राकेश अचल
देश में इस समय दो-तीन मुद्दों की सबसे ज्यादा चर्चा है। पहला मुद्दा है जीडीपी में गिरावट और दूसरा है सीमा पर फिर तनाव। लेकिन आम भारतीय इन दोनों ही चीजों को नहीं जानता, उसकी पहचान केवल और केवल मंहगाई और उससे जुड़ी बेरोजगारी से है और इन दोनों ही मुद्दों पर सरकार उसे संतुष्ट नहीं कर पा रही है। पिछले सत्तर साल को ढाल बनाने वाली सरकार के कार्यकाल में जीडीपी जितनी नीचे गयी उतनी 40 साल में नहीं गयी थी, लेकिन जनता इस बारे में कुछ नहीं जानती।
सरकार ने लॉकडाउन तिमाही यानी अप्रैल-जून 2020 के जीडीपी आंकड़े जारी किए, चालू वित्त वर्ष 2020-21 की पहली तिमाही में आर्थिक विकास दर यानी जीडीपी ग्रोथ रेट -23.9 फीसदी दर्ज की गई। भारतीय अर्थव्यवस्था में बीते 40 साल में पहली बार इतनी बड़ी गिरावट आई है। कोरोना महामारी के चलते देश भर में लागू लॉकडाउन से पूरी तरह ठप पड़ी आर्थिक गतिविधियों ने अर्थव्यवस्था को जोरदार झटका दिया है। आम आदमी जानता है की जीडीपी में उतार-चढ़ाव तो ‘एक्ट आफ गॉड’ होता है, सरकार का इससे क्या लेना-देना।
मुझे हैरानी होती है कि नेताओं की तरह ही अब देश के अर्थशास्त्री भी सरकार की भाषा बोलने लगे हैं, वे हकीकत स्वीकार करने का साहस नहीं दिखा पा रहे, सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार के. वी. सुब्रमणियन का कहना है कि चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में अर्थव्यवस्था में 23.9 फीसदी की गिरावट का मुख्य कारण कोविड-19 संक्रमण रोकने के लिए लगाया गया कड़ा लॉकडाउन है। आने वाली तिमाहियों में देश बेहतर प्रदर्शन करेगा, कई क्षेत्रों में ‘वी’ आकार (ग्राफ चार्ट पर अंग्रेजी के वी अक्षर की भांति) का तेज सुधार देखा जा रहा है। सुब्रमणियन ने कहा कि बिजली उपभोग और रेल मालवहन जैसे संकेत दिखा रहे हैं कि आर्थिक गतिविधियों में सुधार हो रहा है।
जीडीपी के गिरने से बाजार की ही नहीं आम आदमी की हालत भी पतली होती है, बाजार यदि सात सौ अंक गिरा है तो आम आदमी तो रसातल में पहुँच गया है। आम आदमी के पास नौकरियों का ही नहीं निजी काम-धंधे का भी संकट है। कोरोनाकाल में किये गए लॉकडाउन के समय घोषित 20 लाख करोड़ के पैकेज का असर केवल अडानियों और अम्बानियों पर दिखाई दे रहा है, आम आदमी के ऊपर नहीं।
देश के महाव्यापारी नए-नए सौदे कर रहे हैं लेकिन आम आदमी के पास करने के लिए कुछ नहीं है। आम आदमी केवल सियापा कर सकता है सो कर रहा है। पहले आम आदमी सुशांत सिंह राजपूत और रिया चक्रवर्ती के नाम पर सियापा करता रहा और अब उसके सामने रोने के लिए सीमा पर नए सिरे से तनाव है, लगातार गिरती हुई जीडीपी है।
देश में बाढ़ की आपदा है, किसान परेशान हैं, छात्र परेशान हैं नौजवान परेशान हैं लेकिन केवल सरकार परेशान नहीं है। सरकार परेशान हो भी तो क्यों हो? सरकार कोई आम आदमी थोड़े ही है? सरकार तो सरकार है, उसे कभी परेशान होना ही नहीं पड़ता। परेशानी सिर्फ और सिर्फ जनता के लिए बनी है।
