अजय बोकिल
मीडिया ट्रायल तो हमने सुना था, लेकिन समानांतर मीडिया इनवेस्टिगेशन का यह नया दौर है। पहले भी इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म (खोजी पत्रकारिता) होता था। लेकिन उसकी भी एक मर्यादा थी। क्योंकि पत्रकार खुद को ‘सीबीआई’ मानने से बचते थे। कोशिश रहती थी कि खोजी पत्रकारिता केवल तथ्यों पर केन्द्रित रहे। लेकिन सुशांत सिंह राजपूत संदिग्ध मौत प्रकरण में जिस तरह हम टीवी चैनलों की चौतरफा और चौबीसों घंटे की नॉन स्टॉप ‘जांच’ देख रहे हैं, उससे जहन में यही सवाल उठ रहा है कि आखिर ये चैनल लोक जिज्ञासा तृप्त करने का काम कर रहे हैं या फिर किसी के मोहरे बन रहे हैं? ये सिद्ध क्या करना चाहते हैं? क्या अधिकृत जांच एजेंसियों पर ताले डाल दिए जाएं या फिर टीवी चैनलों को ही सीबीआई घोषित कर दिया जाए?
ऐसा लगता है कि टीवी चैनलों द्वारा सरकारी प्रचार तंत्र के हर छूटे हुए सिरे को विजय पताका की माफिक लहराने का जज्बा ही मानो काफी नहीं था। ‘सबसे बड़ी कवरेज’ के नाम पर बीते दो माह से अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत की रहस्य कथा का ‘असमाप्त सस्पेंस ऑपेरा’ देखने पर देश विवश है। यूं कोरोना प्रकोप के अलावा भी दुनिया में आज बहुत कुछ हो रहा है। मसलन अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव को लेकर जारी सियासत, चीन की वैश्विक दबंगई, सऊदी अरब और रूस के बीच बढ़ती तेल प्रतिद्वंद्विता, बेलारूस में चुनावी धांधली को लेकर वहां की जनता का राष्ट्रपति के खिलाफ सड़कों पर उतरना, अफ्रीका के माली में सैन्य विद्रोह, खाड़ी देशों की खस्ता माली हालत, पूरी दुनिया में तानाशाही मानसिकता के नेताओं का बजता डंका, इजराइल-यूएई रिश्तों से बौखलाया इस्लामिक जगत जैसी कई बातें हैं, जिनकी पूरी दुनिया में चर्चा है।
भारत की ही बात करें तो चीन की हर स्तर पर दादागिरी और हमारी बढ़ती मुश्किलें, देश की चिंताजनक माली हालत, रोजगार का संकट, कोरोना काल में भी उफनती राजनीति, भारी बारिश के चलते कई जगह बाढ़ के हालात आदि अनेक मुद्दे हैं, जिनको लेकर जनमानस में व्यापक चिंताएं हैं या होनी चाहिए। लेकिन ज्यादातर टीवी चैनलों पर ये सब बातें सिरे से नदारद हैं।
इन टीवी न्यूज चैनलों पर जो ‘राष्ट्रीय मुद्दे’ उठाए जा रहे हैं, जरा उन पर भी नजर डालें। मसलन- आखिर सुशांत की मौत का सच क्या है? (सीएनए न्यूज 18), (सुशांत की) हत्या के बाद मामले को दबाया गया? (टाइम्स नाउ) क्या सुशांत की मौत सामान्य थी? (रिपब्लिक टीवी), रिया चक्रवर्ती को पैसा कहां से मिला? (इंडिया टीवी), रिया की मशीनरी के पीछे कौन है? (रिपब्लिक टीवी), रिया और सुशांत राजपूत यूरोप छुट्टियां मनाने गए थे, फिर क्या हुआ? (इंडिया टीवी), रिया और सुशांत से जुड़े हजारों सवाल (न्यूज नेशन), (बड़ा खुलासा) सुशांत के कान में रिया ने कहा- सॉरी बाबू (आज तक), कत्ल के मोहरों का स्कैनर, रिया का नंबर कब? (इंडिया टीवी), 3 बयानों में छिपा सुशांत की हत्या का सच (रिपब्लिक भारत), सुशांत के घर में सुराग (टीवी 9), 2 दिन, 9 घंटे और सुशांत केस का सच (एबीपी न्यूज) वगैरा।
