जयराम शुक्ल
कोरोना ने इस साल की पढ़ाई लिखाई पर भी ग्रहण लगा दिया। स्कूल कॉलेज कब से शुरू होंगे कहा नहीं जा सकता। पढ़ाई का ऑनलाइन तरीका निकला है। अध्यापक मजबूरी में पढ़ा भी रहे हैं और बच्चे पढ़ भी रहे हैं। लेकिन मेरा मानना है कि इस आभासी व्यवस्था में आप जानकारी तो हासिल कर सकते हैं ज्ञान और संस्कार नहीं।
क्या हम ऐसी कल्पना कर सकते हैं कि स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय न हों सिर्फ़ शिक्षा और शिक्षण की यही आभासी दुनिया हो..? नहीं न। यदि ऐसा होता तो आक्सफोर्ड, कैंब्रिज, एमआईटी कब के बंद हो चुके होते। ये उन्नत देश वाले शैक्षणिक संस्थान हैं जहां इंटरनेट और मीडिया की तकनीक शिखर पर है।
स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी इसलिए जरूरी हैं क्योंकि वहां सिर्फ़ विषय की जानकारी भर ही नहीं, ज्ञान के साथ संस्कार भी मिलते हैं। युवाओं में सहकार और नेतृत्व की भावना विकसित होती है। खुद को व्यक्त करने के मौके मिलते हैं। यही युवा आगे चलकर प्रशासनिक अधिकारी, राजनेता, न्यायविद, शिक्षाशास्त्री, संस्कृतिकर्मी के रूप में निकलते हैं। शैक्षणिक संस्थान अपने आप में एक समाजिक इकाई होते हैं। सही मायने में जीवन की असली पाठशाला यही हैं।
यह कोरोना की महामारी का वर्ष है, चलिए इसे अपवाद स्वरूप छोड़ देते हैं। लेकिन हम देखते हैं कि सामान्य दिनों में भी छात्र और युवा इसी में खोये रहते हैं, चाहे वे शिक्षण संस्थान में हों या घर में। इस हवाहवाई व्यवस्था में जमीनी समझ का दायरा सिकुड़ता जा रहा है। युवा छात्र इसी खोल में घुसे रहें, सरकारें भी यही चाहती हैं। इसलिए छात्रसंघों के चुनाव पिछले दो दशक से निरंतर स्थगित हैं। चिंता का विषय यह कि अपने सूबे में छात्रों, युवाओं को साजिशन मुख्यधारा की राजनीति से दूर रखने का उपक्रम हो रहा है।
इस वर्ष को अलग मान भी लें तो मध्यप्रदेश में पिछले पंद्रह वर्ष से छात्रसंघों के चुनाव नहीं हुए। शिवराज सिंह व उनके पूर्ववर्ती कमलनाथ की सरकार के कई मंत्री छात्र राजनीति से दीक्षित होकर निकले, लेकिन ये सभी छात्र राजनीति के विरोधी या दुश्मन ही बने रहे। लॉ एन्ड आर्डर का हवाला देते हुए इन्होंने कभी नहीं चाहा कि छात्र लोकतंत्र की चुनावी पाठशाला में भी कुछ पढ़ें-लड़ें।
अरुण जेटली के निधन को एक साल बीता है। अरुण जी अपने जमाने के तिलस्मी छात्रनेताओं में से एक थे, जिन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय का छात्रसंघ अध्यक्ष होते हुए इमरजेंसी के खिलाफ हुंकार भरी, दिलेरी के साथ गिरफ्तारी दी, अठारह महीने जेल में रहे। मेरे स्मृतिपटल पर उनकी वह तस्वीर अमिट सी है जिसमें वे छात्रों के जुलूस में हाथ लहराते हुए चल रहे हैं। अरुणजी मेधावी छात्र रहे हैं और आगे चलकर सुप्रीम कोर्ट के सफल वकील भी। सो यह कहना मूर्खता है कि छात्र राजनीति पढ़ाई और कॅरियर के लिए बाधा है, जैसा अक्सर सत्ताधारी प्रतिनिधि कहा करते हैं।
