पुण्यतिथि पर विशेष
डॉ. अजय खेमरिया
एक महान सन्यासी जिसने वनवासियों के लिए सुरक्षा, संस्कृति औऱ समृद्धि के द्वार खोलकर सनातन जीवनशैली की दुंदुभी बजाई। जिसके निस्वार्थ व्यक्तित्व और कृतित्व की आभा ने वैश्विक ईसाई मिशन को उड़ीसा में बेनकाब किया ऐसे सामर्थ्यवान परिव्राजक स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की पुण्यतिथि पर आज भी कुछ सवाल भारत की सनातन संस्कृति के आगे चुनौती के रूप में खड़े है। स्वामी लक्ष्मणानंद जी सरस्वती की बर्बर हत्या 23 अगस्त 2008 को वामपंथी माओवादियों ने ईसाई मिशनरी के इशारों पर की थी। आज का दिन हमें स्वामी जी के अनथक संघर्ष और उनके विभूतिकल्प कृतित्व की याद तो दिलाता ही है। साथ में उस विमर्श को भी केंद्र में लाने के लिए बाध्य करता है जिसकी पुनरावृत्ति ‘पालघर में साधुओं की हत्या’ जैसे घटनाक्रमों के जरिये यत्र तत्र देश भर में होती रहती है।
स्वामी लक्ष्मणानन्द जी ने 40 साल तक उड़ीसा के वनवासियों के मध्य रहकर ईसाई धर्मांतरण के कुचक्र को तोड़ने का अद्म्य पुरुषार्थ दिखाया था। करीब 200 साल पहले शुरू हुआ उड़ीसा के वनवासियों को ईसाई बनाकर भारत के विरुद्ध खड़े करने का काम आज भी अनवरत जारी है।
स्वामीजी का जन्म ओडिसा के वनवासी बहुल फ़ूलबाणी (कन्धमाल) जिले के गुरुजंग गांव में 1924 को हुआ था। गृहस्थ होकर भी उनका मन मस्तिष्क अपने वनवासियों की दीन हीन दशा से उद्वेलित रहता था। वे गृहस्थी से दूर हिमालय की शरण में गए और वहां से लौटकर 1965 में गौ आंदोलन के जरिये वनवासियों के लोकजीवन में समर्पित हो गए। फ़ूलबानी के चकापाद गांव में अपना आश्रम बनाकर उन्होंने पूरे कन्धमाल क्षेत्र में सेवा के प्रकल्प खड़े किए। कन्ध वनवासियों के चलते इस जिले को बाद में अलग से कन्धमाल नाम मिला जो अब ओडिशा का स्वतंत्र जिला है।
इस पूरे इलाके में ईसाई मिशनरीज पहले से ही धर्मांतरण के काम में सक्रिय थे। स्वामी जी को यह कुचक्र समझ आ गया था कि ईसाई मिशनरियों के निशाने पर वनवासियों के जरिये भारत की सनातन संस्कृति है। गरीबी एवं अज्ञानता के चलते ओडीसा के वनवासी सबसे आसान टारगेट हैं। 1970 तक इस इलाके में ईसाइयत ने सुदूर वनांचल में अपनी जड़ें जमा ली थी। स्वामी सरस्वती के चकापाद आश्रम के जरिये संचालित सेवा कार्यो से ईसाई मिशनरियों को खतरा लगने लगा क्योंकि स्वामी जी ने हिन्दू मतानुसार वनवासियों के बीच उस दुष्प्रचार को खण्डित करना आरम्भ किया जिसकी बुनियाद पर धर्मांतरण की फसल खड़ी की जा रही थी।
गांव गांव यज्ञ अनुष्ठान, भागवतवाचन, जगन्नाथ पूजा के जरिये हिंदुत्व के प्रति वनवासियों में एक अपनेपन का भाव प्रस्फुटित हुआ। सभी जातिबन्धन तोड़कर स्वामी जी ने सनातन संस्कृति की मौलिकता के साथ कन्ध औऱ दूसरी वनवासी बिरादरियों को समेकित किया। नतीजतन 26 जनवरी 1979 को स्वामी सरस्वती पर ईसाई मिशनरी के लोगों ने प्राणघातक हमला किया। वर्ष 2007 तक ऐसे आठ जानलेवा हमलों का सामना करने वाले स्वामी सरस्वती ने शिक्षा और ग्राम्य विकास पर भी वनवासियों के मध्य अद्भुत काम किया। उन्होंने कन्ध समाज को खेती की तरफ उन्मुख किया, बालिकाओं की शिक्षा, स्वास्थ्य और ग्राम्य सद्भाव को वनवासियों के जीवन का अंग बनाया।
