सत्याग्रह आज की सबसे बड़ी जरूरत

राकेश अचल

बीते 44 साल में देश न आगे बढ़ा है और न पीछे हटा है, जो तस्वीर 1977 में बेलछी की थी वैसी ही कुछ तस्वीर आज बूलगढ़ी या बलरामपुर या बारां की है। इन साढ़े चार दशकों में केवल हमने सरकारें बदली हैं लेकिन समाज की,  देश की, राजनीति की मानसिकता में कोई तब्दीली नहीं दिखाई दे रही। तब भी देश लाठी-गोली के बूते चल रहा था और आज भी चल रहा है। अगर कुछ बदला है तो किरदार बदले हैं।

बहुचर्चित बूलगढ़ी सामूहिक बलात्कार काण्ड के विरोध में पीड़ितों से मिलने के लिए निकले कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी और उनकी बहन प्रियंका गांधी के साथ पुलिस ने जो व्यवहार किया उसमें और 1975 में कांग्रेस की तत्कालीन सरकार द्वारा विपक्ष के साथ किये गए व्यवहार में राई-रत्ती का फर्क नहीं है। मुझे हैरानी नहीं हुई पुलिस के धक्के खाते राहुल गांधी को देखकर क्योंकि राजनीति में देश के तमाम राजनीतिक दलों ने जो सीखा है वो कांग्रेस से ही सीखा है। लेकिन मुझे हैरानी इस बात की है कि आज भी असहमति के साथ वो ही व्यवहार किया जा रहा है जो 44 साल पहले किया जा रहा था। अनुभव से कुछ तो सबक लिया जाना चाहिए था।

देश में महिलाओं से बलात्कार के मामलों में कोई प्रदेश किसी से कम नहीं है। बलात्कारी किसी राजनीतिक व्यवस्था के न मोहताज हैं और न उन्हें किसी क़ानून से डर लगता है। निर्भया काण्ड के आरोपियों को फांसी पर लटकाये जाने या हैदराबाद पुलिस द्वारा कुछ आरोपियों को मुठभेड़ में मार गिराने के बावजूद बलात्कार की वारदातों में कोई कमी नहीं आई है। दुर्भाग्य ये है कि दुनिया के इस सबसे घृणित अपराध के प्रति सरकारों की मानसिकता भी नहीं बदली है। खासतौर पर यूपी की सरकार ने तो बलात्कारियों को संरक्षण देने में न जाने कितने नए कीर्तिमान बना डाले हैं।

उत्तरप्रदेश में बूलगढ़ी के बदमाश ही नहीं सांसद और  विधायक तक बलात्कार के आरोपी बने लेकिन सरकार ने उनके खिलाफ कार्रवाई करने के बजाय आरोपी लड़कियों और महिलाओं के खिलाफ ही कार्रवाई कर दिखाई। विरोध सरकार की इस मानसिकता का है। बूलगढ़ी में बलात्कार का शिकार बनी लड़की के आरोपियों पर अपनी सफाई देने का जिम्मा सरकार का है लेकिन ये काम वहां के एडीजी कर रहे हैं। वे दावा कर रहे हैं कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट में बलात्कार की पुष्टि नहीं हुई। कोई इस अनुभवी पुलिस अधिकारी से पूछे कि वारदात के एक पखवाड़े के बाद कौन सा फोरेंसिक प्रमाण मृतिका की देह से चिपका रहा होगा?

यूपी पुलिस ‘उलटा चोर कोतवाल को डाटे’ की कहावत को चरितार्थ कर रही है। पुलिस का काम आरोपियों को ससम्मान क्लीन चिट देने का नहीं है, ये काम अदालत का है। लेकिन जब पुलिस सरकार की कठपुतली बन जाये तो उसके पास विकल्प बचता ही नहीं है। पुलिस काले को सफेद और सफेद को काला कर ही सकती है। पुलिस देश की सबसे बड़ी पार्टी के सबसे बड़े नेता का गिरेबान पकड़ सकती है, उसे धक्का देकर जमीन पर गिरा सकती है, उस पर लाठी तान सकती है। इसमें हैरानी की क्या बात है, किसी को हैरान होना ही नहीं चाहिए।

बेलछी से बूलगढ़ी तक की यात्राओं को हमने अपनी आँखों से देखा है। हम किसी की गोदी में पलने वाले लोग नहीं हैं, किसी दल की सदस्‍यता भी हमारे पास नहीं है इसलिए ये लिखने का हमारा अधिकार सुरक्षित है कि हम सच को उजागर करें। बेलछी में ज़िंदा लोग गोलियों से भूने गए थे, उस समय बिहार में एक निहायत ईमानदार कर्पूरी ठाकुर की सरकार थी। ठीक वैसे ही आज यूपी में बूलगढ़ी उस समय हुआ जब वहां निहायत ही ईमानदार योगी आदित्यनाथ की सरकार है। मुख्यमंत्रियों के ईमानदार या सहृदय होने से न वारदातें रुकती हैं और न राजनीति। दोनों साथ-साथ चलते हैं। आज भी चल रहे हैं।

