अजय बोकिल
दो खबरें लगभग साथ आईं। पहली, देश में कोरोना काल में अब तक 1.89 करोड़ लोगों की नौकरियां गईं। दूसरी, मध्यप्रदेश में सरकारी नौकरियां केवल मप्रवासियों को ही मिलेंगी। पहली खबर में यह ब्रेक-अप उपलब्ध नहीं है कि एमपी में लॉकडाउन ने कितने लोग घर बैठा दिए, लेकिन उनकी संख्या भी कम नहीं है। दूसरी खबर में मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि वो प्रदेश के युवाओं की बेरोजगारी को लेकर खासे चिंतित हैं। लिहाजा अब जो भी नौकरियां निकलेंगी, वो सब मप्र के निवासियों को ही मिलेंगी।
इस घोषणा को पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ के उस ऐलान का ही एक्सटेंशन समझा गया, जिसमें उन्होंने साल भर पहले प्रदेश के उद्योगों में 70 फीसदी रोजगार मप्र वालों के लिए आरक्षित करने की बात कही थी। तब तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष और अब मंत्री गोपाल भार्गव ने यह कह कर तंज किया था कि पहले राज्य में उद्योग तो आएं। बदले हालात में कांग्रेस भी शिवराज की घोषणा में कुछ वैसा ही तत्व बूझ रही है। ध्यान रहे कि शिवराज की घोषणा के एक हफ्ते पहले, पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह ने भी यही मांग की थी कि मप्र में सरकारी नौकरी उन्हीं लोगों को दी जाए, जिन्होंने 10 वीं या 12 वीं मप्र शिक्षा बोर्ड से पास की है।
यहां समझने की बात यह है कि राजनीतिक मंशा के अलावा मुख्यमंत्री शिवराज की नई घोषणा की व्यावहारिकता कितनी है और क्या यह कानूनन संभव है? दूसरे, क्या अब हम राज्यों में नौकरियों के संपूर्ण (स्थानीयता के आधार पर) आरक्षण की दिशा में बढ़ रहे हैं? तीसरे, जब केन्द्र में मोदी सरकार और भाजपा अन्य कई क्षेत्रों में एकीकरण और केन्द्रीकरण पर जोर दे रहे हैं, तब नौकरियों के मामले में ‘आत्म केन्द्रित’ होना कितना सही है? या फिर यह एक नया चुनावी शोशा है, जो प्रदेश में 27 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव के मद्देनजर छोड़ा गया है और जो चुनाव नतीजों के बाद साबुन के झाग की तरह बैठ जाएगा?
हर सरकार अपने लोगों को ज्यादा से ज्यादा रोजगार दे और इसके लिए जरूरी ढांचा और कानूनी प्रावधान करे, इसमें दो राय नहीं। क्योंकि कोई राज्य सरकार अपने प्रदेश के बेरोजगारों की चिंता नहीं करेगी तो फिर कौन करेगा? जिस माटी में पैदाइश, परवरिश हुई हो, उसी जमीन पर समुचित काम-धंधा भी मिल जाए तो मातृभूमि के प्रति आस्था और अडिग हो जाती है। इस दृष्टि से प्रदेश के मुखिया होने के नाते शिवराज सिंह चौहान द्वारा राज्य की सरकारी नौकरियां भूमि पुत्रों को देने का ऐलान एकदम जायज और एक अहम समस्या के समाधान की अपेक्षित पहल भी है।
