राकेश दीवान
तीस-बत्तीस साल के आजादी के आंदोलन से भी दो-तीन साल बडे, 35 साल के ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ (नबआं) की कथा असल में आजादी के आंदोलन की तरह 1985 के कई साल पहले शुरु हो गई थी। ‘नबआं’ की नेत्री मेधा पाटकर ने भी याद किया है कि आंदोलन की शुरुआत में उन्हें नदी-तट के वे आदिवासी मिले थे जो भले ही घंटों चलने वाली बैठकों में शामिल होने से कतराते हों, लेकिन प्राकृतिक संसाधनों से अपने रिश्तों, उनके संरक्षण की विधियों और उन पर गुमान करना जानते थे।
उन दिनों के नवागाम बांध और आज के ‘सरदार सरोवर’ की मुखालिफत निमाड़-मालवा के उस भरे-पूरे किसान-आदिवासी समाज में हुई थी जो औरों की तरह भांति-भांति की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक बुराइयों में फंसा होने के बावजूद अपनी नर्मदा या ‘मोटली माई’ को ठीक जानता-पहचानता और मानता था।
टाटा कंपनी के मूलशी बांध के विरोध में अपनी जान देने वाले पिछली सदी के सेनापति बापट जैसे देश भर के बांध, विस्थापन विरोधियों और उनके आंदोलनों के अलावा सत्तर के दशक में (1976-77) मध्यप्रदेश में नर्मदा की सहायक नदी तवा पर ताने जाने वाले बांध के ‘लाभ-क्षेत्र’ उर्फ ‘कमांड एरिया’ की समस्याओं को लेकर ‘मिट्टी बचाओ अभियान’ सक्रिय रहा था।
गांधी के सेवाग्राम में ‘नई तालीम विद्यालय’ के प्राचार्य रहे बनवारीलाल चौधरी शुरु से ही विशालता के मोह से बचते थे और जब खुद उन्हीं के होशंगाबाद इलाके में भारी-भरकम ‘तवा आयाकट विकास परियोजना’ ने आकार लेना शुरु किया तो उन्होंने अपने मित्रों, स्नेहियों और युवा शिष्यों को लेकर ‘मिट्टी बचाओ अभियान’ शुरु कर दिया। आंदोलन की बजाए ‘अभियान’ इसलिए क्योंकि चौधरी जी और उनके मित्रों को भरोसा था कि सरकार उनकी बात सुनेगी और जरूरी लगा तो सुधार भी कर देगी।
लेकिन ऐसा न तो कभी होना था और न हुआ। सरकार ने अपनी जिद में ‘तवा आयाकट परियोजना’ बनाई और तब तक ‘हरित क्रांति’ की चपेट में आ चुके होशंगाबाद और आज के हरदा जिले को भरपूर सिंचाई, विपुल उत्पादन और बाढ-नियंत्रण का कथित लाभ पहुंचा दिया।
सहज सवाल था कि क्या ‘काली कपासी’ मिट्टी के उस इलाके में ‘अनियंत्रित’ यानि नहरों से सिंचाई की जरूरत भी थी जहां पहले ही हाथ से गड्ढे खोदकर फसलों को पानी पिलाया जाता था? या जिस इलाके में 1917-18 के ‘ब्रिटिश एग्रीकल्चर कमीशन’ ने नहरों की सिंचाई की सख्त नामंजूरी की थी? विकास की हडबडी में ऐसे सवाल दो कौड़ी के रह जाते हैं और तवा में भी यही हुआ।
जर्मनी के एक बैंक से कर्जा लेकर जो बहुउद्देश्यीय (आयाकट का यही मतलब है) परियोजना खड़ी की गई उसने एक तरफ तो ‘लाभ-क्षेत्र’ को लगभग बे-पानी कर दिया और दूसरे, बांध की चपेट में आने वाले ‘डूब-क्षेत्र’ के आदिवासी-किसानों को दर-दर की तफरीह करा दी। नर्मदा घाटी के बाद में बने बांधों के विस्थापितों से बढ़-चढ़कर दावे करने वाली सरकारों से यही पूछा जाता रहा है कि तीस बड़े बांधों की श्रंखला के पहले, तवा बांध के विस्थापितों का क्या हुआ?