यह सब कार्य सनातन संस्कृति के धरातल पर किया जा रहा था। वहीं मिशनरीज लालच औऱ माओवादी आतंक के बल पर इस समाज को धर्मान्तरित करने में जुटा था। 23 अगस्त 2008 को जन्माष्टमी के दिन स्वामी सरस्वती की उनके चार साथियों सहित माओवादी ईसाई हमलावरों ने बर्बरतापूर्वक हत्या कर दी थी। इस हमले को अंजाम देने वाला सब्यसाची पांडा भाकपा (माओवादी) का राज्य सचिव रहा है। उसने 5 अक्टूबर 2008 को द हिन्दू में छपे अपने इंटरव्यू में साफ कहा था कि स्वामी सरस्वती को ईसाई विरोधी गतिविधियों की सजा दी गई है। 2014 तक पांडा फरार रहा। बाद में 7 लोगों को इस हत्याकांड में सजा सुनाई गई। स्वामी सरस्वती की हत्या के बाद पूरे इलाके में भयंकर हिंसा हुई लेकिन ओडीसा सरकार ने बेहद ही पक्षपात करते हुए हिंदुओं को ही अपराधी साबित करने का प्रयास किया।
भारी जन दबाव के बाद सरकार ने जस्टिस शरतचन्द्र महापात्रा आयोग बनाया लेकिन 2012 में उनका निधन हो गया। जस्टिस ए.एस. नायडू की अध्यक्षता में बनाये गए जांच आयोग ने भी 2015 में इस हत्याकांड की रिपोर्ट ओडीसा सरकार को सौंप दी लेकिन यह आज तक सार्वजनिक नही की गई है। 1025 पेज की इस जांच रपट में 825 हलफनामे हैं लेकिन ईसाई लॉबी के दबाव में ओडीसा सरकार इसे दबाकर बैठी है। इस जांच से जुड़े एक आईएएस अफसर (जो अब रिटायर हैं) के अनुसार कन्धमाल में हुई हिंसा के बाद सरकार पर दिल्ली के अलावा यूरोपीय लॉबी का दबाव भी था। एक यूरोपियन प्रतिनिधि मंडल के दौरे पर सरकार की पूरी मशीनरी अर्दली में लगा दी गई थी।
एक राष्ट्रीय अखबार की रिपोर्ट में जांच आयोग के हवाले से लिखा गया कि ओडीसा में 50 वर्षों में ईसाई आबादी 478 प्रतिशत बढ़ी वहीं हिन्दू 130 फीसदी। अकेले कन्धमाल में 1200 गिरिजाघर हैं,125 लोगों पर एक चर्च बनाया गया है। 300 ईसाई बेस्ड एनजीओ भी यहां सक्रिय है। धर्मांतरण के संग सबसे खतरनाक गठजोड़ माओवाद का है जिसे लेकर किसी स्तर पर कोई संशय नहीं है। जो अन्तोगत्वा भारत की एकता अखण्डता के लिए आज भी एक चुनौती है।
पालघर में जिन साधुओं की हत्या की गई वह भी इसी गठजोड़ का नतीजा है। काबिलेगौर पहलू यह है कि देश विरोधी इस नेक्सस को वामपंथी विचारकों का खुला समर्थन आज भी कायम है। हिन्दू, टेलीग्राफ, टाइम्स ऑफ इंडिया, बीबीसी औऱ एनडीटीवी जैसे मीडिया हॉउस इन घटनाओं को सांप्रदायिक नजरिये से प्रतिस्थापित करने में लगे रहते है। स्वामी सरस्वती की हत्या के बाद बाकायदा ऐसी रिपोर्ट प्रकाशित की गई जिनमें कन्धमाल की घटनाओं को ईसाई अल्पसंख्यक दमन के साथ जोड़ा गया। कटक आर्कबिशप ने तो जॉन दयाल जैसे लोगों के जरिये 200 ईसाईयों की हत्या का आरोप लगाया जबकि वहाँ के कलेक्टर ने इस लिस्ट को 70 फीसदी फर्जी करार दिया। दिल्ली में बुद्धिजीवियों के बड़े वर्ग ने सातों हत्यारों के पक्ष में विधिवत अभियान चलाकर न्यायालय को भी गलत साबित करने का प्रयास किया है।
स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या वैश्विक ईसाई षड़यंत्र का ख़ौफ़नाक अध्याय है लेकिन 12 साल बाद भी इस महान सन्यासी की हत्या का राज आज भी सरकार दबाये बैठी है। नतीजतन पालघर जैसी घटनाओं को माओवादी ईसाई गठजोड़ बेख़ौफ़ होकर अंजाम दे रहा है। स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती जी के बलिदान के बावजूद देश भर में वनवासियों को लालच औऱ माओवाद के दम पर भारत के विरुद्ध खड़ा करने का दुष्कर्म वृहद पैमाने पर जारी है।