तात्पर्य यह कि सुशांत से जुड़ा ऐसा कौन-सा रहस्य है, जो बीते दिनों में हमें नहीं बताया गया। बाकी रहा तो सिर्फ इतना कि मौत के बाद इंसान जिस भी दुनिया में जाता हो, वहां से किसी ‘लाइव कवरेज’ का दुस्साहस नहीं किया गया। वरना दिवंगत व्यक्ति की आत्मा से भी कोई ‘एक्स्लूसिव इंटरव्यू’ हमें दिखाया जा सकता था।
अब सवाल ये कि ये टीवी न्यूज चैनल ऐसा क्यों करते हैं? इन चैनलों को हम अपना पैसा देकर देखते हैं, लेकिन चैनल वही दिखाते हैं, जो वो दिखाना चाहते हैं? ऐसा क्यों? क्या वो हमारे मानस और चाहत को हमसे ज्यादा समझते हैं या उन्होंने हमारा मानस बनाने का ठेका भी अनाधिकारिक रूप से ले लिया है? या फिर बाजार की मांग ही ऐसी है?
इन सवालों का पहला जवाब तो वो बाजार ही है, जिसकी अंधी दौड़ में आज हर चैनल शामिल है। खलबली मचाने वाली खबर यह है कि महज डेढ़ साल पहले लांच हुए हिंदी टीवी चैनल ‘रिपब्लिक भारत’ ने टीआरपी रेटिंग में ‘आज तक’ समेत तमाम हिंदी न्यूज चैनलों को पीछे छोड़ दिया है। ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च कौंसिल (बार्क) की इस साल की 32 वीं (8 से 14 अगस्त 2020) की रिपोर्ट में साप्ताहिक जीटीवीटी (ग्राउंड ट्रुथ वेरीफिकेशन टूल) का जो डाटा आया है, उसके मुताबिक ‘रिपब्लिक भारत’ देश में सबसे ज्यादा देखा जाने वाला हिंदी चैनल बन गया है।
इस जीटीवीटी रिपोर्ट में प्रति हजार साप्ताहिक इम्प्रेशन तथा न्यूज चैनल की मार्केट हिस्सेदारी का प्रतिशत दर्शाया जाता है। रिपोर्ट के अनुसार दर्शकों की संख्या में भारी वृद्धि के कारण रिपब्लिक टीवी का मार्केट शेयर बढ़कर 14.38 फीसदी हो गया है, जो ‘आज तक’ के 13.89 प्रतिशत से कहीं ज्यादा है। तीसरे नंबर पर टीवी 9 है, जिसकी मार्केट हिस्सेदारी 11.8 प्रतिशत है। जबकि 8 अन्य टीवी न्यूज चैनलों की रेटिंग एक अंक में ही है। ये पहले तीन टीवी न्यूज चैनल मोटे तौर पर सत्ता के अनुकूल माने जाते हैं बल्कि कई बार हरकारे की भूमिका अदा करते भी लगते हैं। हालांकि विशिष्ट अवसरों पर ‘आज तक’ का कवरेज काफी व्यापक होता है। अलबत्ता जो चैनल प्रतिपक्ष की भूमिका में माने जाते हैं, उनकी व्यूअरशिप बाजार की भाषा में बहुत कम है। रिपब्लिक भारत का दावा है कि जिस मामले में बाकी चैनल हजार सवाल करते हैं, ( उन्हें धूल चटाने) हमारे 6 सवाल ही काफी हैं।
