‘एक रुपये’ में सिमटी इंसाफ, इज्जत और ईमान की दुनिया

अजय बोकिल

देश की सर्वोच्च अदालत ने अपनी अवमानना के आरोप में जाने-माने वकील और एक्टिविस्ट प्रशांत भूषण पर एक रुपये का जो जुर्माना लगाया, उसकी सोशल मीडिया पर अलग-अलग ढंग से व्याख्या हो रही है। कोई इसे अभूतपूर्व और सबक सिखाने वाला फैसला मान रहा है तो कोई इसे प्रशांत भूषण की नैतिक जीत बता रहा है। कुछेक ने इसे सबसे बड़े न्यायपीठ की खुद की कीमत आंकने के आईने में देखा। अभिनेता प्रकाश राज ने कहा कि 1 रुपया और इज्जत..किसने क्या खोया?

मगर इतना तय है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस निर्णय के जरिए उस बेचारे रुपये को फिर पुरानी इज्जत बख्श दी है, व्यवहार में जिसका लेन-देन अब ज्यादा अहमियत नहीं रखता। उलटे अगर कोई रुपये का सिक्का दे दे या लौटा दे तो इंसान उसकी ईमानदारी भी सिक्कों में तौलने लगता है। वो भी जमाना था, जब 1 रुपया भी तगड़ी हैसियत रखता था। वह बरसों तक ‘शगुन’ का प्रतीक रहा है और चवन्नी साथ में जुड़ जाने पर तो वह भगवान का भी फेवरेट हो जाता था। सालों तक सवा रुपये का प्रसाद देवताओं की समाज-आर्थिकी में एक ही सूचकांक पर डटा रहा।

गौरतलब बात यह है कि मात्र 1 रुपये जुर्माने की सजा सुनाने के लिए भी सुप्रीम कोर्ट को एक हफ्ते तक सोचना-समझना पड़ा। वरना हजारों-लाखों के रुपये के जुर्माने तो अदालतें सम्बन्धित कानून की धाराओं के तहत मिनटों में सुनाती आई हैं। लेकिन 1 रुपये का फैसला तो एक रुपये का है। जिसमें सभी की इज्जत, आबरू, ईमान और ईर्ष्या भी समाई हुई है। यह कुछ-कुछ वैसा ही है कि जैसे कश्मीरी मीठे सेब के साथ असम की जोलकिया मिर्च (दुनिया की सबसे तीखी मिर्च) एक ही प्लेट में परोस दी जाए।

बहरहाल ताजा खबर यह है कि प्रशांत भूषण ने यह जुर्माना भरने का ऐलान कर दिया है, क्योंकि ऐसा न करने पर तीन माह की जेल और उनकी वकालत की प्रेक्टिस पर तीन साल की रोक लग सकती है। प्रशांत भी 1 रुपये की खातिर लाखों रुपये की प्रैक्टिस को तिलांजलि नहीं दे सकते। वैसे उनका अभी भी मानना है ‍कि वो सही थे, कोर्ट की आलोचना, उसकी अवमानना नहीं है।

बहरहाल प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को लेकर जो ट्वीट किए थे, वो कितने अवमाननास्पद थे, कितने सच थे, उससे अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता की कितनी रक्षा हुई, क्या अवमानना का अधिकार एकतरफा है और यदि अवमानना हुई है तो उसे पीकर आरोपी को अभयदान देना ही न्याय है? या फिर अपमानकर्ता को सबक सिखाना भी न्याय की ही दरकार है? इन तमाम जटिल सवालों को अलग रखें तो इतना तो समझा ही जा सकता है कि इस 1 रुपये के इंसाफ में पूरी दुनिया का न्याय शास्त्र, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र और सामाजिक मनोविज्ञान भी सिमट आया है।

रुपया हमारे लोक मानस में सदियों से पैठा है। यूं तो इस देश में आदि काल से ही कोई न कोई मुद्रा चलन में रही है। उनके नाम भी राजवंशों के साथ बदलते रहे। लेकिन रुपये को ‘रुपये’ की हैसियत पहली बार उस बादशाह ने बख्शी, जिसने मुगल शासक हुमायूं को हराकर दिल्ली के तख्त पर राज किया। नाम था शेरशाह सूरी। अपने महज पांच साल के शासनकाल में उसने कई बुनियादी बदलाव किए। उसने पहली बार सन् 1542 में चांदी की मुद्रा ‘रुपया’ चलाई। जिसे पैसों में विभाजित किया गया। ‘रुपया’ संस्कृत के ‘रौप्य’ शब्द का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ ही चांदी है।