एक तरफ जीडीपी में गिरावट हो रही है तो दूसरी और कोरोना रफ्तार पकड़ रहा है, लेकिन सरकार परेशान नहीं है। दिल्ली की सरकार तो कहती है की उसके पास 70 फीसदी बैड खाली पड़े हैं। जहाँ विधानसभा के मुख्य और उप चुनाव होना हैं, उन राज्यों की सरकारें बेफिक्र हैं। नेता जमातियों से दस गुना ज्यादा कोरोना बाँट रहे हैं लेकिन उन्हें कोई नहीं रोक सकता।
कोरोना से एक माह में 20 लाख लोग संक्रमित हो गए लेकिन सरकार के माथे पर शिकन नहीं है। चीनी सेना से झड़प की खबरों के बाद बाजार से 4 लाख करोड़ एक झटके में पानी में चले गए, लेकिन सरकार का रोम नहीं फड़का, क्यों फड़के भला, सरकार का इसमें है क्या? संक्रमण आम आदमी को हुआ, पैसा आम आदमी का डूबा।
सोना-चांदी आम आदमी को खाना नहीं है लेकिन वो भी मंहगा हो रहा है, डीजल-पेट्रोल के बिना आम आदमी का काम चल नहीं सकता किन्तु उसकी कीमतों पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। इस पर हम सरकार के खिलाफ बोलकर राष्ट्रद्रोही घोषित किये जा सकते हैं क्योंकि हम भी तो आम आदमी हैं भाई!
लब्बो-लुआब ये है कि अब आम आदमी राम भरोसे है, काम नहीं है तो अयोध्या जाकर राम मंदिर बनाने में जुट जाये, सारी भव बाधाएं अपने आप दूर हो जाएँगी। मन को शांति मिलेगी सो अलग। घर में बैठेगा तो अवसाद घेरेगा और फिर स्थितियां और बिगड़ेंगी। वैसे भी पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के निधन के कारण राष्ट्र सात दिन तक शोक में डूबा है और शोक में डूबा राष्ट्र फालतू की बातें न करता है और न उसे करना चाहिए, उसे केवल शोकाकुल रहना चाहिए। सात दिन बाद जब शोक शमन होगा, झंडा दोबारा से ऊपर होगा तब आम आदमी का हौसला भी अपने आप बढ़ जाएगा।
गिरती जीडीपी को देखते हुए हमारी संवेदनशील अदालतों ने भी जुर्माने की रकम में अभूतपूर्व कटौती की है, अवमानना के मामलों में आरोपी को दो हजार रुपये के जुर्माने और छह माह के कारावास का प्रावधान है, लेकिन अदालत ने कहा प्रशांत भूषण को इस अपराध के लिए केवल एक रुपया जुर्माने के रूप में देना पडेगा। वे अगर एक रुपया नहीं देंगे तो फिर उन्हें कारावास के साथ ही तीन साल के लिए वकालत करने से रोका जा सकता है, लेकिन प्रशांत भूषण एक रुपया देकर जेल यात्रा से बच सकते हैं।
अदालत की इस उदारता से आम आदमी के मन में अदालत के प्रति भरोसा बढ़ेगा ही। एक गरीब देश की न्याय व्यवस्था में सुधार के लिए इससे ज्यादा और क्या किया जा सकता है? अब भूषण चाहें तो रोज अदालत की अवमानना करें उन्हें एक रूपये से ज्यादा तो जुर्माना देना नहीं है। आखिर अदालत का फैसला कानून की ही तरह नजीर जो होता है।
मुझसे आये दिन छोटे मुंह बड़ी बात हो जाती है और इस कारण अक्सर बड़े लोग मुझे डांटते-फटकारते भी हैं, लेकिन मैं इस डांट-फटकार को प्रसाद की तरह ग्रहण करता हूँ, क्योंकि डांटने-फटकारने से पहले बड़े लोगन को छोटे लोगों के ‘मन की बात’ पढ़ने का कष्ट तो उठाना ही पड़ता है। वैसे ‘मन की बात’ कहना और दूसरे के ‘मन की बात’ सुनना दोनों दुःसाहस का काम है। हमारा आम आदमी दूसरों के मन की बात 68 बार सुनने का दुःसाहस दिखा चुका है, भले ही उसके मन की बात एक बार भी न सुनी गयी हो!