हमारे समाज को आखिर ये हुआ क्‍या है?

राकेश अचल

विसंगति है या विडम्‍बना कि पूरा देश विस्मृति का शिकार हो रहा है और सत्ता प्रतिष्ठान, अपराधी, माफिया इसका लाभ लेकर न केवल सुर्ख़ियों में बने हुए हैं, अपितु मूल मुद्दों पर राख डालने का काम भी कर रहे हैं। विश्वव्यापी कोरोना महामारी का भय भी हमारे बीच से निकल गया है लेकिन मौतें लगातार बढ़ रहीं हैं, अब सरकार के लिए भी कोरोना का मुकाबला प्राथमिकता नहीं रह गया है।

दुनिया ने जिस अकल्पनीय महामारी के चलते पिछले आठ महीनों में 828, 887 लोगों को गंवा दिया, 24, 323, 081 लोगों को अस्पताल पहुंचा दिया उसे भारत भूलने लगा है। अब न कोरोना की जांच को लेकर फ़िक्र है और न पीड़ितों के इलाज को लेकर। जो मरता है मर जाये और जो बचता है सो बच जाए। भारत में इस समय 60, 629  लोग कोरोना से अपनी जान गंवा चुके हैं, 3, 307, 749 लोग संक्रमित हैं और सीमित जांच के चलते भी रोजाना साठ से पैंसठ हजार लोग संक्रमण का शिकार हो रहे हैं, लेकिन देश में सुर्खियां हैं सुशांत की मौत की सीबीआई जांच, दाऊद की गर्लफ्रेंड, नीट और जेईई की परीक्षा तथा कांग्रेस का आंतरिक संकट। बीच में प्रधानमंत्री जी का मयूर प्रेम भी सुर्खी बना लेकिन ज्यादा टिक नहीं पाया।

भारतीय जनमानस के स्मृति दोष का ही नतीजा है कि सरकार बेफिक्र है। सरकार को पता है कि जनता का असंतोष अब उसके लिए कोई चुनौती नहीं है और प्रतिकारहीन समाज कोई चुनौती नहीं होता, उसे आसानी से रोज नए झुनझुने देकर भरमाया जा सकता है। जनता दो वक्त की रोटी के फेर से बाहर नहीं आ पा रही है। बेरोजगार किसी तरह ज़िंदा बने रहने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, वे सरकार के खिलाफ खड़े होने के बारे में सोच भी नहीं पा रहे और ये स्थिति सरकार के लिए बहुत निरापद है। सरकार ने राष्ट्रवाद का छाता पहले से तान रखा है जो छुटपुट प्रतिरोध के छींटों से उसे बचा ही लेता है।

आज किसी के पास इस बात का उत्‍तर नहीं है कि भारत का मीडिया किस इरादे से सुशांत की आत्महत्या के पीछे हाथ धोकर पड़ा है? अब मामले की जांच सीबीआई को करना है, उसे जांच करने देना चाहिए, क्यों मीडिया समानांतर जांच कर जनता को कुछ और नहीं सोचने दे रहा? तय है कि इसके पीछे एक साजिश है और घृणित साजिश है। सुशांत के बाद दाऊद बीच में कौन ले आया? दुनिया को पता है कि दाऊद पाकिस्तान में है, इसलिए अब इसमें नया क्या है जो भारतीय जनमानस को परोसा जा रहा है?

कांग्रेस के आंतरिक संकट से मीडिया को क्या लेना-देना भाई? जनता के मुद्दे कहाँ हैं, कोई उन पर बात क्यों नहीं करना चाहता? आखिर जनता को भरमाने की कार्यसूची कहाँ से तय हो रही है? क्यों नहीं इसका राजफाश हो पा रहा, क्योंकि जिन्हें ये काम करना है वे पहले से ही साजिशों में शामिल हो चुके हैं। अनलॉक के हर नए चरण में कुछ-कुछ ढील देकर जनता के सब्र का इम्तिहान लिया जा रहा है। अरे भाई जनता इम्तिहान में फेल हो चुकी है। आपने उसे इम्तिहान में बैठने लायक छोड़ा ही नहीं है, जनता यथास्थिति की शिकार है।

जनता लगातार खराब हो रही अपनी आर्थिक स्थिति से परेशान है, उसे घर का चूल्हा जलाने के अलावा अब कुछ सूझ ही नहीं रहा। इस धुंधलके में आप जो चाहे सो कीजिये, जो बेचना है बेच दीजिये, जो हारना है हार जाइये, जो निर्णय करना/कराना है करा लीजिये,  किसी के पास इनकी ओर देखने की फुरसत नहीं है। ऐसी स्थितियां बनाने में माहिर लोग खुश हैं। प्रतिरोधविहीन राज किसे अच्छा नहीं लगता?