यहां असल मुद्दा यह है कि दर्शक ऐसे चैनल ही क्यों देखना ज्यादा पसंद करते हैं? क्या सचमुच ऐसा होता है या टीवी रेटिंग भी में भी फर्जीवाड़ा है? जो भी हो, टीवी और विज्ञापन जगत में यही मान्य है और इसी आधार पर उन्हें विज्ञापन मिलते हैं तथा विज्ञापन की दरें भी तय होती हैं। ‘रिपब्लिक भारत’ के आगे निकलने की वजह शाम 6 बजे की प्राइम टाइम बहस है। जिसमें ‘राष्ट्र सर्वोपरि’ सिद्धांत के तहत चैनल के प्रधान संपादक और विवादित पत्रकार अर्णब गोस्वामी ‘पूछता है भारत’ कार्यक्रम की एंकरिंग करते हैं। जिसमें कई बार उनके सवाल भारत सरकार के एटॉर्नी जनरल को भी पीछे छोड़ने वाले होते हैं।
इसी तरह आज तक के ‘दंगल’ आदि बहसों में एंकर इस बात की पूरी सावधानी बरतते दिखते हैं कि चर्चा जितनी ज्यादा बदतमीजी भरी हो, उतना सोने पे सुहागा। अर्थात जितनी गाली-गलौज होगी, उतने ज्यादा दर्शक होंगे। जितने ज्यादा दर्शक होंगे, चैनल की टीआरपी बढ़ेगी। जितनी टीआरपी बढ़ेगी, उतनी विज्ञापन से कमाई बढ़ेगी और जितने दर्शक होंगे, उतना ही सरकार भी पीठ पर हाथ रखेगी।
यह बताना गैर जरूरी है कि सुशांत सिंह राजपूत की संदिग्ध मौत (आत्महत्या या हत्या) का एक-एक डिटेल बताने के पीछे क्या मजबूरी है? चैनलों के जासूसनुमा रिपोर्टरों ने इस मामले में न जाने किस-किस को खोज निकाला और किसी का दो लाइन का बयान भी इस तरह पेश किया मानो अदालत उसी के आधार पर फैसला देगी या फिर उसे ऐसा ही करना चाहिए।
बहरहाल इस बहुचर्चित मामले में सीबीआई ने अपनी जांच शुरू कर दी है, लेकिन यहां भी चैनलों ने हेड लाइट का या बैक ग्राउंड लाइट का जिम्मा खुद ओढ़ लिया है। मसलन सीबीआई टीम किस सीढ़ी से चढ़ी और किस जीने से उतरी से लेकर कौन कब खांसा तक की डिटेल आपको देखनी ही पड़ेगी। आपके पास विकल्प सीमित हैं। हो सकता है कि आप एक चैनल पर केस की ‘किचन रिपोर्ट’ से बचकर दूसरे चैनल पर जाएं तो वह केस की ‘बाथरूम रिपोर्ट’ आपको दिखा रहा हो।
सतही तौर पर कह सकते हैं कि टीवी न्यूज चैनल क्या और क्यों दिखाते हैं, ये वो ही जानें। सरकार या जनता इसमें क्या कर सकती है? लेकिन इस बेतार का दूसरा सिरा वहां खुलता है, जहां अदृश्य रूप से यह भी तय होने लगा है कि न्यूज चैनलों को किस खबर पर ‘खेलना’ चाहिए। इसमें नफा यह है कि देश का मानस ऐसी ही बातों में उलझा रहे और असली मुद्दों का प्रश्न पत्र आउट न हो। दूसरी चिंताजनक बात यह है कि क्या समाज भी अब ऐसी रिपोर्ट और कवरेज देखना ज्यादा पसंद करता है? क्या हमने ‘न्यूज चैनलों’ को भी ‘मनोरंजन चैनलों’ की तरह लेना शुरू कर दिया है?
अगर ऐसा ही है तो फिर शिकायत किस बात की। ध्यान रहे कि सुशांत प्रकरण में चैनल ‘टीआरपी’ के अलावा ‘पीआरपी’ (पॉलिटिकल रेटिंग पाइंट) का छुपा खेल भी खेल रहे हैं। ऐसा खेल जिसका राजनीतिक राजस्व किसी खास पार्टी के खाते में ही जमा होता है। सुशांत प्रकरण में भी असली टारगेट तो ठाकरे सरकार है न कि रिया चक्रवर्ती। इस हिसाब से टीवी चैनलों की जांच रिपोर्ट सीबीआई से दस कदम आगे चलती है। इतना तो मानना पड़ेगा।