लगभग चार दशकों बाद तवा को लेकर दिखाए गए सपने अब अंतिम सांसें गिन रहे हैं। उन दिनों कहा जाता था कि तवा के बाद अव्वल तो पानी की कोई मारा-मार नहीं होगी, दूसरे नर्मदा और उसकी सहायक नदियों में बाढ़ को नियंत्रित किया जा सकेगा और तीसरे, संभव हुआ तो बिजली भी बना ली जाएगी। आज की तारीख में इनमें से कोई मंसूबे पूरे होते नहीं दिखते।
‘सरदार सरोवर’ के प्रभावितों-विस्थापितों को पैंतीस साल पहले पुनर्वास के जो रंगीन सपने दिखाए गए थे, ठीक उसी तर्ज पर चालीस-पैंतालीस साल पहले तवा के विस्थापितों को भी ललचाया गया था। विस्थापन के नाम पर बेदखल करने, खदेड़ने की अफरा-तफरी के दौरान, करीब दस साल बाद समाजवादी सुनील-राजनारायण की जोडी ने ‘किसान आदिवासी संगठन’ खडा करके तवा के विस्थापन-पुनर्वास का सवाल उठाया था।
इस संगठन की लडाई का ही नतीजा था कि विस्थापित मछुआरों ने ‘तवा मत्स्य संघ’ बनाकर तवा जलाशय में मछली पकडने, बेचने के अधिकार हासिल किए थे और कुछ साल उसे सफलतापूर्वक चलाया भी था। बाद में भ्रष्ट सरकारी और राजनीतिक तंत्र ने नदी-घाटी परियोजनाओं के विस्थापितों के पुनर्वास के इस बेहतरीन नमूने को वापस लेकर बर्बाद कर दिया।
तवा पर बने बांध के ‘डूब’ और ‘लाभ’ क्षेत्रों के इन संघर्षों की इस पृष्ठभूमि में नर्मदा पर प्रस्तावित बांधों का विरोध शुरु हुआ था। उन दिनों आजादी के आंदोलन में ‘निमाड़ के तीन नाथ’ की तरह ख्यात हुए गांधीवादी काशीनाथ त्रिवेदी, बैजनाथ महोदय, विश्वनाथ खोडे और उनके साथी शंकरलाल जोशी ने निमाड़-मालवा के गांव-गांव में यात्राएं करके लोगों में ‘नवागाम बांध’ के विरोध में अलख जगाई थी।
‘तीन नाथों’ की यह मेहनत रंग लाई और एक तो, अनुपम मिश्र की पहल पर दिल्ली के ‘गांधी शांति प्रतिष्ठान’ ने नर्मदा घाटी को लेकर चार पुस्तिकाएं (नर्मदा-1,2,3,4) प्रकाशित कीं जिनमें नर्मदा घाटी की विशेषताओं का वर्णन और बांधों से होने वाले नुकसानों की चर्चा थी। दूसरे, निमाड़-मालवा के बांध-प्रभावित इलाकों– हरसूद, अंजड, कोटेश्वर(कुक्षी) और इंदौर में चार बड़ी बैठकों की योजना बनाई गई। इन बैठकों में उस जमाने के कई वरिष्ठ पर्यावरणविद्, सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार, बांध-प्रभावित और सरोकार रखने वाले नागरिक शरीक हुए थे।
इस प्रयास ने महाराष्ट्र के चंद्रपुर इलाके में प्रस्तावित ‘ईचमपल्ली’ बांध के प्रभावितों को भी आकर्षित किया और बाबा आमटे की पहल पर उनके ‘आनन्दवन’ आश्रम में राष्ट्रीय स्तर की एक बैठक आयोजित की गई। इसी बैठक में देशभर के सौ गणमान्यों के हस्ताक्षरों वाला प्रसिद्ध ‘स्टेटमेंट ऑफ कंसर्न ऑन डैम्स’ यानि ‘बांधों पर सरोकार का वक्तव्य’ जारी किया गया था।