पहले बेरोजगारी की बात। देश में नोटबंदी के बाद रियलस्टेट और दो नंबर की नकदी वाले अन्य कई सेक्टरों की बदहाली का दौर शुरू हो चुका था। उसके बाद हालात कुछ सुधरते तभी कोरोना आ गया। लॉकडाउन में सारे काम-धंधे ठप हो गए। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इकानॉमी (सीएमआईई) की ताजा सर्वेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक अकेले जुलाई माह में ही देश में 50 लाख लोगों की नौकरियां गईं। सबसे बुरे हालात अप्रैल-मई में थे। हालांकि मोदी सरकार ने उद्योगों को संभलने के लिए पैकेज भी घोषित किए, लेकिन हालात में ज्यादा फर्क नहीं पडा।
रिपोर्ट का सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि बेरोजगारों की लिस्ट में बड़े पैमाने पर अब वो नाम भी जुड़ गए हैं, जो चार माह पहले तक अपना स्वतंत्र और छोटा-मोटा कारोबार करते थे या फिर उनके पास कोई खास हुनर था, जिसकी फिलहाल कोई मांग नहीं है। ऐसे में बड़ी संख्या में लोग सड़क किनारे सब्जी-भाजी बेचकर अपना पेट पाल रहे हैं। सीएमआईई के एमडी और सीईओ महेश व्यास के अनुसार सर्वेक्षण में सामने आया कि देश में मार्च के मुकाबले अप्रैल में नौकरी पेशा लोगों की संख्या 39.6 करोड़ से घटकर 28.2 करोड़ पर आ गई है।
इन आंकड़ों को उम्र के आधार पर देखें तो इस साल अप्रैल में 20-24 साल के 1.3 करोड़ तथा 25-29 वर्ष के 1.4 करोड़ लोग बेरोजगार हुए हैं। इस दौरान पर्यटन, होटल, मीडिया, मनोरंजन और इंवेट उद्योग की तो कमर ही टूट गई है। आर्थिक एनालिस्ट कैपिटालाइन के मुताबिक देश में रोजगार के अवसर लगातार घट रहे हैं। वर्ष 2013-14 में देश की शीर्ष 171 कंपनियों ने जहां 1.80 करोड़ लोगों को रोजगार दिया, वहीं 2017-18 में यह घटकर 35 लाख रह गया।
इस निराशाजनक माहौल में मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की यह घोषणा कि ‘सबै नौकरी मप्रवालों की’ प्रदेश के बेकार युवाओं को मॉरल बूस्टर की तरह थी। इसलिए भी क्योंकि प्रदेश में बीते दो दशकों में तमाम सरकारी दावों के बाद भी राज्य में बेरोजगारों की संख्या बढ़कर तीस लाख से ज्यादा हो गई है। अव्वल तो सरकारी भर्तियां मुश्किल से निकलती हैं और निकलीं भी तो उन पर चयन और नियुक्ति की प्रक्रिया इतनी लंबी, उलझाऊ तथा कई बार अपारदर्शी होती है कि उसका लाभ-गिने चुनों को और वो भी बहुत देरी से मिल पाता है। एमपीएससी से चयनित कई प्रत्याशी अभी भी नियुक्ति पत्रों की आस में एज बार हो चुके हैं।
बताया जाता है कि प्रदेश के अनेक सरकारी महममों में करीब डेढ़ लाख पद खाली पड़े हैं। इन्हें भरने की जगह आउट सोर्सिंग या संविदा नियुक्ति से काम चलाया जा रहा है। उपलब्ध जानकारी के मुताबिक पुलिस महकमे में 22 हजार, बिजली विभाग में 30 हजार, वन विभाग में 24 हजार, स्वास्थ्य विभाग में 20 हजार, विश्वविद्यालयों में 5 हजार, नगर निगमों में 25 हजार और जिला प्रशासन में करीब 10 हजार समेत और भी कई विभागों में हजारों पद खाली हैं, जिन पर भर्ती का मुहूर्त न जाने कब निकलेगा। हालांकि अभी यह कहा जा रहा है कि सरकार की ताजा घोषणा से मप्र के 15 से 20 लाख बेरोजगार युवाओं को लाभ मिलेगा।
