उन्‍हें क्‍यों जरूरत हो ‘मर्द’ की कलाइयों की

रमेशरंजन त्रिपाठी 

मैं आयुष्मान खुराना को एक कलाकार के रूप में जानता हूं और उनका प्रशंसक भी हूं। मौका पड़ने पर वे अमिताभ बच्चन के सामने भी एक्टिंग के लिए डटकर खड़े हो जाते हैं। (‘गुलाबो सिताबो’ की याद करें।) रक्षाबंधन के अवसर पर आयुष्मान ने सोशल मीडिया में अपनी एक बेहतरीन कविता शेयर की है-

‘एक ऐसा समाज बनाएं जहां
लड़कियों को सुरक्षित
महसूस करने के लिए अपने
भाइयों की जरूरत न हो।
एक रिवायत के तौर पे राखी
बांधने के लिए मर्द की
कलाइयों की जरूरत न हो।’
-आयुष्मान

इस कविता के बाद मेरे मन में आयुष्मान खुराना के लिए सम्मान कई गुना बढ़ गया है। शायद कुछ लोग इन सात लाइनों के दस्तावेज को सच्चे अर्थों में पढ़ना भी पसंद न करें।

जहां नारी को देवी माना जाता है वहां की लड़कियों को सुरक्षित रहने के लिए ‘भाई’ की जरूरत क्यों पड़ती है? प्राचीन रिवाजों के कारण या स्नेह की वजह से? यहां कोई लड़की सचमुच असुरक्षित है या नहीं? दिल पर हाथ रखकर इस सवाल का जवाब पाने की कोशिश करें।

हम सभ्यता की कितनी सीढ़ियां चढ़े हैं, अभी तक? हिसाब लगाते समय माताओं-बहनों के खिलाफ होनेवाले अपराधों की फेहरिस्त को भूलें नहीं। या आज भी हमारा सदियों पुराना दृष्टिदोष कायम है?

हमेशा नारी को अबला और पराधीन क्यों माना जाता है? पुरुष प्रधान समाज की रचना के कारण या आपको कोई अलग वजह नजर आती है? समाज को पुरुष प्रधान किसने बनाया और क्यों? महिलाओं को शारीरिक रूप से कमजोर क्यों माना गया? क्या पुरुष कमजोर और निकम्मे नहीं होते? उन्हें अबल या पराधीन क्यों नहीं कहा जाता?

स्त्री होना ही अबला और पराधीन होने के लिए पर्याप्त क्यों है और पुरुष होना सबल और स्वतंत्र का पर्याय क्यों मान लिया जाता है? एक महिला को बचपन में पिता, फिर भाई और पति की सुरक्षा की दरकार वाला समाज हमने ही तो बनाया है।

विवाह में पुरुष बारात लेकर जाता है और एक स्त्री को विजेता के भाव से गाजे-बाजे के साथ अपने घर लेकर आता है। पुरुष के नाम के साथ हमेशा वल्दियत में पिता का नाम लिखा जाता है, शादी के बाद भी पुरुष की पहचान पत्नी के नाम से नहीं होती किंतु विवाहिता स्त्री का परिचय हमेशा पति के नाम से दिया जाता है, पिता का नाम छूट जाता है।

सामाजिक व्यवस्था के लिए इसकी वकालत करते समय क्या कभी इसके गूढ़ अर्थ और उसके दूरगामी परिणाम पर विचार किया जाता है? क्या अवचेतन मष्तिष्क पर इन रीति-रिवाजों के प्रभाव का वैज्ञानिक अध्ययन हुआ है? या समग्र सोच-विचार के पश्चात हमें नारी का ‘अबला’ और ‘पराधीन’ बने रहना ही उचित लगता है?

इसी संदर्भ में एक और सवाल मन में उभरता है कि क्या हम सचमुच सभ्य, सुसंस्कृत और आदर्श समाज में जी रहे हैं? आप किसी को जवाब भले ही न दें किंतु आत्मचिंतन अवश्य करें, सादर अनुरोध है।

(स्पष्टीकरण- यह मेरे निजी विचार हैं, आपका इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।)

1 COMMENT

  1. आयुष्मान खुराना ने शुरुआत ही चैलेंजिंग रोल से की थी, उसी से उसके व्यक्तित्व से पता चलता है।
    आपका लेख बहुत अच्छा लगा।।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here