2017 के दिल्ली हाईकोर्ट के एक फैसले में कहा गया था कि छात्रसंघ के चुनाव मजबूत लोकतंत्र की बुनियाद हैं.. यहां से अरुण जेटली जैसे मेधावी नेता भी निकलते हैं। किसी विघ्नसंतोषी ने छात्रसंघ चुनावों पर रोक लगाने की गरज से याचिका दायर की थी। प्रायः सभी राजनीतिक दलों की बुजुर्ग पीढ़ी छात्रसंघों से निकली है। हमारे जबलपुर के शरद यादव तूफानी छात्रनेता थे। लालू, नीतीश और सुशील मोदी पटना विवि के एक ही छात्रसंघ के पदाधिकारी रहे। प्रकाश करात, सीताराम येचुरी, डी. राजा और अतुल अंजान जैसे वामपंथी दिग्गज भी छात्र राजनीति से ही निकले हैं।
छात्रों के तेवर डेढ़ दशक में पिलपिले हो गए। वह सोशल मीडिया की आभासी दुनिया में गत्ते की तलवार के बल पर क्रांति लाने में जुटा है। नशा उसकी रगों के खून को मावाद में बदल रहा है। हमारे नीति नियंता यही चाहते भी हैं, ताकि कोई प्रतिरोधक शक्ति उनकी स्वेच्छाचारिता को चुनौती न दे सके। छात्र जीवन में हम लोग राजनीति के बारे में खूब चर्चा करते थे। यह राजनीति कॉलेज और विश्वविद्यालय के परिसर के बाहर की भी होती थी। महंगाई, बेरोजगारी समेत देश के वे तमाम मुद्दे जो उस समय उबाल पर होते थे। हमें नारे बहुत आकर्षित करते थे। जब स्कूल में थे तब जयप्रकाश नारायण का आंदोलन पूरे शबाब पर था। उन दिनों में बालमंडली बनाकर जुलूस निकालते और खूब नारे लगाते थे।
लोहिया, नरेन्द्र देव और जयप्रकाश का न सिर्फ नाम सुना था बल्कि उनके बारे में इतना जानते थे कि दस मिनट बोल सकें। ये संस्कार स्कूल से मिले थे क्योंकि हर महापुरुष की जयंती व पुण्यतिथि पर भाषण प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती थीं। स्वतंत्रता आंदोलन और समाज सुधार आंदोलनों पर भी परिचर्चाएं होती थीं।
वो सत्तर का दशक था.. हम लोग सड़कों पर जुलूस निकालकर नारे लगाते थे..रोजी रोटी दे न सके, वो सरकार निकम्मी है.. जो सरकार निकम्मी है, वो सरकार बदलनी है। ..खादी ने मखमल से ऐसी साठगांठ कर डाली है, टाटा बिड़ला डालमिया की बारहोंमास दिवाली है। .. अब तक जिसका खून न खौला, खून नहीं वो पानी है..। जब इमरजेंसी लगी तो पता लगा कि ऐसा नारा लगाने वाले सभी लोगों को जेल में बंद कर दिया गया। हम बच्चे भी सहम गए।
एक अजीब तरीके का सन्नाटा था। गुन्डों और नेताओं को एक भाव तौला जाता था। दोनों के साथ पुलिस एक जैसा व्यवहार करती थी। हायरसेकंडरी में पहुंचे तब इमरजेंसी लगी थी। स्कूलों में संजय गाँधी के सूत्र बताए जाते थे। एक ही जादू- दूरदृष्टि, पक्का इरादा, नसबंदी, वृक्षारोपण स्कूल की दीवारों पर ऐसे नारे लिखे थे। मुझे याद है कि स्कूल में एक भाषण प्रतियोगिता आयोजित की गई थी, विषय था- आपातकाल एक अनुशासन पर्व है। एक साल के भीतर इतना गड्डमड्ड हो गया कि तय कर पाना मुश्किल था कि नारे लगाने वाले गलत थे कि डंडा मारकर जेल भेजने वाले।
उन्हीं दिनों प्रदेश के मुख्यमंत्री जी शहर आये तो हम बच्चों का स्कूल बंद कर हमें अगवानी के लिए मवेशियों की तरह हाँककर ले जाया गया था। हवाई अड्डे पर भूखे प्यासे हम बच्चों को कहा गया था कि जब नेता जी आएं तो उनपर फूल बरसाना। भूख और प्यास ने जिंदगी में पहली बार नेता नाम से इतनी नफरत पैदा की। अखबार, रेडियो सब सरकार की पुण्याई का ही बखान करते थे फिर भी तरुण मन में लगता था कि यह सब झूठ है, बकवास है, अत्याचार हो रहा है, लोग सताए जा रहे हैं। मैं चाहता हूँ आज का स्कूली छात्र भी राजनीति की कम से कम इतनी समझ रखे, जरूरत पड़े तो बोले व हस्तक्षेप करे।
