देश इस समय उत्तरप्रदेश में हुई दुष्कर्म की दो जघन्य घटनाओं से आंदोलित है। इनमें से एक घटना हाथरस जिले की है और दूसरी बलरामपुर जिले की। मीडिया के जरिये जो जानकारियां सामने लाई जा रही हैं उन्हें देखते हुए यह साफ है कि इनमें से हाथरस की घटना पर बहुत ज्यादा फोकस है और बलरामपुर की घटना पर कुछ कम। जबकि दोनों ही घटनाएं समान रूप से निंदनीय हैं।
सवाल उठता है कि आखिर ऐसा क्यों है? क्या दोनों घटनाओं पर समाज की समान रूप से प्रतिक्रिया नहीं होनी चाहिए थी? क्या दोनों ही घटनाओं पर मीडिया का उतना फोकस नहीं होना चाहिए था? क्या राजनीतिक दलों को भी दोनों मामलों पर समान रुख नहीं अपनाना चाहिए था? और सवाल यह भी कि क्या मीडिया का कवरेज किसी भी घटना में राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया या फिर बड़े नेताओं की भागीदारी से तय होता है?
जैसाकि साफ है, दोनों ही घटनाएं समान रूप से जघन्य हैं और समाज का एक बर्बर चेहरा सामने लाती हैं। इनके पीछे जो मूल चिंता है वो है महिला सुरक्षा की। ऐसे में इस तरह की तुलना करना कतई ठीक नहीं है। लेकिन क्या ऐसा नहीं करना भी ठीक है? क्या यह सवाल नहीं उठना चाहिए कि हम समाज में होने वाली ऐसी बर्बर घटनाओं को भी अब राजनीतिक नफे नुकसान के लिहाज से देखेंगे? और क्या हमारा मीडिया भी ऐसी घटनाओं पर अपना कवरेज, प्रतिक्रिया देने या विरोध करने वाले राजनेताओं का कद देखकर तय करेगा?
जिस समय मुख्य मीडिया अपने-अपने कारणों से इन घटनाओं के अलग-अलग तरीके से किये जा रहे कवरेज में व्यस्त है, उसी समय सोशल मीडिया में कुछ गंभीर और खतरनाक सूचनाएं संचरित हो रही हैं। ऐसी ही एक सूचना बलरामपुर घटना को लेकर पूछा जाने वाला वह सवाल भी है कि क्या राजनीतिक दलों ने हाथरस की तुलना में बलरामपुर की घटना को उतनी तवज्जो इसलिए नहीं दी क्योंकि वहां दुष्कर्म के आरोपी एक खास समुदाय के हैं?
बताया गया है कि हाथरस मामले में आरोपियों और पीडि़ता के परिवार के बीच पुरानी रंजिश थी। लेकिन बलरामपुर की घटना में तो पुरानी रंजिश जैसी कोई बात सामने नहीं आई है। जो बताया गया वो ये है कि घटना की शिकार युवती बीकॉम सेकंड ईयर की छात्रा थी और कॉलेज की फीस जमा कर लौट रही थी। रास्ते में उसका कथित अपहरण हुआ और एक आरोपी की ही ग्रोसरी शॉप में ले जाकर उसके साथ दुष्कर्म किया गया, इस दौरान उसे सांघातिक चोटें भी पहुंचाई गई और बाद में पीड़ा से कराहती युवती ने अस्पताल में दम तोड़ दिया।
इन दोनों घटनाओं से जुड़े आपराधिक और महिला सुरक्षा संबंधी सवालों के समानांतर कुछ और भी बातें हैं जिन पर ध्यान दिया जाना चाहिए। हम इस सवाल को खारिज नहीं कर सकते कि आखिर हाथरस और बलरामपुर में राजनीति और मीडिया के फोकस में अंतर क्यों दिखाई देता है? जबकि दोनों ही जगह घटना का शिकार हुई युवतियां दलित हैं। फर्क है तो घटना को अंजाम देने वाले लोगों के समुदाय में। तो क्या सारा हो हल्ला तय करते समय इस बात को भी सुनियोजित रूप से ध्यान में रखा गया? यहां फिर इस बात को साफ करते हुए कि अपराध अंतत: अपराध है और अपराधी की कोई जाति या धर्म नहीं होता, यह सवाल तो बनता ही है कि यदि ऐसा ही है तो फिर राजनीति की एप्रोच में फर्क क्यों?
हमें ऊपरी तौर पर ये बातें बहुत सतही और ध्यान भटकाने वाली लगती हों। यह भी आरोपित किया जा सकता है कि इस तरह के सवाल किसी सरकार को बचाने या मुख्य मुद्दे से दूर ले जाने के लिए उठाए जा रहे हैं लेकिन ठंडे दिगाम से सोचें तो क्या ऐसा नहीं लगता कि ये सवाल भी कहीं न कहीं मौजूद हैं, जिनकी अपने-अपने राजनीतिक/अराजनीतिक कारणों से अनदेखी की जाती रही है, की जा रही है।
इस अनयास या सायास अनदेखी के परिणाम क्या होंगे, क्या कभी यह सोचा गया है? इससे समाज में वैमनस्य का जहर और कितना ज्यादा फैलेगा क्या इस पर कभी विचार किया गया है? घटनाएं कैसे मोड़ लेती हैं जरा इसकी बानगी भी देख लीजिये। एक ओर जहां बलरामपुर की वारदात को लेकर सांप्रदायिक रूप से भेदभाव के आरोप लगाए जा रहे हैं तो हाथरस की घटना दलित बनाम उच्च वर्ग का रूप लेती दिखाई दे रही है। हिन्दी के एक बड़े अखबार ने तो 4 अक्टूबर को अपनी हेडलाइन में ही लिखा है कि हाथरस जातिगत टकराव की ओर बढ़ रहा है।
सजा दोनों ही मामलों में समान रूप से मिलनी चाहिए। महिला चाहे हाथरस की हो या बलरामपुर की, चाहे दलित हो या गैर दलित, गांव की हो या शहर की ये सब बातें बेमानी हैं। मुख्य सवाल है कि क्या महिलाएं समाज में सुरक्षित हैं? और इस सवाल का जवाब ढूंढने निकलते समय हम पक्षपाती कतई नहीं हो सकते। जिन्हें राजनीतिक करनी है वे राजनीतिक के अखाड़े में जाएं या वहीं रहें, ऐसे मामलों को तो कम से कम बख्शें। सरकार हो या विपक्ष, एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप के बजाय महिला सुरक्षा की मूल समस्या पर ध्यान दें तो बेहतर होगा। राजनीति चमकाने के और भी कई रास्ते हैं, बलात्कार की घटना को तो कम से कम इसकी सीढ़ी न बनाया जाए।