राकेश दीवान
इन दिनों राजस्थान में सत्ता पर चढ़ने-उतरने की खातिर जो-जो कारनामे हो रहे हैं उन्हें क्या राजनीति कहा जा सकता है? बहुमत वाली एक भली-चंगी सरकार को राज्यपाल की मार्फत खुलेआम गिराने का कौतुक क्या राजनीति की आधुनिक परिभाषा में शामिल मान लिया गया है? खासकर तब, जब यह पिछले कुछ सालों का अकेला करतब भर नहीं है? अभी इसी साल कुछ महीने पहले मध्यप्रदेश में भी इसी तरकीब से बहुमत-प्राप्त सरकार को कुलटइयां खिला दी गई थी। तीन साल पहले 2017 में गोवा और मणिपुर में इसी कारनामे की बदौलत भाजपा की सरकारें बनाई गई थीं। इसके ठीक अगले साल 2018 में, राजनीति के नाम पर यही करतब कर्नाटक और 2019 में महाराष्ट्र में दोहराया गया था।
‘संविधान में सच्ची निष्ठा व कर्तव्यों का शुद्ध अंत:करण से निर्वहन करने’ की शपथ लेकर मंत्री और विधायक बने नरपुंगव किस तरह इस-या-उस राजनीतिक पार्टी के उकसावे पर रातम-रात पाला बदलकर सरकारें बना या बिगाड़ देते हैं, यह भारतीय राजनीति के लिए कोई अजूबा नहीं रह गया है। तो क्या चुनाव में साड़ी, शक्कर, पैसा और लालच बांटकर विधायक बनने और फिर मंत्री या ऐसे मलाईदार पदों के लिए खुद भी बिकने को तैयार हो जाने को राजनीति कहा जा सकता है? और ‘मौका मिलने’ पर इस राजनीति को ‘धक्का मारने’ के नारे पर जनता के उत्साहपूर्वक शामिल हो जाने को इसी राजनीति को खारिज करने की पहल माना जा सकता है?
ध्यान से देखें तो राजनीति की इस बदहाली की वजह राजनीति की शास्त्रीय परिभाषा, यानि ‘राज’ चलाए रखने वाली ‘नीति’ के अक्षरश: पालन में ही दिखाई देती है। आजादी के आंदोलन में विदेशी राज को भगाने के अलावा कई और मुद्दे शामिल थे। इनमें ग्राम-स्वराज से लेकर शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, उद्योग आदि के विकास की बात होती थी। कहा जाता था कि समाज का अंतिम व्यक्ति ‘राज’ की नीतियों में हस्तक्षेप करने लगे तो ही राजनीति सफल मानी जा सकती है। धीरे-धीरे यह मान्यता तिरोहित होती गई और सत्ता पर कब्जा जमाना राजनीति का एकमात्र और सबसे जरूरी मकसद हो गया।
सब मानने लगे कि देश-दुनिया को बदलने के लिए सत्ता या सरकार पर नियंत्रण करना बुनियादी राजनीतिक काम है। सरकार की मार्फत समाज को बदलने की इस आपाधापी में सभी के सामने केवल चुनाव और उनमें जीत हासिल करना ही एकमात्र राजनीतिक गतिविधि बनती गई। ऐसे में जाहिर है, वैध-अवैध तरीकों से चुनाव जीतकर, उतने ही वैध-अवैध तरीकों से सत्ता में भागीदारी करना राजनीति का कुल हासिल होता गया।
राजनीति के इस तौर-तरीके ने विपक्ष और उसकी राजनीति को सर्वाधिक प्रभावित किया है। सामाजिक, राजनीतिक स्तर पर कई ऐसे मुद्दे उठे जिन पर विपक्ष की कोई आवाज ही नहीं रही। विधायिका के वेतन-भत्तों की बढ़ोतरी की तरह विस्थापन, पर्यावरण-प्रदूषण, कृषि जैसे आम लोगों के मुद्दे केवल सरकारी मुद्दे भर रह गए, उन पर विपक्ष की कोई राय सुनाई देना बंद होता गया। राजस्थान की मौजूदा राजनीतिक उठापटक से और कुछ हो-न-हो, इतना पक्का है कि वहां के राजनेताओं को देशभर को हलकान करने वाला कोरोना वायरस अस्तित्व-हीन लगता है।
गरीबी, भुखमरी और तिल-तिल कर मरता आम जीवन राजस्थान के राजनेताओं के लिए लगभग बेमानी है, खासकर तब तक, जब तक वहां की सत्ता पर काबिज होने वालों के नाम पक्के नहीं हो जाते। कुछ महीने पहले ठीक यही परिस्थिति मध्यप्रदेश में भी बनी थी जहां कोविड-19 की शुरुआत में उससे निपटने के बजाए राजनीति सरकार गिराने-बनाने पर ज्यादा ध्यान दे रही थी। सवाल है कि क्या इस राजनीति का आम लोगों से कोई लेना-देना भी होता है? क्या राजनेताओं को सरकार बनाते-बिगाड़ते समय अपने वोटरों की कोई फिक्र नहीं होती?