शिवराज सरकार की सदेच्छा को संवैधानिक आईने में देखें तो यदि राज्य सरकार ऐसा कानून बनाती है तो इसका अर्थ प्रदेश की सरकारी नौकरियों में स्थानीयता के आधार पर सौ फीसदी आरक्षण होगा। यह सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले का उल्लंघन होगा, जिसमें कहा गया है कि आरक्षण 50 फीसदी से अधिक नहीं हो सकता। साथ ही यह संविधान में देश के सभी नागरिकों को दिए गए समानता और समान अवसरों के अधिकारों के विपरीत होगा।
मप्र में ओबीसी को 14 से बढ़ाकर 27 फीसदी आरक्षण का मामला पहले ही कोर्ट में उलझा है। कमलनाथ सरकार ने इसे ‘युवा स्वाभिमान योजना’ नाम दिया था, लेकिन जब तक प्रदेश के युवाओं का स्वाभिमान जाग पाता, वो सरकार ही जाती रही। वैसे भी मप्र में वर्तमान में सरकारी नौकरियों में 50 फीसदी आरक्षण लागू है। इनमें अजा के लिए 16, अजजा के लिए 20 तथा पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए 14 प्रतिशत आरक्षण है। ऐसे में स्थानीयता के आधार पर सौ फीसदी आरक्षण का कानून बनते ही कोर्ट में चैलेंज होगा।
हालांकि कुछ अन्य राज्यों ने भी स्थानीयता के आधार पर लोगों के लिए नौकरी आरक्षित करने का काम सीधे या पिछले दरवाजे से किया है। लेकिन उनकी शर्तें घुमा फिरा कर रखी गई हैं। और यदि सभी राज्य अपने यहां स्थानीय लोगों के लिए सारी सरकारी नौकरियां सुरक्षित करने लगे तो ‘एक भारत’ भावना का क्या होगा?
जहां तक मप्र की बात है तो सरकार अपनी घोषणा के मुताबिक प्रदेश के सभी बेरोजगारों को नौकरी देना भी चाहे तो उसकी तिजोरी में तनख्वाह देने लायक पैसे भी नहीं है। अभी तो जो कर्मचारी काम कर रहे हैं, सरकार उन्हें ही वेतनवृद्धि और डीए नहीं दे पा रही। कुछ सरकारी महकमों और निगम-मंडलो में तो वेतन तक बांटने के लाले हैं। दूसरी तरफ अनुभवी सरकारी स्टाफ रिटायर होता जा रहा है।
अब अगर खाली पड़े डेढ़ लाख पदों पर सचमुच और समय पर भर्ती हो भी गई तो उनकी तनख्वाह कैसे बंटेगी? यदि राज्य की माली हालत देखें तो मध्यप्रदेश सरकार पर वर्ष 2019-20 में 2 लाख 10 हजार करोड़ रुपये का कर्ज था। पूर्ववर्ती कमलनाथ सरकार ने 2 हजार करोड़ का कर्ज लिया था और सत्ता में वापसी के बाद शिवराज सरकार भी तीन माह में बाजार से 4 हजार करोड़ रुपये का कर्जा उठा चुकी है।
जमीनी तस्वीर यही बयां करती है कि हर युवा हाथ को काम देने की सरकार की मंशा भले कल्याणकारी हो, हकीकत के सांचे से दूर लगती है। बावजूद इसके संभव है कि सरकार इसके वैधानिक और आर्थिक पक्ष को दरकिनार कर इस निर्णय को लोकहित में और खासकर युवाओं की गंभीर चिंता से कनेक्ट होने के रूप में प्रोजेक्ट करे। क्योंकि जब तक इसकी परतें खुलेंगी, तब तक शायद राज्य में विधानसभा की 27 सीटों के उपचुनाव हो चुके होंगे। इन उपचुनावों के नतीजे इस बात पर भी मोहर लगा देंगे कि शिवराज सरकार की इस अहम घोषणा को मतदाताओं ने कितनी गंभीरता से लिया है। साथ में यह भी कि नतीजों के बाद राजनीतिक दृष्टि से कितनी ‘नौकरियां’ रह पाती हैं।