डॉ. अजय खेमरिया
जय जय कमलनाथ के उद्घोष के बीच जब मप्र कांग्रेस के विधायकों ने कमलनाथ के नेतृत्व में आस्था व्यक्त की थी तो लगा था कि मप्र की राजनीति में कमलनाथ एक नई ताकत बन बीजेपी का मुकाबला करेंगे। ज्योतिरादित्य सिंधिया के पार्टी छोड़ने के घटनाक्रम का एक पक्ष यह भी स्थापित करने का प्रयास किया गया कि सिंधिया से मुक्ति के बाद कैडर बेस कांग्रेस खड़ी हो सकेगी। सरकार गिरने के चार महीने बाद भी क्या मप्र में कांग्रेस की हालत बदल पाई है?
यह सवाल इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि आने वाले मिनी विधानसभा चुनावों के लिए कांग्रेस मैदान में कहीं नजर ही नहीं आ रही है। 22 विधायकों ने कमलनाथ का साथ छोड़ा था यह सिलसिला बीजेपी सरकार बनने के बाद थम जाना चाहिये था, लेकिन इस दौरान तीन अन्य विधायक भी कांग्रेस छोड़कर बीजेपी का दामन पकड़ चुके हैं। खबर है कि मालवा और निमाड़ के करीब आठ से दस और विधायक आने वाले समय में कांग्रेस छोड़ सकते है। यानी मप्र में कांग्रेस उपचुनाव की चुनौती को स्वीकार करने से पहले खुद के बचे हुए घर को महफूज रखने की चुनौती से ज्यादा हलकान है।
ध्यान से समझा जाये तो मप्र में कांग्रेस की इस हालत के लिए कमलनाथ खुद ही जिम्मेदार हैं। उनकी अपनी क्षमताएं और बढ़ती उम्र भी एक बड़ा कारक है। तथ्य यह है कि कमलनाथ मप्र के स्वाभाविक नेता हैं ही नहीं। वह आज भी दिल्ली दरबार के लिए फिट हैं, जबकि राज्य की राजनीति के लिए अशोक गेहलोत जैसे चपल और स्थानीय स्वीकार्यता वाले नेता ही सफल माने जाते हैं। खासकर मप्र जैसे राज्य में जहाँ बीजेपी का संगठन देश भर में सबसे मजबूत और विस्तृत है और शिवराज सिंह जैसे ऊर्जावान नेता से किसी का मुकाबला हो तो 73 साल के कमलनाथ नैसर्गिक तौर पर भी मुकाबले में नहीं टिक सकते हैं।
असल में मप्र कांग्रेस का संकट अब कमलनाथ ही हैं, इसे निर्विवाद रूप से स्वीकार करना ही होगा। वे कभी उस स्वरूप में मप्र के नेता रहे ही नहीं हैं जैसे दिग्विजयसिंह, सिंधिया, अर्जुनसिंह आदि। आप इसी से अंदाज लगा सकते हैं कि कमलनाथ करीब 3 साल से मप्र कांग्रेस के अध्यक्ष हैं, लेकिन 2018 का चुनाव जीतने तक वह मप्र के आधे जिलों में भी दोरे पर नहीं गए। सिंधिया के प्रभाव वाले आठ जिलों में तो वे एक बार भी नहीं आये।
जब 2018 में वे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आ गए तब भी पूर्व मुख्यमंत्री होने तक उन्होंने प्रदेश के किसी इलाके में जाने की जहमत नहीं उठाई। उनके बारे में कहा जाने लगा था कि कमलनाथ का प्लेन भोपाल, छिंदवाड़ा, दिल्ली के बीच ही उड़ता है। दूसरी तरफ शिवराज सिंह कुर्सी गंवाने के बावजूद मप्र के मैदानी दौरों पर डटे रहे। यहां तक कि दिग्विजयसिंह भी पूरे प्रदेश में सरकार रहने तक घूमते रहे। इससे पहले वे नर्मदा परिक्रमा कर प्रदेश के मालवा, महाकौशल, निमाड़ और नर्मदांचल को पैदल नाप चुके थे।
मुख्यमंत्री के रूप में कमलनाथ शायद शिवराज सिंह की जनता के सीएम की छवि को खत्म करना चाहते थे, वे मैदानी सीएम की जगह डीपी मिश्रा की तरह वल्लभ भवन से ही हुकूमत चलाने में भरोसा करने लगे। इसके लिए पार्टी संगठन या जनसंवाद के चैनल की जगह उन्होंने अपने निजी लोगों का सहारा लिया जो अंततः उनकी सरकार के पतन का महत्वपूर्ण कारक साबित हुए।