केवल सत्ता के इर्द-गिर्द नाचने वाली राजनीति ने अव्वल तो अपने लिए शहरी मध्यमवर्गीय वोटर तैयार कर लिए हैं। नब्बे के दशक में कांग्रेस की पहल पर आए और फिर समूचे भारत की राजनीतिक जमातों पर छा गए भूमंडलीकरण ने शहरों में ऐसे मध्यमवर्गीय लोगों की भरपूर फसल बोई जिसे अपने दायरे के बाहर किसी बात की कोई चिंता नहीं रहती। भर-कोरोना में यह तबका बेशर्मी से अपने हितों की बात करता रहा। आखिर करोड़ों मजदूरों की दर्दनाक घर-वापसी इसी शहरी मध्मवर्ग के मकान और उद्योग मालिकों की बेदखली का ही तो नतीजा थी।
अपने में मगन इस तबके ने राजनीति को भी बेहद सीमित, स्वार्थी और सत्ता-प्रेमी बना दिया। वोटर की हैसियत में यह तबका सत्ता-केन्द्रित राजनीति के लिए सर्वाधिक उपयुक्त रहता है, लेकिन केवल करीब तीस फीसदी आबादी वाले इस तबके की मदद से सत्ता की राजनीति नहीं की जा सकती। इसलिए बची हुई सत्ता उनके वोटों से हासिल की गई जिन्हें भूख, कपड़ा, मकान से अधिक कुछ और दिखाई देने लायक नहीं छोड़ा गया।
आज के चुनावों में ऐसी खबरें आम होती हैं जिनमें ‘मलिन-बस्तियों’ के वाशिंदों ने मामूली साड़ी, शक्कर, शराब के बदले में अपना वोट इस-या-उस पार्टी के नुमाइंदे को थमा दिया था। लोकतंत्र, संविधान आदि की दुहाई देते हुए जब इन लोगों से उनके ‘राजनीतिक कुकर्म’ के बारे में पूछा जाता है तो जबाव साफ मिलता है– ‘पांच साल में कम-से-कम एकाध साड़ी, किलो-आधा किलो शक्कर या थोड़ी-बहुत शराब तो मिल जाने दो। बाकी लोकतंत्र के नाम पर हमें और कुछ तो कभी मिलता नहीं है।’ जाहिर है, ये लोग बेहद सस्ते और थोक में मिलने वाले वोटर होते हैं।
शहर का बेपरवाह, अपने स्वार्थ में डूबा और बेहद डरपोक मध्यमवर्ग और मामूली भोजन तक के लिए ललचाते गरीब एक बेहतरीन, डेडली वोटर-कॉलेज, तैयार कर देते हैं। इनसे वोट कबाड़ना आज की राजनीति के लिए सर्वाधिक सरल और लगभग फोकट का काम है। ध्यान से देखें तो ऐसे वोटरों को तैयार करने की जुगत राजनेता ही बैठाते हैं। वे उन तमाम नीतियों, योजनाओं और विकास को मंजूरी देते हैं जिनसे शहरी मध्यमवर्ग और बेतरह गरीब थोक में, लगातार पैदा हों।
इन नीतियों पर सभी राजनीतिक जमातों, नेताओं, पार्टियों में गजब की एकता है। विस्थापन बढ़ाते विकास से लगाकर अमीरी-गरीबी की खाई गहराते विकास तक, सभी पर सबकी सहमति है। अभी हाल में ही ‘घर वापसी’ करते मजदूरों से किसी ने यह नहीं पूछा कि आखिर वे ऐसे बेरहम शहरों की तरफ गए ही क्यों थे? क्या उन्हें अपने-अपने ठियों पर कोई काम नहीं मिल पा रहा था? और यह कैसा विकास है जिसमें चालीस-पैंतालीस करोड़ लोग रोजी-रोटी की खातिर अपना-अपना घर-बार छोड़कर दर-दर की धूल फांकते हैं? जाहिर है, इन सवालों के लिए मौजूदा राजनीति में कोई गुंजाइश नहीं बची है। जरूरत है, ऐसी राजनीति को बदलने की, लेकिन क्या मौजूदा समाज इसमें कोई रुचि लेगा?