उधर, दिल्ली के युवा पर्यावरणविदों के संगठन ‘कल्पवृक्ष’ ने आशीष कोठारी की अगुआई में नर्मदा घाटी की यात्रा करके जीव-जन्तुओं, वनस्पतियों आदि का पहला गंभीर अध्ययन किया और उसकी रिपोर्ट जारी की। नर्मदा घाटी में होने वाली इन तमाम हलचलों का असर तो होना ही था। नतीजे में धार जिले के एक छोटे-से गांव टबलई स्थित, गांधी विचार पर आधारित समाजसेवी संस्था के मुखिया प्रभाकर मांडलीक की अध्यक्षता में ‘नर्मदा घाटी नवनिर्माण समिति’ का गठन किया गया।
इस संस्था में डूब प्रभावित क्षेत्र के गांवों के किसान, बड़वानी-कुक्षी-निसरपुर के कई लोगों के साथ बड़वानी के पास के बोरलाय गांव के किसान अम्बाराम मुकाती और निसरपुर कस्बे के बस-मालिक पारसमल कर्नावट शामिल थे। असल में अगस्त 1988 में बांध के पूर्ण विरोध के साथ गठित ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ महाराष्ट्र की ‘नर्मदा धरणग्रस्त समिति,’ गुजरात की ‘नर्मदा असरग्रस्त समिति’ और मध्यप्रदेश की इस ‘नर्मदा घाटी नवनिर्माण समिति’ के साथ अनेक साथियों-समर्थकों को मिलाकर बना था।
किसी क्षेत्र में नागरिक हलचल हो और राजनेता चुप बैठे रहें, यह असंभव है। तो, सत्तर के दशक में, तब के नवागाम और आज के ‘सरदार सरोवर’ बांध को लेकर मध्यप्रदेश की वीरेन्द्र कुमार सकलेचा सरकार का तीखा विरोध किया गया और तब के नेता-प्रतिपक्ष कांग्रेसी अर्जुनसिंह और इंदौर के विधायक सुरेश सेठ ने अगुवाई की।
चूंकि इस आंदोलन की मांग बांध की ऊंचाई घटाकर निमाड़ की जमीन बचाने की थी इसलिए आंदोलन का नाम रखा गया ‘निमाड़ बचाओ आंदोलन।’ इस आंदोलन ने राज्यभर में हलचल मचाई और इंदौर के समाजवादी नेता ओमप्रकाश रावल और पत्रकार जवाहरलाल राठौड़ समेत एक प्रतिनिधिमंडल ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई से असफल भेंटकर उन्हें बांध की ऊंचाई घटाने के लाभ गिनाए।
कई वरिष्ठ नागरिकों, राजनेताओं के अलावा सुरेश सेठ ने हाथी पर बैठकर पार्टी के अपने संगी-साथियों के साथ विधानसभा में जबरन प्रवेश कर बांध का अपना विरोध जताया। इसका असर हुआ और राज्य विधानसभा की ओर से गुजरात सरकार से बांध की ऊंचाई घटाने का आग्रह भी किया गया, लेकिन जैसा होता है, सरकार बदलते ही अर्जुनसिंह की पार्टी बांध के समर्थन में आ गई।
बांध के विरोध में गुजरात, महाराष्ट्र के अलावा मध्यप्रदेश की इस पृष्ठभूमि ने ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ को तेजी से अपना असर फैलाने में मदद की। निमाड़ी-मालवी किसान डूब का डर समझ रहे थे और सरकार ने भी विकास कार्यों से हाथ खींचकर यह जता दिया था। उन दिनों बैंक से कर्जा लेकर नर्मदा के पानी को उद्वहन के जरिए अपने दूर-पास के खेतों तक ले जाने की बडी धूम मची थी, लेकिन बैंकों ने डूब के डर से कर्ज देना बंद कर दिया था।
इलाके में बांध की डूब का और तो कोई अनुभव नहीं था, लेकिन तवा में कुछ साल पहले हुई विस्थापितों की बदहाली की उड़ती-उड़ती खबरों ने लोगों को सशंकित कर दिया था। जाहिर है, ऐसे में एक व्यवस्थित, संगठित आंदोलन जरूरी था और ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ ने ठीक वही किया।