राम मंदिर: समय ने सारे जवाब दे दिए हैं

विजयमनोहर तिवारी

राम मंदिर आंदोलन के बाद बीते सालों में कांग्रेस और वामपंथियों को तो बीजेपी पर हमले करने का खूब अवसर मिला ही, लेकिन सबसे खास बात यह थी कि मंदिर आंदोलन में अग्रिम पंक्ति के योद्धा भी बीजेपी से भारी नाखुश रहे। मुझे अशोक सिंघल, गिरिराज किशोर, साध्वी ऋतंभरा, आचार्य धर्मेंद्र और प्रवीण तोगड़िया से कई बार मिलने का मौका मिला था। कुछ लोग खुलकर बीजेपी के प्रति अपना गुस्सा जाहिर कर देते थे और कुछ बीजेपी की मजबूरियों को समझते थे। साध्वी ऋतंभरा के दो इंटरव्यू मेरी फाइलों में हैं। पहला साल 2002 के आसपास का है। तब वे बीजेपी से भारी गुस्सा थीं। उनका एक लाइन में कहना था- ‘‘भाजपा अब अपने मूल मुद्दों से बचने लगी है।‘’

मेरा सीधा सवाल यही था कि क्या सत्ता में आने के बाद भाजपा बदल गई है? साध्वी ऋतंभरा का जवाब था- ‘‘भाजपा के उत्थान के पहले तक देश में तुष्टिकरण की राजनीति चली। अल्पसंख्यकों के हितों के नाम पर राजनीतिक दल घड़ियाली आँसू बहाते थे। फिर भाजपा की संसद में दो सीटें हुईं। लेकिन सोमनाथ से आडवाणीजी की रथयात्रा के बाद जो वातवरण बना, उससे हिंदू समाज को पहली बार यह लगा कि भारत के राजनीतिक क्षितिज पर नया उदय हो रहा है। इस तरह उभरती भाजपा को हिंदू समाज ने अपना माना, लेकिन अब भाजपा अपने मूल मुद्दों से बचने लगी है। सरकार में तो वह बैसाखियों के सहारे है। वह अपाहिज है, अपने आचरण पर नहीं है।‘’

तुष्टिकरण के अगले सवाल पर उनका जवाब था कि मेरा व्यक्तिगत विचार यह है कि भाजपा के मानस में भी तुष्टिकरण का भाव पैदा हुआ है। भाजपा में यह भ्रम पनप रहा है कि यदि कोई समाज देश की मुख्य धारा से नहीं जुड़ पा रहा और तुष्टिकरण चाहता है तो ऐसे में यही सही। इसलिए अब राम मंदिर, 370, समान आचार संहिता और गोहत्या जैसे विषयों से बचा जाने लगा है। भाजपा की सोच यह हो गई है कि यदि इन पर चर्चा करेंगे तो मुस्लिम अलग-थलग पड़ जाएँगे।

कुछ सवाल ऐसे होते हैं, जिनके जवाब समय ही देता है। ये ऐसे ही सवाल थे, जिन पर मंदिर आंदोलन से जुड़े साध्वी ऋतंभरा जैसे आक्रामक वक्ताओं का मायूस होना वाजिब भी था। जनता के बीच सीधे जुड़े इन लोगों की मुश्किल यह थी कि मीडिया और इनके अपने चाहने वाले भी मंदिर को लेकर देश में हर कहीं इनसे जवाब-तलब करते थे। अटल-आडवाणी की भाजपा संसद में अच्छी-खासी बढ़त लेते हुए सरकार बनाने तक भी इस हालत में नहीं थी कि इन ज्वलंत मसलों पर एकतरफा फैसला ले पाती।

वह कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के अनुसार आगे बढ़ने की बेबसी का दौर था, जिसे पार करना ही था। समय बीतता गया। सेक्युलर नेताओं को भी हर चुनाव में बीजेपी को घेरने के लिए यह मुद्दा मिल गया था कि मंदिर के नाम पर वह समाज को बांट रही है। मंदिर बनाने की नीयत है ही नहीं। यूपीए-2 के अंतिम समय तक आडवाणीजी इस स्थिति में नहीं थे कि अपने बूते संसद में स्कोर ला पाते। वे अपना सर्वश्रेष्ठ राम रथयात्रा में दे चुके थे। पार्टी उससे हासिल फसल को काट चुकी थी।

हम कल्पना नहीं कर सकते कि सितंबर 2013 में अगर बीजेपी के गर्भगृह में संघ के शास्त्रोक्त विधि विधान से गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की प्राण प्रतिष्ठा न हुई होती तो चुनावी ऊँट किस तरह की खिचड़ी सरकार की तरफ बैठता। ये तो तय है कि नतीजे वैसे बिल्कुल ही नहीं आने वाले थे जैसे आए। वो अमित शाह ही थे, जिन्होंने सीटों के लिहाज से यूपी को उलटकर रख दिया था, जो केंद्र में एक मजबूत आधार बना। चुनाव की रंगत ही बदल गई थी।

वेदप्रताप वैदिक और राम बहादुर राय जैसे पत्रकार बता रहे थे कि नेहरू के बाद सभाओं के मैदान छोटे पड़ गए हैं। नई पीढ़ी के वोटरों ने भी देखा कि चुनावों में मीडिया जिसे लहर कहता है, वह होती कैसी है, चलती कैसे है। हालांकि पहले पाँच साल भी कुछ खास नहीं गुजरे। मंदिर के लिए अदालत पर ही सब छोड़कर रखा गया। सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी अगर लखनऊ हाईकोर्ट की तरह दोनों पक्षों को प्रसन्न करने का रहा होता तो भी हम कल्पना नहीं कर सकते कि क्या होता?

मंदिर का मुद्दा अपने सुखद अंत की तरफ चला गया है लेकिन सियासत में कभी ऐसा नहीं कहा जा सकता कि अंत भला सो सब भला। अयोध्या में मंदिर निर्माण बीजेपी से अपेक्षाओं का अंत नहीं है। वह एक पड़ाव जरूर है, जिसने सारे सेक्युलरों के मुँह हमेशा के लिए बंद कर दिए हैं और मंदिर आंदोलन के नेताओं को अपने जीते-जी मंदिर को बनता हुआ देखने की तसल्ली मिल गई है।

हमें यह नहीं भूलना नहीं चाहिए कि अब भी ऐसे लोग हैं, जो खार खाए बैठे हैं। वे बिल्कुल खुश नहीं हैं। उन्हें लग रहा है कि उनका हक मारा गया है। वे बिल्कुल खामोश रहने वाले नहीं हैं। भारत की मुश्किलें घरेलू ही नहीं हैं। हिंदुत्व का भाव जितना प्रखर होगा, दुनिया की दुष्ट ताकतें हमें घेरने से बाज नहीं आएँगी। जबकि मंदिर भारत की सांस्कृतिक विरासत का विषय है। भले ही उसका रास्ता एक लंबी सियासी और कानूनी लड़ाई से होकर निकला हो।

मंदिर निर्माण की घड़ी में आतंकी हमलों की खुफिया सूचनाएँ या केरल-कर्नाटक में दो सौ आतंकियों के होने या काफिरों को मारने के लिए कोरोना फैलाने की साजिश के इनपुट बता रहे हैं कि भारत की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने के साथ देश विरोधी विचारों की नर्सरियों को सैनेटाइज करने की जरूरत युद्ध स्तर पर है। मंदिर तो पहली पायदान है।

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