राकेश अचल
बेहद घटिया विषय है लेकिन लिखना पड़ता है। महाराष्ट्र की साझा सरकार कोविड से लड़ने के बजाय कंगना से लड़ रही है। कुछ लोगों की नजर में कंगना रनौत तो रिया चक्रवर्ती से भी गयीबीती महिला है, लेकिन महाराष्ट्र सरकार के लिए कंगना एक ढाल है भाजपा की, इसलिए उससे लड़ना आवश्यक है। कंगना क्या है, क्या नहीं इसमें किसी की दिलचस्पी नहीं है, किन्तु हमारा मीडिया ये दिलचस्पी कायम रखना चाहता है ताकि उसे देश की, महाराष्ट्र की असली तस्वीर न दिखाना पड़े।
महाराष्ट्र सरकार के खिलाफ मुंह खोलने वाली मुंहफट अभिनेत्री के खिलाफ कार्रवाई करते हुए मुंबई महापालिका ने कंगना के मकान के अवैध हिस्से को ढहाने का नोटिस दिया है। अवैध निर्माण के खिलाफ कार्रवाई की जाना चाहिए लेकिन ये सवाल भी किया जाना चाहिए की बीएमसी को ये अतिक्रमण अचानक क्यों नजर आया? सरकार कंगना को क्वारेंटीन करेगी, करना चाहिए, क्योंकि क़ानून है। मुंबई पुलिस ने तो बिहार पुलिस के एक आईपीएस अफसर को भी क्वारेंटीन कर दिया था क्योंकि वो सुशांत सिंह राजपूत की संदिग्ध मौत की जांच करने मुंबई आया था। महाराष्ट्र सरकार और उसकी तमाम एजेंसियों के ये कारनामे सौतिया डाह जैसे हैं, इन्हें देखकर हंसी आती है।
मुंबई में पूरे देश के लोग नाम और नामा कमाने आते हैं। सबके अपने-अपने तरीके होते हैं, कुछ के गलत, कुछ के सही। जो गलत होते हैं वो गलत ही होते हैं। लेकिन दुर्भाग्य ये कि इन गलत लोगों को तब नहीं पकड़ा या घेरा जाता जब वो सचमुच गलत होते हैं, उन्हें तब घेरा या पकड़ा जाता है जब वे सरकार के खिलाफ मुंह खोलते हैं या सरकार की आँख की किरकिरी बनते हैं। एक लेखक के रूप में अपना किसी से कोई लेना-देना नहीं है। किसी रिया या कंगना से कोई सहानुभूति या ईर्ष्या नहीं है। वे कैसी हैं, ये वे जानें! मुश्किल ये है कि सरकार इन किरदारों को लेकर हलकान है। सरकार के लिए रिया महाराष्ट्र की अस्मिता से जुड़ा मुद्दा है और कंगना भी। एक महारष्ट्र की अस्मिता को लांछित कर रही है तो दूसरी लांछित की जा रही है।
महाराष्ट्र की सरकार के लिए लगता है, शेष महाराष्ट्र कुछ है ही नहीं, जो है सो मुंबई है। अरे! महाराष्ट्र में किसान हैं, मजदूर हैं, बेरोजगार युवक हैं, मछुआरे हैं, क्या इनकी कोई समस्या नहीं है? क्या पूरे महाराष्ट्र में अमन-चैन है जो सरकार सब कुछ छोड़कर रिया और कंगना में उलझकर रह गयी है? पिछले चार महीने से मुंबई रिया-सुशांत प्रकरण में उलझी थी और अब आज से कंगना के साथ महाराष्ट्र सरकार की मुठभेड़ है। महाराष्ट्र सरकार क्यों नहीं सोचती कि इन मुठभेड़ों से महाराष्ट्र की निर्दोष जनता का कितना नुक्सान हो रहा है। आमची मुम्बई और महाराष्ट्रवाद का नारा देकर शिवसेना ने क्या हासिल किया? आज शिवसेना सत्ता में है भी तो एक गठबंधन के साथ। शिवसेना की हैसियत बीते चार दशक में राष्ट्रीय दल की भी नहीं बनी, उलटे इस दौरान उसका एक विभाजन और हो गया।
महाराष्ट्र को आभासी मामलों में उलझाए रखने के लिए सभी राजनीतिक दल जिम्मेदार हैं। मध्यप्रदेश की तरह महाराष्ट्र की साझा सरकार का तख्ता पलटने के लिए उतावली भाजपा भी और शिवसेना तो है ही। किसी को महाराष्ट्र की फ़िक्र नहीं है, सब सत्ता के दीवाने हैं। महाराष्ट्र में नशे का संगठित कारोबार आज से नहीं है, दशकों से है लेकिन किसी भी सरकार ने इसे जड़-मूल से खत्म करने को न प्राथमिकता दी और न इसे उखाड फेंकने में कामयाबी हासिल की। उलटे जाने, अनजाने इस जानलेवा कारोबार को प्रत्यक्ष या परोक्ष संरक्षण ही दिया। सुशांत जैसे मामलों से इस कारोबार का एकाध पार्ट खुलता है और फिर बंद हो जाता है। रिया के मामले में भी यही होगा। कुछ दिन बाद सब भूल जायेंगे कि कोई रिया-शोभित, मिरांडा भी मुंबई में था। कंगना को भी कोई याद करने वाला नहीं बचेगा।
दुर्भाग्य ये है कि पिछले कुछ दिनों से देश का संघीय ढांचा आश्चर्यजनक रूप से शिथिल हो गया है। अब सब क्षेत्रवाद की बात करने लगे हैं। कोई रोजगार को लेकर, कोई अस्मिता को लेकर। देश की बात पीछे धकेल दी गयी है। देश के लिए सेना है सो सीमाओं पर दुश्मनों से जूझ रही है। नेता सात तालों के भीतर सुरक्षित बैठे हैं। सरकारें वर्चुअल चल ही रही हैं। इस दुर्दिन में केवल राजनीति हो रही है। उसे न महामारी का भय है और न किसी दूसरे मुद्दे की चिंता। अब तो स्थिति ये आ गयी है कि जनता के मुद्दों को लेकर सड़क पर उतरने के लिए भी कोई तैयार नहीं है। आने वाले दिन जैसे भी हों उनके लिए तैयार रहिये।