यह भी तथ्य है कि कमलनाथ को मप्र में कांग्रेस के मैदानी कैडर की भी कोई समझ नहीं रही है यही कारण है कि सीएम हाउस के नजदीक दिग्विजयसिंह के बंगले पर प्रदेश भर के कांग्रेसियों का जमघट लगा रहता था और आम कार्यकर्ता मुख्यमंत्री निवास जाने से कतराते थे। दिग्विजयसिंह जब कार्यकर्ताओं को सीएम से मिलने का परामर्श देते तो अधिकतर का जवाब यही होता था कि सीएम उन्हें पहचानते ही नहीं है। खासकर मालवा, विंध्य, मध्यभारत बेल्ट के लोगों के साथ यह समस्या थी।
5 बार के विधायक और अब शिवराज सरकार में खाद्य मंत्री बिसाहूलाल सिंह ने कमलनाथ पर यही आरोप लगाया था कि वे विधायकों से मिलते ही नहीं हैं। चूंकि मप्र में पार्टी के चीफ भी कमलनाथ खुद ही थे, इस कारण जनता और पार्टीगत नाराजगी का इनपुट आने का सिस्टम 15 साल बाद सत्ता में आई कांग्रेस सरकार ने विकसित ही नही किया। मंत्री विधायक एक दूसरे पर पैसा खाने, काम न करने के खुले आरोप लगाने लगे।
यह एक मुख्यमंत्री के रूप में कमलनाथ की नाकामी ही थी जो अंततः उनके पतन का अहम कारण बनी। वैसे भी मप्र में कांग्रेस की सरकार कमलनाथ के चेहरे पर नहीं बनी थी, बल्कि सभी क्षत्रपों ने अपने अपने इलाकों में अपने लोगों को टिकट बांटकर जीत के लिए जो दम लगाया वह उसका नतीजा थी। दूसरा पक्ष सवर्ण नाराजगी और कर्जमाफी का था जिसने बीजेपी के कोर वोटर को नाराज कर दिया था।
अब मप्र में कमलनाथ सरकार जा चुकी है और 27 सीटों पर उपचुनाव होना है। पार्टी कमलनाथ और दिग्विजयसिंह के कबीलों में बंटती दिख रही है। कमलनाथ बगैर जमीनी पकड़ और मेहनत के केवल अपने पुराने बैकग्राउंड के बल पर मप्र को अपने कब्जे में करना चाहते है। उन्हें अब दिग्विजयसिंह से भी खतरा लगने लगा है, इसीलिए उनके विरुद्ध भी राकेश चौधरी जैसे नेताओं को सार्वजनिक रूप आगे किया जा रहा है।
नेता विपक्ष का पद भी कमलनाथ खुद संभाल रहे हैं जबकि स्वाभाविक दावा डॉ. गोविंद सिंह और केपी सिंह जैसे 6 बार के विधायकों का है। ये सभी दावेदार दिग्विजयसिंह के समर्थक हैं। जाहिर है कमलनाथ मप्र में सिंधिया की तरह दिग्विजयसिंह और उनकी लॉबी को मजबूत नहीं होने देना चाहते हैं। अनौपचारिक रूप से वह सरकार के पतन के लिए दिग्विजयसिंह को जिम्मेदार भी बता चुके हैं लेकिन वह भूल गए कि अपने विधायकों पर नजर रखना और उन्हें सन्तुष्ट करना मुख्यमंत्री का काम होता है।
अशोक गेहलोत इसका बेहतरीन उदाहरण हैं। जाहिर है कमलनाथ इस मोर्चे पर भी बुरी तरह नाकाम रहे हैं। ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि करीब 60 फीसदी विधायकों से कमलनाथ का कोई पूर्व परिचय ही नहीं था, न टिकट वितरण, न उन्हें जिताने, न उनके लिए स्थानीय प्रबंधन में कमलनाथ की कोई भूमिका रही। मप्र के आधे जिले आज भी ऐसे हैं जहाँ कमलनाथ जीवन में कभी नहीं गए हैं। इन परिस्थितियों में अगर कमलनाथ डीपी मिश्रा की तर्ज पर मप्र की सरकार चलाने की कोशिशें कर रहे थे, तो उसका पतन तो अवश्यंभावी ही था।
आगामी उपचुनावों में कमलनाथ पार्टी के मुखिया के नाते बीजेपी और सिंधिया की तगड़ी चुनौती पर कैसे पार पायेंगे? इस सवाल का जवाब बहुत कठिन नहीं है। उनके मौजूदा वर्क कल्चर से समझा जा सकता है कि कांग्रेस भोपाल से ही मैदानी लड़ाई लड़ने वाली है। बीजेपी जहाँ दो महीने से ग्रासरूट पर फील्डिंग जमाने में जुटी है, वहीं पूर्व मुख्यमंत्री और पीसीसी चीफ कांग्रेस के लड़ाकों को भोपाल के बंगले पर तलब करते हैं। वहीं फोटो सेशन होता है और बयान जारी कर दिया जाता है कि बीजेपी केवल एक सीट जीतेगी।
सवाल यह है कि भोपाल में बैठकर कमलनाथ कैसे उस सीएम और पार्टी से लड़ेंगे जो हमेशा ही इलेक्शन मोड में रहता हो। इसलिए मप्र का संकट तो फ़िलहाल कांग्रेस के लिए कमलनाथ का कल्चर ही बन गया है।