रमाशंकर सिंह
वेदव्यास रचित महाभारत में एक जगह लिखा है ‘त्रिया चरित्रम् पुरुषस्य भाग्यम् देवो न जानाति कुतो मनुष्य:‘। आपको अर्थ, संदर्भ और लोक में प्रचलित भावार्थ बताने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिये, आप अक्सर यह लोकोक्ति के रूप में सुनते आये हैं। औरतों के लिये हमारे मनुष्य समाज का यह सर्वमान्य रवैया रहा है कि कहीं भी, थोड़ा सा भी सही या ग़लत मौक़ा मिल तो जाये, फिर देखिये कि औरत पर क्या क्या सुभाषितों की बरसात होने लगती है।
उपरोक्त ‘त्रिया चरित्रम्…‘ में औरत का, चरित्र के मामले में किसी भी मर्यादा को तोड़कर किसी भी अनैतिक सीमा तक जाने का भाव कुछ छिपा नहीं है। ऐसा अपवाद रूप में ही सही कहीं किन्हीं वेदव्यास जी ने लिखा हो, जो पुरुषों की वासना, लालसा, कदाचरण व कुचरित्र का सामान्यीकरण हो तो मेरी नज़र में नहीं आया। यदि हो भी तो लोकस्मृति में होने का प्रश्न ही नहीं उठता। ज़ाहिर है यह श्लोक औरत को गंदे अमर्यादित भाव से देखता है। और वे लोग, जिनकी संख्या पुरुष समाज में बहुत बड़ी है, इसका जिस भी संदर्भ में इस्तेमाल करते हैं वे निहायत कुंठित, पापी व त्याज्य मानसिकता के पुरुष हैं ।
औरत पर कोई भी गाली, तंज, आक्षेप, आरोप जड़े जा सकते हैं। सबसे आसान काम है ‘त्रिया चरित्रम्‘ कहना। कहते ही बाक़ी सब श्रोता, दर्शक, पाठक मज़े लेते हुये हंस कर उसका अनुमोदन कर देते है। यदि कोई औरत आरोपी न भी हो तो भी उसे अपराधी कहा जा सकता है। यदि प्रसंग और घटना ऐसी हो जिसमें बंबईया फ़िल्मों के सारे मसालेदार तत्व हों, तब तो कोई सीमा ही नहीं, क्योंकि दर्शकों की पुतलियां और कान वह सब देखने और सुनने के लिये बेताब रहते हैं जो किसी भी फ़िल्म में अन्यथा दिखता। एक गिरे हुये समाज का मीडिया कितना पतित हो सकता है, उसके नित नए मापदंड रचे जा रहे हैं।
यह पूरा मामला अब निंदा व चुग़ली पुराण से आगे बढ़ गया है। टीवी चैनल मीडिया अपनी टीआरपी के लिये इस ग़लीज़ चर्चा को हफ़्तों नहीं महीनों तक चला सकता है, अकल्पनीय आरोप हवा में उछाल सकता है। मीडिया के लिये कोई मर्यादा नहीं बची है। आयुषी तलवार नाम की एक किशोरी की अनसुलझी हत्या पर महीनों तक टीवी चैनलों ने वह सब सुनाया जो किसी भी घर में परिवार के साथ बैठकर नहीं सुना जा सकता, क्योंकि चैनलों के लाइव कार्यक्रम सेंसर बोर्ड में नहीं जाते।
उन आरोपों को आज लिखने में भी संकोच हो रहा है। चैनलों में तब एक स्कूल जाने वाली किशोरी की हत्या के बाद उसके चरित्र, नौकर व पिता से यौनिक संबंध, पिता-मां की दावतों में अनैतिक यौनिक व्यवहार आदि पर इतनी विष्ठा उछाली गई और मां-बाप को आरोपी तो छोड़ ही दीजिये, अपराधी ही बना दिया गया।
बाद में मीडिया से पैदा की गई अवधारणा के मद्देनज़र अभियोजन पक्ष ने भी उन्हें आरोपी बना दिया। मारी जा चुकी इकलौती बेटी के मां-बाप जेल गये और निचली अदालत के बाद हाईकोर्ट तक केस गया और पुलिस एक भी सुबूत पेश नहीं कर पायी। कहने को तलवार दंपती बाइज़्ज़त बरी हुये, पर इज्जत नाम की चीज़ बची ही कहां थी?
एक पढ़े लिखे डॉक्टर परिवार का पूरा सामाजिक जीवन नष्ट कर दिया गया, बाद में मीडिया ने न माफ़ी माँगी और न ही यह देखने की कोशिश की कि बाक़ी जीवन वे पति-पत्नी किस गहरे अवसाद में गुज़ार रहे है। टीआरपी की हवस ऐसी सवार है कि ये पत्रकार जब रोज अपने घरों में लौटते होंगे तो कैसे अपनी बेटी-बेटा या पत्नी, बहन या मां से आँख मिलाते होंगे? बेटियों, बहनों से भरे पूरे परिवार का कोई नर सदस्य कैसे अपने मुँह से यह वाक्यांश उच्चार सकता है कि ‘त्रिया चरित्रम्…’
कीचड़ की होली सुनी व देखी है, लेकिन मनुष्य-विष्ठा का अपने ही मुँह पर ऐसा लेपन? एक युवती जिसके विरुद्ध एक शिकायत की जांच अभी पूरी भी नहीं हो पाई है, जो फिलवक्त आरोपी भी नहीं कही जा सकती। लेकिन ढाई महीने से या तो शुद्ध राजनीतिक कारणों से या टीआरपी नामक व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा के लिये, सारे ही चैनल कुंठित मर्दवादी संस्कारों से पीड़ित होकर उसे चुड़ैल, अनैतिक, काला जादू करने वाली जाने क्या क्या बता रहे हैं।
एक मृत व्यक्ति के व्यसन, कमज़ोरियों, निजी मनोरोगों पर ऐसे एक्सपर्ट की भाँति चर्चा कर रहे हैं कि मौत की गरिमा भी विनष्ट हो जाए। एक चैनल ने तो मृतात्मा को बुलाकर बात भी कर ली। गाँवों क़स्बों में किसी भी असहमत औरत को चुड़ैल घोषित कर मारने पीटने, सिर गंजा कर मुँह काला रंग कर गलियों में घुमाने और यहां तक कि मार डालने के वास्तविक ‘संस्कार’ हम रोज देख रहे हैं। पर क्या न्यू इंडिया के मीडिया ने भी किसी संदेहास्पद औरत को चुड़ैल, हत्यारी, जादूगरनी घोषित कर, पूरे भारत में मुँह काला कर घुमाने जैसा अमानवीय, असभ्य, अशिष्ट व मानवाधिकार विरोधी काम हाथ में ले लिया है? ऐसा घिनौना काम उस संस्था के द्वारा, जो उद्दात्त मानवीय मूल्यों की रक्षा का झंडा उठाये हुये दिखनी चाहिये थी।
जब अभियोजन आरोपी ठहरा दे तब भी हम उसे अपराधी नहीं मान सकते, जब तक कि अदालतें अंतिम रूप से अपना फ़ैसला न सुना दें। क्या हम भारतीय नागरिकों और उनके हितों के रक्षक पहुरुओं में इतनी सामान्य सी समझ जल्दी ही लौटने की उम्मीद करें, या फिर मान लें कि हम एक अराजक, अनैतिक, कानूनविहीन, असभ्य समाज में तब्दील होने के लिये बैचेन हो रहे हैं?