गिरीश उपाध्‍याय

सुबह सवेरे को पढ़ना जिन लोगों की आदत में शुमार है, निश्चित रूप से हर सप्‍ताह अंतिम पेज पर प्रकाशित होने वाला अनिल यादव का कॉलम ‘कहां कहां से गुजर गया’ को पढ़ना भी उस आदत का एक अनिवार्य हिस्‍सा रहा होगा। सचमुच अनिल भाई अपनी जिंदगी में पता नहीं कहां कहां से गुजरे होंगे। लेकिन अब तक यह होता रहा था कि वे हर सप्‍ताह लौट आते थे, यह बताने के लिए वे कहां कहां से गुजरे। पर रविवार को वे जहां के लिए निकले, वहां के लिए लोग कहते हैं- वे गुजर गए...

यकीन करना मुश्किल है कि जाने कहां कहां से गुजरने वाला यह अनथक यायावर सचमुच एक दिन गुजरी हुई दास्‍तान बनने के लिए उस अनंत सफर पर निकल जाएगा, जहां से लौटकर यह बताना उसके लिए मुमकिन नहीं होगा कि उस सफर में उसने क्‍या देखा... क्‍या पाया...

एक संजीदा पत्रकार, प्रकृति और पर्यावरण का अनन्‍य प्रेमी और इन सारे विशेषणों से ऊपर एक सच्‍चा इंसान। ऐसा इंसान जिसके दिल में इंसानियत और कुदरत दोनों के लिए समान जगह थी। कहना मुश्किल है कि अपनी इंसानियत के दायरे में उन्‍होंने कुदरत को भी समेट लिया था या खुद कुदरत उनकी इंसानियत के दायरे में खिंची चली आई थी।

पिछले कुछ सालों से अनिल जी जब भी मिलते उनके पास कोई न कोई प्रोजेक्‍ट जरूर होता। यह प्रोजेक्‍ट या तो जल, जंगल, जमीन से जुड़ा होता या फिर ऐसे इंसानों से जिन्‍हें हमारे आज के समाज ने शायद अपना हिस्‍सा नहीं मान रखा है। वे चीटियों की कतार को भी उतनी ही रुचि से देखते थे जितना गाडि़या लुहारों की बैलगाड़ी की कतार को। उन्‍हें साल-सागौन के जंगलों में मीलों तक गूंजती सिकाडा (झींगुर के आकार का प्राणी) की सीटियां भी उतना ही आकर्षित करती थीं जितनी जंगल में निकले पारदी समुदाय द्वारा शिकार को फंसाने के लिए निकाली गई आवाजें।

गंजबासौदा जैसे छोटे से कस्‍बे में रहकर पत्रकारिता करते हुए अनूठे और अनछुए विषयों, खासकर प्रकृति और पर्यावरण से जुड़े मसलों पर जिस आधिकारिकता के साथ उन्‍होंने अपनी बात रखी उसने उन्‍हें राष्‍ट्रीय स्‍तर पर पहचान दिलाई। कलम के बाद उन्‍होंने कैमरे को अपना माध्‍यम बनाया था और पिछले लंबे समय से वे प्रकृति और पर्यावरण से जुड़े विषयों के साथ-साथ प्रकृति की गोद में पले-बढ़े समुदायों पर डॉक्‍यूमेंटरीज बना रहे थे। उनकी ऐसी कई डाक्‍यूमेंटरीज को राष्‍ट्रीय स्‍तर पर सम्‍मान और पुरस्‍कार मिले।

काम के प्रति उनमें मैंने हमेशा बच्‍चों जैसा उत्‍साह देखा। कलम से कैमरे की तरफ शिफ्ट होते हुए जब उन्‍होंने पहला प्रोफेशनल कैमरा खरीदा तो मुझे दिखाने आए। कहा, आप देखकर बताओ यह काम का रहेगा या नहीं... मैंने कहा, भाई मैं कैमरे के बारे में थोड़ा बहुत ही जानता हूं, उतना नहीं जितनी आप उम्‍मीद कर रहे हैं। वे बोले- अरे आप ईटीवी में रहे हैं, आपको तो जानकारी होगी ही। कैमरा ही नहीं मैं तो अब आपसे कैमरे का इस्‍तेमाल कर विषयों को शूट करने के बारे में भी पूछताछ करता रहूंगा।