बेलछी काण्ड के बाद आपातकाल के कारण जनता द्वारा ठुकराई गयी पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी दिल्ली से हवाई जहाज के जरिए सीधे पटना और वहां से कार से बिहार शरीफ पहुंच गई थीं। तब तक शाम ढल गई और मौसम बेहद खराब था। नौबत इंदिरा गांधी के वहीं फंस कर रह जाने की आ गई लेकिन वे रात में ही बेलछी पहुंचने की जिद पर डटी रहीं। वे जब बेलछी पहुंचीं तो खौफजदा दलितों को ही दिलासा नहीं हुआ बल्कि वे पूरी दुनिया में सुर्खियों में छा गईं।

हाथी पर सवार उनकी तस्वीर सब तरफ नमूदार हुई जिससे उनकी हार के सदमे में घर में दुबके कांग्रेस कार्यकर्ता निकलकर सड़क पर आ गए। इंदिरा के इस दुस्साहस को ढाई साल के भीतर जनता सरकार के पतन और 1980 के मध्यावधि चुनाव में सत्ता में उनकी वापसी का निर्णायक कदम माना जाता है।

बीते रोज राहुल गांधी ने भी अपनी दादी के पदचिन्हों पर चलने की कोशिश की। उन्होंने भी जनता की नब्ज को पकड़ने का प्रयास किया है। वे हाथी पर सवार होने के बजाय पैदल बूलगढ़ी की और बढ़े और रास्ते में पुलिस ने उनके साथ जो किया उसने उन्हें अपेक्षा से अधिक सुर्खियां भी दीं, लेकिन अब ये कहना बड़ा कठिन है कि वे भी स्वर्गीय इंदिरा गांधी की तरह यूपी सरकार के साथ दिल्ली सरकार को आने वाले वर्षों में बदलने में कामयाब होंगे या नहीं? यूपी की सरकार लगातार बचकानी हरकतें कर रही है। यूपी में पुलिस ने पहले राहुल को लठियाने की कोशिश की और फिर बाद में उनके खिलाफ महामारी एक्ट के तहत प्रकरण दर्ज कर लिया। जैसे खिसियानी बिल्ली खम्भा नोंचती है वैसा ही यूपी की पुलिस,  प्रशासन कर रहे हैं।

मैंने पहले ही कहा कि बलात्कारी किसी राजनीतिक व्यवस्था के मोहताज नहीं हैं, उन्हें फर्क नहीं पड़ता की सूबे में किसकी सरकार है। फर्क सरकारों को पड़ता है कि वे इन दुष्टों के साथ कैसा व्यवहार करतीं हैं? यूपी की सरकार, पुलिस और प्रशासन इस मामले में नाकारा साबित हुए हैं। हमारे मध्यप्रदेश और राजस्थान की हालत भी कोई ख़ास अच्छी नहीं है, लेकिन यहां की सरकारें अभी तक बेगैरत नहीं हुई हैं। ये गनीमत भी है और भगवान की कृपा भी, अन्यथा हमारे ही सूबे में एक ऐसे गृहमंत्री हुए थे जिन्होंने बलात्कार पीड़िता को दो बार बलात्कार होने पर विधानसभा में दो बार मुआवजा देने की घोषणा बड़े गर्व के साथ की थी। बलात्कार पीड़िताओं या उनके परिजनों को दस-पचीस लाख देने से सरकारें अपनी नैतिक जिम्मेदारी से उऋण नहीं हो जातीं। रुपया न जिंदगी दे सकता है और न जख्म भर सकता है। मेरे ख्याल से तो मुआवजा एक तरह की रिश्वत है कि रुपया लो और व्यवस्था के खिलाफ मौन साधकर बैठो।

बहरहाल चारों तरफ से खतरे की घंटियाँ बज रहीं हैं, कोई सुने या न सुने। खतरा समाज को भी है और लोकतंत्र को भी। इस खतरे को पहचानिये और जहाँ हैं वहां से अपनी शक्ति भर विरोध कीजिये, ये मत देखिये कि कहाँ कौन से दल की सरकार है? जो जहां प्रतिपक्ष में है उसका नैतिक दायित्व है कि वो सड़क पर निकले, जनता को संगठित करे, ऐसा करते हुए उसे पुलिस की लाठी-गोली का उपहार तो मिलेगा। गांधी जी की जयंती पर सत्याग्रह से क्‍या भयभीत होना? गांधी 151 साल बाद भी हमारे साथ हैं, बाहर भी, भीतर भी। जिनके पास गांधी नहीं हैa, वे अभागे हैं। उनका काम गोड़से से चलता है तो चलने दीजिये। आप गांधी के साथ रहिये। गांधी ही सबके काम आएंगे, उनके भी जो गोडसे को ‘गॉड’ मानते हैं।

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