मध्यप्रदेश में विधायकों की बगावत से कांग्रेस ने क्या सीखा?

हेमंत पाल

कांग्रेस के विधायकों का टूटना और भाजपा से जुड़ना अब चौंकाने वाली खबर नहीं रह गई। जिस दिन ऐसा कुछ नहीं होता, उस दिन जरूर लगता है कि क्या बात है, आज किसी का विकास की धारा से जुड़ने का मन क्यों नहीं हुआ। आश्चर्य की बात तो कांग्रेस का इन घटनाओं के प्रति निर्लिप्त भाव है।  वो सिर्फ जाने वाले विधायकों की गिनती कर रही है, इससे ज्यादा कुछ नहीं। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ भी सिर्फ विधायकों के मन को बदलता हुआ देख रहे हैं, कर कुछ नहीं पा रहे।
मध्‍यप्रदेश में जब सिंधिया समर्थक 19 और 3 अन्य विधायकों ने पाला बदला था, तब लगा था कि जो होना था, वो हो गया।  पर बाद में एक के बाद एक तीन और विधायकों के पाला बदलने की घटना ने कहानी को आगे बढ़ा दिया। अभी भी इस कहानी का पटाक्षेप नहीं हुआ। कांग्रेस इसे खरीद-फरोख्त बता रही है, पर सिर्फ यही कारण होगा, ये गले नहीं उतर रहा। इसे कांग्रेस के संगठन की कमज़ोरी भी माना जाना चाहिए।  

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मध्यप्रदेश में कांग्रेस का सियासी संकट अभी ख़त्म नहीं हुआ।  जब भी पार्टी उससे उबरने और निष्ठावान के बचे रहने की बात करती है, कोई न कोई विधायक पाला बदलता दिखाई दे जाता है। 22 विधायकों की बगावत के बाद कांग्रेस को लगा था कि अब कोई नहीं जाएगा। तभी एक-एक करके तीन विधायक खिसक गए। आखिर अचानक कांग्रेस से विधायकों के इस मोहभंग का कारण क्या है, ये कोई नहीं समझ पाया।  यहाँ तक कि प्रदेश कांग्रेस के मुखिया कमलनाथ भी समझ नहीं पा रहे हैं, कि 3 महीने बाद अचानक बगावत का बवंडर फिर क्यों उठा।

उधर, भाजपा का दावा है, कि कांग्रेस छोड़ने का सिलसिला अभी थमा नहीं है। एक सवाल ये भी उठता है कि भाजपा आखिर किस संभावित संकट से बचने के लिए दलबदल करवा रही है। क्या उसे सिंधिया समर्थक विधायकों की जीत का भरोसा नहीं है या भविष्य में सिंधिया के दबाव से बचने के लिए वो कांग्रेस में तोड़फोड़ करके अपनी राजनीतिक सुरक्षा का इंतजाम कर रही है। कारण जो भी हो, पर इसके पीछे कांग्रेस की अपनी कमजोरी को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। कहीं ऐसा तो नहीं कि बगावती विधायक कांग्रेस में व्याप्त ‘अपना आदमीवाद’ से ऊब गए थे। क्योंकि, ज्योतिरादित्य सिंधिया के बाद भी कहा नहीं जा सकता कि कांग्रेस खेमेबाजी से मुक्त हो गई। अभी भी गुटबाजी के कई टापू हैं, कांग्रेस को जिनकी पहचान करना है।

मार्च में जब ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपने समर्थकों के साथ कांग्रेस छोड़कर कमलनाथ सरकार गिराई थी, तब बहुत सी बातें ऐसी थीं, जो सियासी कारणों से लोगों को सही लग रही थीं। डेढ़ साल की कमलनाथ सरकार के दौरान सिंधिया की उपेक्षा और उन्हें कोई सम्मानजनक पद न दिया जाना  राजनीतिक समझ वाले लोगों को नागवार गुजरा था। इसे ही सियासी बगावत का बड़ा कारण भी समझा गया। कांग्रेस ने भी छाती पर पत्थर रखकर सबके सामने तो नहीं, पर अपनी गलती मान भी ली थी।

बाद में कांग्रेस नेताओं ने इशारों में कहा था कि सिंधिया समर्थक मंत्रियों की बात नहीं सुनी गई और ज्योतिरादित्य सिंधिया को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाया जाना था, पर नहीं बनाया गया। लेकिन, तीन महीने बाद अचानक बगावत का बवंडर फिर उठा और कांग्रेस के तीन विधायक सोशल डिस्टेंसिंग के साथ टूटकर फिर भाजपा में आ गए। सोशल डिस्टेंसिंग शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया कि तीनों ने एक साथ नहीं, बल्कि अलग-अलग दिनों में भाजपा से रिश्ता जोड़ा।  पर, ऐसा क्यों हुआ, ये समझ से परे है। क्योंकि, कांग्रेस भी ऐसे किसी हादसे की उम्मीद नहीं कर रही थी। लेकिन, भाजपा का दावा है कि अभी कुछ और टूटेंगे।