खास बात ये कि मुस्लिम शासन के उस दौर में भी मुद्रा के लिए संस्कृत शब्द को ही उपयोगी और सर्वमान्य माना गया। जिसे आज तक कोई बदल नहीं सका है। यही ‘रुपया’ आज भारत के अलावा,  पाकिस्तान, भूटान, नेपाल और श्रीलंका से लेकर इंडोनेशिया तक मान्य है। बाद में अंगरेजों ने भी रुपये को ही जारी रखा। फर्क इतना है कि तब यह सिक्के के रूप में ज्यादा चलता था, अब कागज के नोट व सिक्के दोनो रूपों में मान्य है। यही एक मात्र नोट है, जिसे भारत सरकार छापती है और इस पर भारत सरकार के वित्त सचिव के हस्ताक्षर होते हैं। बाकी नोट रिजर्व बैंक छापती है।

वैसे भारत में 1 रुपये का नोट भी 103 साल का हो चुका है। देश में पहला 1 रुपये का कागज पर छपा नोट ब्रिटिश राज में 30 नवंबर 1917 को जारी किया गया था। चूं‍कि उसके पहले रुपया केवल सिक्के के रूप में ही प्रचलन में था, इसीलिए सिक्कों की वो खनक, जैसी हमारे लोकमानस में बसी है, उसकी वैसी जगह ‘करकरे नोट’ आज भी नहीं ले पाए हैं।

यहां सवाल पूछा जा सकता है कि 1 रुपये में ऐसा क्या है, जो लाख रुपयों में भी नहीं है? क्यों अदद 1 रुपया सब पर भारी है? इसके कई जवाब हो सकते हैं। मसलन सदियों तक 1 रुपये का सिक्का चांदी का ही बना होता था, जो अपने आप में कीमती धातु है। रुपये में ‘रौप्य’ का जो रौब है, वही उसकी हैसियत भी गढ़ता रहा है। इस चांदी के 1 रुपये की कीमत कितनी ज्यादा थी, इसे इसी बात से समझा जा सकता है कि आजादी के समय हमारा 1 रुपया अमेरिका के 1 डॉलर के बराबर हुआ करता था। जिसे बाद में अवमूल्यित किया गया।

तात्पर्य यह कि इसी 1 रुपये ने हमारे दिलों पर भी बरसों राज किया है। इसीलिए शादी-ब्याह में ‘शगुन’ के रूप में 1 रुपया देने का चलन बरसों चला। हमारे बचपन में भी पॉकेट मनी के रूप में 1 रुपया मिल जाना आकाश छू लेने की खुशी देता था। मंदिरों में सवा रुपये का प्रसाद चढ़ाना या मन्नत मानना भगवान को भी कभी नहीं अखरा। वो इतने चढ़ावे में ही भक्तों पर कृपा बरसाते रहे।

इस 1 रुपये की घुसपैठ हमारे आर्थिक व्यवहारों के साथ सामाजिक आचार और मुहावरों तक में गहरे है। मसलन ‘आमदनी अठन्नी, खर्चा (एक) रुपैया’ जैसा मुहावरा जब भी गढ़ा गया हो, उसमें वर्तमान अर्थव्यवस्था का अक्स भी साफ देखा जा सकता है। इसी तरह ‘रुपये बरसना’ या ‘रुपया पानी की तरह बहाना’ किसी भी सत्तारूढ़ दल की आर्थिक सेहत से आईडें‍टीफाई किया जा सकता है।

गहराई से समझें तो 1 रुपया हमारी सभ्यता और संस्कृति का भी निचोड़ है। क्योंकि वही जीने की चाहत और मरणोपरांत इच्छा का परिचायक भी है। कई बड़े दिल वाले लोग 1 रुपया मेहनताना लेकर जहां अपने कद का अहसास‍ दिलाते हैं, वहीं 1 रुपये में निहित दौलत के हिमालय को भी रोशन करते हैं।

अब सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में फिर उसी 1 रुपये में ‘जुर्म और सजा’ की लक्ष्मण रेखा को पूरी ताकत और तासीर के साथ रेखांकित कर दिया है। यहां जुर्म की सीमा रेखा 1 रुपये पर आकर खत्म होती है और दंड की सीमा रेखा 1 रुपये से शुरू होकर अनंत तक जाती है। अंग्रेजी अखबार ‘द गार्जियन’ ने एक बार 1 रुपये के महत्व को कुछ इस तरह पारिभाषित किया था कि 1 इसलिए अतुलनीय है, क्योंकि उसे और विभाजित नहीं किया जा सकता। इसके बाद तो शून्य ही आता है।

लेकिन यह तो दार्शनिक बात हुई। 1 का अंकगणितीय महत्व यह है कि वह अंकों का प्रस्थान बिंदु है। इसके आगे बढ़ना ही होता है, पीछे लौटना नहीं। लिहाजा ऐसी सजा देना सुप्रीम कोर्ट से भी प्रगतिशील सोच की अपेक्षा रखता है, वहीं प्रशांत भूषण के लिए भी यह चेतावनी है कि वो और पीछे न जाएं। जहां तक आम आदमी का सवाल है, उसके लिए रुपया धन का सूचक है। भले ही वह उधार ही क्यों न हो। किसी शायर ने सटीक कहा है- ‘बटुए को कहां मालूम पैसे उधार के हैं, वो फूला ही रहता है अपने गुमान में…।’

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