अपने किये गए काम को पूरे उत्‍साह से दिखाना, उसके बारे में लोगों की राय पूछना और संशोधन या गलतियों में सुधार के लिए हमेशा तैयार रहना अनिल भाई की बहुत बड़ी खासियत थी। अब ऐसे लोग बहुत कम मिलते हैं जो अपने किये हुए किसी काम में सुधार या संशोधन के सुझाव को सहजता से स्‍वीकार कर लें। खासतौर से पत्रकारिता में तो यह नस्‍ल खत्‍म ही होती जा रही है।

चुपचाप कभी भी, कहीं भी किसी अनजान जगह के लिए निकल पड़ना अनिल भाई की फितरत थी। इसमें उनके अभिन्‍न साथी थे राजा छारी जो छाया की तरह उनके साथ चलते। जब वे गाडि़या लुहार पर फिल्‍म बना रहे थे तो उसकी स्क्रिप्‍ट दिखाने लाए। मुझसे कहा आप इसको ठीक कर दो। मैंने कहा भाई मेरा इस विषय पर उतना अध्‍ययन नहीं है, तो बोले- अरे आप राजस्‍थान में रहे हैं, कुछ तो जानकारी होगी ही। मैंने उन्‍हें राजस्‍थान में गाडि़या लुहारों के कुछ ठिकानों के बारे में जानकारी दी था। बाद में उन्‍होंने बताया कि वे उनमें से कुछ जगह जाकर आए थे और वहां कुछ शूटिंग भी की थी।

अनिल भाई हमेशा सक्रिय रहने वाले पत्रकारों में से थे। चुप रहना या शांत बैठ जाना उनके स्‍वभाव में ही नहीं था। शायद उनके पैर में भंवरा फिट था जो उन्‍हें हमेशा चलाए ही रखता था। वे कभी भी ऑफिस में अचानक प्रकट हो जाते और आप कितना ही जरूरी काम कर रहे हों, बहुत धीरे से पास आकर कहते, मैं पांच मिनिट ले लूं आपके...? उस ठंडे से आग्रह में सामने वाले को जमा देने वाली ऐसी ताकत होती थी कि कोई भी अपना काम छोडकर उन्‍हें सुनने के लिए मजबूर हो जाए। और फिर पांच के पचास मिनिट हो जाना मामूली बात थी... अनिल भाई बात की उंगली पकड़कर पता नहीं कहां कहां पहुंच जाते थे...

उनके बीमार होने की खबर पिछले महीने सबसे पहले मुझे गंजबासौदा के ही सुरेंद्रसिंह दांगी जी ने दी थी। दांगी जी एक तरह से अनिल जी के परिवार का हिस्‍सा ही हैं। उनका संदेश आया कि अनिल जी की हालत बहुत चिंताजनक है और वे भोपाल में भरती हैं, तो हम सारे लोग चौंक गए थे। जो भी बन पड़ा करने की कोशिश की, लेकिन कोरोना का शिकार होने के शुरुआती दिनों में, समय पर समुचित चिकित्‍सा न हो पाने ने, उनके फेफड़ों की हालत इतनी गंभीर कर दी थी कि प्रकृति और पर्यावरण के संरक्षण और इंसान के लिए साफ हवा-पानी की चिंता करने वाला यह शख्‍स अपने जीवन के अंतिम दिनों में संक्रमण के चलते प्राणवायु को ग्रहण करने लायक भी नहीं बचा।

अनिल जी फेसबुक पर साप्‍ताहिक रूप से ‘संडे की बकवास’ कॉलम लिखते थे। उसे उन्‍होंने ‘बाबाजी की बूटी’ नाम दिया था। इसमें हास परिहास के जरिये जीवन के गहरे संदेश छिपे होते। फेसबुक पर 9 सितंबर की उनकी अंतिम दो पोस्‍ट आज भी देखी जा सकती हैं जो उन्‍होंने अपने अस्‍पताल में भरती होने के बावजूद लिखी थीं। इनमें से पहली पोस्‍ट में उन्‍होंने लिखा था-
तो हाजरीन अर्ज किया है-
उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है

और उनकी आखिरी पोस्‍ट थी-

सो सॉरी...
तेरी आँखों का कुछ क़ुसूर नहीं
मुझी को बीमार (ख़राब) होना था 

यानी जाते जाते भी वे अपनी हालत के लिए किसी को कुसूरवार नहीं ठहरा गए। शायद उन्‍हें किसी से शिकायत रही भी नहीं... शिकायत करना उनके स्‍वभाव में ही नहीं था। दिक्‍कत सिर्फ ये है कि उनके इतनी जल्‍दी चले जाने की शिकायत हम किससे करें...
आप बहुत याद आएंगे अनिल भाई... शायद आज सिकाडा भी जंगल में रो रहा होगा...

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