रमेश रंजन त्रिपाठी
बॉलीवुड में नशे का प्रचलन बहुत पहले से है। इकसठ साल पहले इन्होंने खुले आम ‘मैं नशे में हूं’ का ऐलान कर दिया था। ‘चरस’ को तो आप भूले नहीं होंगे। अपने धरम पा’जी और हेमा जी की जोड़ी भी कम मादक नहीं थी। ‘पहला नशा’ नाम सुनकर ही सुरूर छाने लगे। ‘उड़ता पंजाब’ की कॉन्ट्रोवर्सी को कौन भूल सकता है? और, बॉयोपिक की तर्ज पर बनी रियल लाइफ स्टोरी ‘संजू’ ने तो कमाई के झंडे गाड़े थे। देवानंद या बिग बी जब भी ‘शराबी’ बने, बॉक्स ऑफिस ‘मदहोश’ होकर झूमने लगा। बॉलीवुड ने नशा करने के अनेक तरीके ईजाद कर रखे हैं। शराब की लत सबसे पुरानी है इसीलिए ‘देवदास’ के.एल.सहगल, दिलीप कुमार या शाहरुख खान के भेष में बार-बार दम तोड़ने चला आता है।
फिल्मों में खुश होने या गम गलत करने के लिए मदिरा से बेहतर साथी कौन हो सकता है? शायद ही कोई नायक हो जिसने फिल्मी नशा न किया हो। और, केश्टो मुखर्जी जैसे अभिनेता तो टी-टोटलर होकर भी केवल पियक्कड़ की एक्टिंग करते रहे। आधी सदी पहले ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ गाते हुए हिप्पी ‘दम मारो दम’ करने लगते थे। ‘दम मारो दम’ गाने से जी नहीं भरा तो इसी टाइटल से फिल्म भी बना दी। फिल्मी गानों की तो पूछिए मत! ध्यान से सुनने लगें तो नशा करने के लिए तड़प उठें।
जब राज कपूर जैसा शो-मैन ही नशा करने के लिए माफी मांगने के पहले ‘गालिब’ के शब्दों में कहने लगेगा कि ‘जाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठकर, या वो जगह बता दे जहां पर खुदा न हो’ तो दारू किसे बुरी लगेगी? अमिताभ बच्चन जब दलील देते हैं कि ‘नशा शराब में होता तो नाचती बोतल’ या ‘थोड़ी सी जो पी ली है, चोरी तो नहीं की है’ तो भला बोतल गटकने के लिए किसका मन न मचलने लगेगा? ‘जानी’ राजकुमार जब मोहम्मद रफी के स्वर में खुशामद करते हैं कि ‘छू लेने दो नाजुक होंठों को कुछ और नहीं है जाम हैं ये’ तो मीना कुमारियां सचमुच जाम चढ़ाने लगें इसमें ताज्जुब कैसा?
‘गोरा और काला’ जुबली स्टार राजेंद्र कुमार जब गाते हैं कि ‘तेरे नैन नशे दे प्याले’ या वे अपनी ‘आरजू’ का जिक्र करते हुए ‘छलके तेरी आंखों से शराब और जियादा का खुलासा करते हैं तब झूमने के लिए पीने की जरूरत नहीं बचती। धर्मेंद्र की ‘छलकाए जाम, आइए आपकी आंखों के नाम’ का आमंत्रण कौन ठुकराएगा? ‘साहब बीवी और गुलाम’ की टल्ली छोटी बहू का कसम खाकर अपने रो पड़ने का यकीन दिलाते हुए ‘न जाओ सैंया छुड़ा के बैंया’ की गुहार याद है या भूल गए?
