जावित्री से कुल्ला करने और हिंदुस्तान यूनीलीवर ने आयोडीन युक्त नमक बनाने की पद्धतियां भारतीय ज्ञान परंपरा से हथिया ली थीं।

इन दोनों ही मामलों में विदेशी कंपनियों ने भारत की पारंपरिक ज्ञान प्रणालियों से उत्पादन की पद्धति व प्रयोग के तरीके चुराए थे। भारत की वैज्ञानिक व औद्योगिक अनुसंधान परिषद् ने भारतीय पारंपरिक ज्ञान के डिजीटल पुस्तकालय से तथ्यपरक उदाहरण व संदर्भ खोजकर आधुनिक विज्ञान के सिद्धांतों के क्रम में यह लड़ाई लड़ी और जीती। इस कानूनी कामयाबी से साबित हुआ है कि भारत की ज्ञान-परंपरा सदियों से मार्गदर्शक रही है।

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