जिस देश में देश का प्रधान मीडिया से बात न करता हो, केवल एकतरफा संवाद जिसकी ताकत या कमजोरी हो उस देश में आप किसी शुभ की कल्पना कैसे कर सकते हैं! भारत से कहीं ज्यादा महामारी का शिकार अमेरिका इस मामले में बेहतर है। वहां का राष्ट्रपति कम से कम आये दिन मीडिया के सामने उत्तर देने के लिए खड़ा तो होता है, यहां तो मन की बात हो तो रेडियो है और राष्ट्र के नाम सम्बोधन करना है तो टीवी चैनल हैं, बाकी सारे चैनल यानि दरवाजे बंद कर दिए गए हैं।

आपको लगता होगा कि मैं लगातार राष्ट्रद्रोही बातें क्यों करता हूँ, मैं राष्ट्रद्रोही या प्र्धानमंत्रीद्रोही बातें नहीं करता। मैं भी राष्ट्र के प्रति उतना ही संवेदनशील हूँ जितना कोई और, लेकिन मेरी चिंता में प्रतिपक्ष और जनता का वो मौन है जो लोकतंत्र के लिए घातक है। लोकतंत्र में सबका साथ और सबका विकास आवश्यक है लेकिन प्रतिकार और असहमति भी उतनी ही आवश्यक है जितना कि भोजन में नमक। लेकिन आप तो सब कुछ अरोना करने पर आमादा हैं। बहुमत के जनादेश का ऐसा इस्तेमाल देश में शायद पहली बार हो रहा है।

देश में ‘आपातकाल’ थोप कर खलनायिका बनीं या बनाई गयीं श्रीमती इंदिरा गांधी के कार्यकाल में भी इतनी अराजक स्थितियां नहीं थी, कांग्रेस की उस कथित रूप से नाकारा सरकार ने भी न देश के नवरत्न संस्थानों को बाजार के हवाले कर दिया था और न रेल तथा हवाई अड्डों को निजी हाथों में सौंपने का पाप किया था। हमारी लोकप्रिय सरकार आज जनता का अपना कुछ रखना ही नहीं चाहती। आखिर जनता किस सेवा को, किस संस्थान को अपनी सम्पत्ति समझे? आप तो बारी-बारी से सब कुछ अडानी-अम्बानी को सौंपते जा रहे हैं। ऐसा तब होता है जब सरकार के डीएनए में व्यापार बस जाता है और लोक कल्याण तिरोहित हो जाता है।

देश की दशा सुधारने के लिए विदेशी निवेश हो या निजीकरण, मैं इनके खिलाफ नहीं हूँ और अगर हूँ भी तो इससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन जिस अंधाधुंध तरीके से जनता के लिए सहज सुलभ सेवाओं को महंगा और दुर्लभ बनाया जा रहा है वो चिंता का विषय है। जिस देश में लोगों के पास रेल किराये के रूप में टिकिट के लिए 50 रुपये न हों उस देश में प्लेटफार्म टिकिट यदि 50 रुपये का होगा तो उस देश की आधी से ज्यादा आबादी तो प्लेटफार्म की तरफ झाँक भी नहीं पाएगी और शायद यही सरकार का इरादा है।

लोक कल्याण के लिए देश में बीते 60 साल में जितनी सेवाएं शुरू की गयी थीं उन पर चुन-चुनकर निजीकरण का आवरण लटकाया जा रहा है। ऐसे में क्या आपको नहीं लगता की ये सरकार आम जनता की नहीं बल्कि कारोबारियों की सरकार है! आवागमन की सेवाएं सीमित करने या कहिये छीन लेने से जनता का मेल-मिलाप, पर्यटन, धर्म यात्रायें सब ठप्प हैं, इससे देश में परोक्ष रूप से बेरोजगारी के साथ अवसाद भी बढ़ रहा है।

जनता मुफ्त की रेल यात्राएं तो छोड़िये अपने पैसे से भी कहीं आ-जा नहीं पा रही है। होटल, पर्यटन उद्योग समाप्त हो चुका है। शिक्षा जगत में हाहाकार मचा हुआ है, सिनेमा जगत भी कमोबेश ठप्प ही है, न नई फ़िल्में बन रही है और न सिनेमाघर खुल रहे हैं। सड़क परिवहन की दशा चिंताजनक है। लेकिन हमारी प्राथमिकता सुशांत है, दाऊद है, अवमानना है मयूर सेवा है। ठीक है। आप मौन व्रत रखिये लेकिन मैं अपना काम अपने ढंग से और मुस्तैदी से कर रहा हूँ। मुर्गा हूँ सो मुझे तो रोज बांग देना ही है।

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