‘अनारकली’ की ‘जमाना ये समझा के हम पी के आए’ की सफाई या साधना की ‘शराबी मेरा नाम हो गया’ की ‘इंतकाम’ वाली मुंहजोरी’ से क्या संदेश जाता है? जब ट्रेजेडी किंग गाते हैं कि ‘मुझे दुनियावालो शराबी न समझो मैं पीता नहीं हूं पिलाई गई है’, तो न जाने कितने लोगों को पीने का बहाना मिल जाता है! ‘झूम बराबर झूम शराबी’ की लोकप्रियता ने उसे फिल्म में जगह दिलाई।
वहीदा रहमान कहें कि ‘मैं हूं साकी तू है शराबी’ तो कौन कम्बख्त पीने से मना करेगा। ‘उमराव जान’ अपनी आंखों की मस्ती के हजारों दीवानों की चर्चा करती हैं लेकिन वे असल में कितने हैं कौन जानता है? सल्लू भैया की ‘हमका पीनी है पीनी है हमका पीनी है’ की ‘दबंग’ ललकार किसे न भाएगी? यदि ‘अग्ली और पगली’ ‘टल्ली’ हो जाएं और कटरीना कैफ ‘पव्वा चढ़ा के’ आ जाएं तो दर्शक बेचारा क्या करें? यो यो हनी सिंह ‘चार बोतल वोदका’ रोज लेने की बात करें तो किसका मन पीने के लिए न ललचाए?
शराब तो बड़ा कॉमन नशा है। लेकिन भांग का भी कम प्रयोग नहीं हुआ है फिल्मों में। एक तो प्रिय प्राचीन नशीला पदार्थ ऊपर से शिव जी की प्रिय बूटी होने का ठप्पा। ‘भंग का रंग जमा हो चकाचक’ या ‘जय जय शिव शंकर’ की लोकप्रियता से सब वाकिफ हैं। अब तो अफीम, भांग, गांजा, चरस, एलएसडी, कोकीन, हैरोइन आदि अनेक ड्रग मैदान में आ डटी हैं। कई लोग शराब के नशे को बुरा मानते ही नहीं। बड़ा मामला नारकोटिक ब्यूरो के हाथ लग गया है। फिल्मवालों की असली जांच हो रही है। आगे-पीछे इस पर फिल्म भी बनेगी जिसमें हो सकता है ड्रग के केस में समन किए गए कुछ लोगों को काम भी मिल जाए!
फिल्में बनना शुरू होने से पहले नशा मौजूद नहीं था क्या? चार सदी पहले बिहारी कवि ने धतूरे का मादक पदार्थ के रूप में जिक्र किया है- ‘कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय, वा खाए बौराय जग या खाए बौराय।’ नशे का वजूद अत्यंत प्राचीन है। तीन सदी पहले ‘रसलीन’ कह गए हैं- ‘अमिय, हलाहल मद भरे, सेत, स्याम, रतनार। जियत, मरत, झुकि झुकि परत, जेहि चितवत इक बार।’ भरत व्यास जैसे गीतकार ने भी ‘रानी रूपमती’ के अपने गीत ‘झननन झन झननन झन बाजे पयलिया’ की शुरुआत इसी दोहे से की है। जबकि ‘रानी रूपमती’ का समय ‘रसलीन’ से लगभग एक शताब्दी पहले का माना जाता है। फिल्मों में ऐसी उलटफेर नई बात नहीं है।
अब तो मानव मन को बौराने के हजार बहाने फिल्मों में मौजूद हैं। शराबखोरी की तारीफ में कितनी गीत-गजलें लिखी गई हैं, इसका अनुसंधान भी दिलचस्प हो सकता है। देशकाल परिस्थितियों के अनुरूप नशा अपने स्वरूप, मारक क्षमता और ठिकानों में बदलाव करता रहता है। फक्कड़ और धनवान कौन बचा है इससे? कानून में परिभाषित नशे के अलावा वर्चुअल मदहोशी के तरीके कम नहीं।
कुछ नशे बहुत अच्छे होते हैं। देशभक्ति, भगवत्प्रेम या पीड़ित मानवता की सेवा का नशा सर्वोत्तम है। और, मजे की बात देखिए कि इन महान कार्यों के लिए किसी और नशे के सहारे की आवश्यकता नहीं होती।