अपने विधायकों के लगातार भाजपा में जाने की घटनाओं से कांग्रेस परेशान भी है और नाराज़ भी। लेकिन, वह कुछ करने की स्थिति में नहीं है। क्योंकि, यह आँधी अभी थमी नहीं है। यदि भाजपा का दावा सही है, तो कुछ और विधायक लाइन में खड़े हैं। इस तोड़फोड़ पीछे कांग्रेस ने भाजपा को जिम्मेदार बताया और कहा कि कांग्रेस के पास भाजपा के इस वायरस का इलाज है। उपचुनाव में जनता भाजपा को दिखा देगी कि उसे ये सियासी अंदाज पसंद नहीं आया।

लेकिन, कांग्रेस अभी तक अपनी गलती स्वीकारने की स्थिति में क्यों नहीं है। न तो कमलनाथ ने सिंधिया-गुट की बगावत के वक़्त अपनी गलती मानी, न निर्दलीय विधायकों के शिवराज-सरकार को समर्थन देने के फैसले के समय और न तीन विधायकों के पार्टी छोड़ने पर पछतावा किया। आश्चर्य है कि जो कड़वी सच्चाई राजनीति की बारीकियों को न समझने वालों को साफ़ दिखाई दे रही थी, उसे प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष होते हुए कमलनाथ नहीं समझे। पिछले दिनों उन्होंने कांग्रेस विधायकों की बैठक भी बुलाई थी, उसमें भी दर्जनभर से ज्यादा विधायक अलग-अलग कारणों से गायब रहे। क्या ये संकेत नहीं था, कि सबकुछ उतना सामान्य नहीं है, जितना समझा या समझाया जा रहा है।

कांग्रेस के आरोपों को भाजपा ने बेबुनियाद बताते हुए ये जरूर कहा कि कांग्रेस के बड़े नेता ही पार्टी को संभालने में नाकाम है। यही कारण है कि विधायक पार्टी में खुद को फिट नहीं बैठा पा रहे और नाराज़ होकर पार्टी छोड़ रहे हैं। भाजपा का ये भी कहना है कि दरअसल ये कांग्रेस के लिए आत्मचिंतन का समय है। उन्हें हम पर आरोप लगाने की जगह खुद की पार्टी को संभालना चाहिए। देखा जाए तो कांग्रेस को अपनी उन ग़लतियों पर आत्मचिंतन जरूर करना चाहिए, जो उसने सत्ता में रहने के दौरान की।

15 साल बाद जब कांग्रेस सरकार बनाने स्थिति में आई, तब ये नहीं सोचा गया कि वो पूर्ण बहुमत की सरकार नहीं है और उसे संभल संभलकर कदम रखना है। सरकार को समर्थन देने वाले निर्दलियों को हाशिए पर रखा गया और सिंधिया के साथ उनके गुट की भी उपेक्षा की गई। विधायकों और कार्यकर्ताओं को भी तवज्जो नहीं दी गई। 100 से ज्यादा पद खाली थे, पर उन्हें भरा नहीं गया। यदि ये सब नहीं होता तो शायद कमलनाथ सरकार के गिरने का कोई कारण नहीं था। आखिर कांग्रेस की ये कमजोर कड़ी भाजपा ने समझ ली और एक चोट में उसे तोड़ दिया।

कांग्रेस में बगावत की समय पर सूचना तक पार्टी को न लग पाना भी चिंता की बात है। न तो उन्हें सिंधिया-समर्थकों की बगावत का अंदाजा था और न बाद में तीन विधायकों के दलबदल की भनक लगी। कमलनाथ ने जब भी पार्टी में असंतोष से इंकार किया, कहीं न कहीं से नया बुलबुला जरूर उठता नजर आया। कमलनाथ के इस तरह गलत साबित होने का सीधा सा मतलब है, कि उनका सूचना तंत्र कमजोर है या फिर वे ये मान चुके हैं कि बगावत रोक पाना उनके बस में नहीं है।

ये भी गौर करने वाली बात है कि सिंधिया के साथ 19 ने कांग्रेस छोड़ी, लेकिन बिसाहूलाल सिंह, ऐदलसिंह कंसाना और हरदीपसिंह डंग को कांग्रेस से क्या नाराजी थी? बाद में जिन तीन विधायकों प्रधुम्नसिंह लोधी, सुमित्रा कस्डेकर और नारायण पटेल ने पार्टी छोड़ी, वे तो किसी गुट के नहीं थे।  फिर क्या कारण है कि वे कांग्रेस से रस्सी तुड़ाकर भागे। ये लोग तो कांग्रेस के चुनावी सर्वेक्षण में जीतने वाले माने गए थे।

अभी सिलसिला थमा नहीं है, देखना है कि इस गिनती का अंत कहाँ होता है। लेकिन, जहाँ भी होगा, वहीं से मध्यप्रदेश में कांग्रेस के अंत-अध्याय की शुरुआत भी होगी। क्योंकि, कांग्रेस कभी वक़्त पर संभलने में विश्वास नहीं रखती।

 

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