जयराम शुक्ल
पितरपख लगा है, कौव्वे कहीं हेरे नहीं मिल रहे। इन पंद्रह दिनों में हमारे पितर कौव्वे बनके आते थे। अपने हिस्से का भोग लगाते थे। कौव्वे पितर बनके तर गए या फिर पितर ने ही कौव्वा बनकर आने से मना कर दिया। मैंने मित्र से पूछा-आखिर क्या वजह हो सकती है। मित्र बोले- पहले झूठ बोलने वाले काले कौव्वे के काटने से डरा करते थे, क्योंकि वो मानते थे कि कौव्वे हमारे पुरखों के प्रतिनिधि हैं, ऊपर जाके बता देंगे कि तुम्हारे नाती पोते कितने झुट्ठे हैं। बदले जमाने में आदमी ही काँव काँव करते एक दूसरे को काट खाने दौड़ रहा है। चौतरफा काँव काँव का इतना शोर मचा है कि कौव्वे आएं भी तो उसी शोर में गुम जाएं। मैंने कहा- आखिर कौव्वों का भी तो अपना चरित्र है तभी न भगवान् ने पितरों का प्रतिनिधि बनाया है। और फिर ये न्याय के देवता शनि महाराज के वाहक। लेकिन आप ठीक कहते हैं इस अन्यायी समाज में भला उनकी पैठार कहाँ?
कौव्वे और कुत्ते मनुष्य के अत्यंत समीप रहने वाले पक्षी-पशु हैं। पर कौव्वा हठी होता है, जमीर का पक्का। कुत्ते को रोटी बोटी दिखाओ, तलवे चाटने लगता है, दुम हिलाने लगता है। कौव्वा, जहाँ हक न मिले वहां लूट सही, पर यकीन करने वाला। भगवान् के हाथ से भी अपना हिस्सा छीनने की जिसके पास हिम्मत है। रसखान बता गए- काग के भाग बड़े सजनी हरि हाथ सों लै गयो माखन रोटी। दब्बुओं के हाथ की भाग्य रेखा कभी नहीं उभरती। कर्मठ अपनी भाग्यरेखा खुद खींचते हैं। युगों से कौव्वे आदमी के बीच रहते आए पर स्वाभिमानी इतने कि कभी इन्हें कोई पाल नहीं सका। इनकी आजाद ख्याली और बिंदास जिंदगी अपने आप में एक संदेश है। एक सुभाषित श्लोक में कौव्वे को आदमी से श्रेष्ठ कहा गया है-
काक आह्वायते काकान् याचको न तु याचकः
काक याचक येन मध्ये वरं काको न याचकः।।
आदमी पैदाइशी भिखारी है। हाथ पसारे आता है, मुट्ठी बाँधे जाता है। कितना भी अमीर हो जा, मिलबाँटकर नहीं खाता। हड़पो जितना हड़प सको। ये हड़प नीति हड़प्पा काल से चली आ रही है। कौव्वे का समाजवाद देखिए, एक रूखी रोटी का टुकड़ा भी मिल जाए, काँव काँव करके पूरी बिरादरी को बुला लेता है। क्या अमीर क्या गरीब, क्या बलवान क्या निर्बल।
वैग्यानिक दृष्टि से भी पशु पक्षी हमारे पुरखे हैं। इसलिए इन्हें वेदपुराणों से लेकर हर तरह के साहित्य व संस्कृति में श्रेष्ठता मिली है। पशु पक्षियों को निकाल दीजिए, हमारी समूची लोकपरंपरा प्राणहीन हो जाएगी। गरुड के नाम से एक पुराण ही है। इस गरुड़ पुराण में ही हमारी पितर संस्कृति का बखान है। लेकिन गरुड़ को ग्यान मिला कौव्वे से। ये रामचरित के कागभुशुण्डि कौन हैं। ये गरुड़ के गुरुबाबा हैं। आज हम जिस रामकथा का पारायण करते हैं। उज्जयिनी में इन्होंने ही गरुड़ को सुनाई थी। कागभुशुण्डि का चरित्र उन सबके लिए सबक है जो चौबीसों घंटे अपने ग्यान के गुमान में बौराए रहते हैं।
कथा है कि उज्जयिनी में एक ब्राह्मण संत रहते थे। उन्होंने अपने शिष्य को पढ़ा लिखाकर प्रकांड विद्वान बना दिया। शिष्य को घमंड हो गया। वह गुरु की अवग्या, अपमान करते हुए ग्यान के घमण्ड में मस्त रहने लगा। शंकरजी को गुरु के इस तरह के अपमान पर क्रोध आ गया। उन्होंने शिष्य को शाप दे दिया। शिष्य को उसकी करनी का फल मिला, लेकिन गुरु से अपने शिष्य की यह गति देखी नहीं गई। वे शंकर जी के चरणों में लोट गए और शिवाजी की स्तुति की, जिसके भाव को गोस्वामी जी ने प्रस्तुत किया, वह अबतक की सर्वश्रेष्ठ स्तुति मानी जाती है–
नमामि शमीशान् निर्वाणरूपं, विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं, निजं निर्गुणं निर्विकल्पं नीरीहं…।
गुरु का शिष्य के लिए इतना उत्कट प्रेम। आज के गुरु हों तो शिष्य के समूचे कॅरियर का सत्यानाश कर दें। तो जब शंकर जी प्रसन्न हुए तो गुरु के निवेदन पर सजा कम करते हुए उन्होंने शिष्य को निकृष्ट पक्षी कौव्वा बना दिया। यही कागभुशुण्डि हुए। एक निकृष्ट तिर्यक योनि पक्षी को भी कागभुशुण्डि ने पूज्य और सम्मानीय बना दिया। कागभुशुण्डि का चरित्र इस बात का प्रमाण है कि नीच कुल में जन्मने वाला भी प्रतिष्ठित और सम्मानित हो सकता है।
कौव्वे हमारी लोकसंस्कृति में ऐसे घुलेमिले हैं कि कथा, कहानी, गीत, संगीत जीवन के दुख और सुख में, शोक और उत्सव में हर जगह उनकी उपस्थिति है। पर आज हमने उनसे रिश्ता तोड़ सा लिया है। आज वे हमारे घर की मुडेरों पर बैठकर शगुन संदेश नहीं देते। कौव्वे के जरिये शिक्षाप्रद कहानियां नहीं सुनने को मिलतीं। हजारों साल पहले पं.विष्णु शर्मा ने पंचतंत्र की कहानियां रची थीं। जिसके प्रमुख पात्र पशु पक्षी ही थे।
कौव्वे की चतुराई को उन्हीं ने ताड़ा था। विष्णु शर्मा ऐसे गुरू थे जिन्होंने अपने शिष्यों को नीतिशास्त्र की शिक्षा पशुपक्षियों के माध्यम से ही दी। इसलिए हमारे लोकाचार में प्रत्येक पशुपक्षी के लिए सम्मानित जगह है। आज हम उनके निर्वासन में जुटे हैं। आंगन से भी निकाल दिया और मन से भी। वे अब कर्मकाण्ड के प्रतीक मात्र रह गए। रिश्ता टूट सा गया। वे मनुष्य की जुबान नहीं बोल सकते, पर कभी महसूस करिए कि उन्हें यदि हमारी जुबान मिल जाए तो वे क्या कहेंगे? याद रखिये पशु पक्षियों की अवहेलना पुरखों की अवहेलना है, और इसका फल मरने के बाद सरग या नरक में नहीं, जिंदा रहते इसी लोक में मिलेगा।