सतहत्तर में जब इमरजेंसी हटी और फिर जो दौर शुरू हुआ उसकी असली ताकत, तरुण, युवा और छात्र ही रहे। स्कूल और कॉलेज के छात्रों ने पहली बार खुलकर चुनाव में भागीदारी निभाई। भले ही मताधिकार न रहा हो पर पर्चा, बुलेटिन बाँटने और दीवारों पर नारे लिखने का काम छात्रों व युवाओं ने किया और पूरा माहौल बनाया। ये वृत्तांत मैंने इसलिए बताया क्योंकि आज की चिंतनीय स्थिति यह है कि छात्रों और युवाओं को साजिशन राजनीति और सामाजिक सरोकारों से अलग किया जा रहा है। सोशल मीडिया के जरिये एक ऐसी आभासी दुनिया रची जा रही है कि जिस उम्र में कभी तख्ता पलट तक की ताकत हुआ करती थी, राजनीति में वे युवातुर्क कहलाते थे, उस उम्र में वे या तो सोशल मीडिया के ट्रोलर हैं या शिगूफे और झूठ फैलाने के औजार।
सोशल मीडिया एक ऐसा सोख्ता बन गया है जो युवाओं का गुस्सा, प्रतिरोध, विद्रोह, आंदोलन, विचार सबकुछ सोखकर कर उन्हें दिमागी तौर पर सफाचट कर रहा है। छात्रों व युवाओं के सम्मुख एक वैकल्पिक संस्कृति रच दी गई है कि वे वहीं मगन है। मैं इन सब बातोँ को इतनी शिद्द्त से महसूस कर पाता हूँ वो इसलिए कि जिस विन्ध्यक्षेत्र से मेरा नाता है वहां के युवातुर्कों ने अपने जमाने में सत्ता के खिलाफ विद्रोह और आंदोलनों का इतिहास रचा है। यहां भारत छोड़ो आंदोलन की कमान बुजुर्गों ने नहीं स्कूली, कॉलेजी छात्रों ने संभाली थी। उन्नीस साल के छात्र पद्मधर सिंह शहीद हुए थे। स्कूली छात्रों ने गिरफ्तारी दी।
यह जज्बा सन् 52 के प्रथम आम चुनाव में भी कायम रहा। समाजवादी दल के प्रायः सभी विधायक ऐसे चुने गए जिनकी उमर 24 से 27 वर्ष के बीच की थी। तीन चार के खिलाफ तो कम उम्र में विधायक चुने जाने का मुकदमा भी चला। इसी उम्र में ये युवातुर्क समाजवादी दल की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में भी रहे। अब इस आयुवर्ग का युवा क्या कर रहा है एक सरसरी नजर तो डालिये।
नब्बे के बाद तो दूसरा युग ही शुरू हो गया जो अब अपने उच्च विकृत रूप में है। युवाओं की बात तो सभी राजनीतिक दल करते हैं पर उसे झांसे में रखने के लिये। आज फिर मँहगाई, बेरोजगारी का सवाल भीषण स्वरूप में सामने खड़ा है। उस युवा से क्या उम्मीद करना जो रजाई ओढ़े रात रात भर सोशल मीडिया वॉर में भिड़ा है। एक दूसरे को गाली देने, मजाक बनाने ट्रोल करने में।
जब याद करता हूँ भगत सिंह को और देखता हूँ आज की इस पीढ़ी के नौजवानों को, तो लगता है कि क्या ये उसी क्राँतिपुंज के वंशज हैं जिसने चौबीस साल की उम्र में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला के रख दी थी। और आज ये हैं कि सरकारों को अपने वाजिब हक के लिए भी नहीं हिला पा रहे। कि पद खाली हैं नौकरी दो, कक्षाएं रिक्त हैं शिक्षक दो, कैसे जिएं मँहगाई पर लगाम कसो। आभासी दुनिया से बाहर निकलो प्यारो… वक्त तुम्हें आवाज़ दे रहा है, युग की आहट सुनो।