उनके सपने और हम विंध्य के खुदगर्ज लोग

जयराम शुक्ल

अवधेशप्रताप सिंह विश्वविद्यालय रीवा अपना स्थापना दिवस हर साल 20 जुलाई को मनाता है, इस वर्ष 53 वां था। इस विश्वविद्यालय की बुनियाद में प्रत्यक्षतः तीन महापुरुष हैं, कप्तान अवधेशप्रताप सिंह, पंडित शंभूनाथ शुक्ल और गोविंद नारायण सिंह। लेकिन यह तथ्य कम लोग ही जानते हैं कि इस शैक्षणिक संस्थान को अस्तित्व में लाने में जिनकी महती भूमिका रही है वे हैं राजमाता विजयाराजे सिंधिया, श्यामाचरण शुक्ल और शत्रुघ्न सिंह तिवारी। अब इस विश्वविद्यालय में पढ़ने-पढ़ाने वालों से इनके बारे में पूछा जाए तो लाखों में इक्का-दुक्का ही मिलेंगे जो इस संस्थान को गढ़ने वाले इन महापुरुषों की भूमिका के बारे में जानते हों।

कोई जाने या न जाने विश्वविद्यालय के कुलपतियों और प्राध्यापकों को इसकी गरज भी नहीं। यहां अब पढ़ाई से ज्यादा तीन-तिकड़म और पंचायत-पच्चीसी ज्यादा होती है। इन तिरपन वर्षों में विश्‍वविद्यालय में शायद ही ऐसा कोई राष्ट्रीय स्तर का शोध-अनुसंधान हुआ है जो उल्लेखनीय हो। यदि हुआ भी है तो मुझ जैसे जिज्ञासु के प्रकाश में नहीं आया।

विंध्य की बॉयोडायवर्सिटी और पिलियोबॉटनी व पुरातत्व पर बहुत काम हुआ लेकिन यह काम इलाहाबाद, जादवपुर युनिवर्सिटी के खाते से पढने को मिला। महान वनस्पति शास्त्री बीरबल साहनी के शिष्य प्रो. शिवदयाल सक्सेना ने अनुसंधान के क्षेत्र में काफी कुछ किया है लेकिन उन्हें अब कोई याद नहीं करता, उनकी लिखी किताबें पढ़कर प्रोफेसर हुए लोग भी छात्रों को इनके बारे में नहीं बताते। बहरहाल मैं उन सबको प्रणाम करता हूँ जिनका योगदान इस विश्वविद्यालय को यहां स्थापित करने में रहा है, बावजूद इसके कि मैंने अपनी पढ़ाई रानी दुर्गावती विवि व बीएचयू में की है। पर हमारे कुल परिवार के ज्यादातर बच्चों का भविष्य इसी अवधेश प्रताप सिंह विवि. से जुड़ा है।

इस जमाने में आदमी आगे की देखता है, जिससे काम सधे वही आराध्य। नई पीढी भी कप्तान साहब के बारे में ज्यादा नहीं जानती। जो इस विवि. से पढ़कर निकले हैं प्रायः उनमें से भी ज्यादातर इतना ही जानते हैं कि कप्तान अवधेशप्रताप, गोविंदनारायण सिंह के पिता जी थे संविद शासन में जब वे मुख्यमंत्री हुए तो अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए रीवा में एक विवि खोला और अपने पिता जी का नाम रख दिया। कुछ दिन बाद लोग इन दोनों को भी भूल जाएंगे, क्योंकि गूगल का सर्च इंजन जितना खोज ले वही इतिहास है।

वैसे भी विन्ध्यप्रदेश के विलीनीकरण के बाद यहां के महापुरुष डस्टबिन में डाल दिए गए। वहां से कौन झाड़ पोछकर निकाले? यहां के लोग तो गोविंदनारायण जी के बारे में ही कम जानते हैं कि बीएचयू से डीलिट् वह मेधावी नेता जिसकी प्रतिभा की छाप कभी देश की राजनीति में थी। भला हो नरोन्हा साहब का ..जिन्होंने ‘ए टेल टोल्ड बाई एन ईडियट’ लिखकर गोविंदनारायण जी के संस्मरणों का दस्तावेजीकरण कर दिया। वरना वे भी किंंवदंतियों में रहते और कुछ दिनों बाद बुता जाते अपने पिता कप्तान साहब की तरह।

मैंने भी कप्तान साहब के बारे में पढ़ा कम सुना ज्यादा है। कप्तान साहब बघेलखंड कांग्रेस के प्राण थे। पहले यहां की कांग्रेस इलाहाबाद से चलती थी। कप्तान साहब, राजभान सिंह तिवारी और यादवेंद्र सिंह ने इसे पहचान दी। कांग्रेसियों को भी यह कम ही मालूम होगा कि बघेलखंड कांग्रेस का गठन कटनी में एक मुंशी जी (नाम नहीं याद आ रहा) के मकान में हुआ था और पहले अध्यक्ष राजभानु सिंह तिवारी बनाए गए थे। देश के आजाद होने तक यही तीन लोग अदल बदल के बघेलखंड कांग्रेस के अध्यक्ष होते रहे।

देश जब स्वतंत्र हुआ और विन्ध्यप्रदेश का गठन हुआ तो कप्तान साहब अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री बनाए गए। मुख्यमंत्री पद 52 के बाद आया। शंभूनाथ शुक्ल पहले निर्वीचित मुख्यमंत्री हुए। कप्तान साहब का एक किस्सा बड़ा मशहूर है। वे हाफपैंट पहना करते थे। दफ्तर में भी प्रायः उनकी यही ड्रेस हुआ करती थी। एक बार दिल्ली गए नेहरू जी से मिलने। तीन मूर्ति भवन में बाहर खड़े संत्री से कहा पंडित जी को बता दीजिये विन्ध्यप्रदेश का प्रधानमंत्री उनसे मिलने आया है।

कप्तान साहब की हाफपैंट वाली ड्रेस देखकर संत्री सटपटा गया। कोई सिरफिरा समझकर यह खबर अंदर तक नहीं पहुंचाई। बेफिक्र कप्तान साहब मूंगफली चबाते तीनमूर्ति के बाहर लेफ्ट राइट करते रहे। घंटों बाद जब नेहरू बंगले के अंदर से निकले व ऐसे शख्स के बारे में खबर लगी तो संत्री को डांंटा कि नेहरू के दरवाजे पर कोई खुद को प्रधानमंत्री कह रहा है तो वह प्रधानमंत्री ही होगा। नेहरू जी ने सम्मान से कप्तान साहब को बुलाया और नाश्ते की मेज पर राजकाज की बातें की।

कप्तान साहब,राजभानु सिंह तिवारी और यादवेंद्र सिंह तीनों ही सादगी और ईमानदारी की प्रतिमूर्ति थे। सन् 1952 के पहले चुनाव में राजभान सिंह तिवारी रीवा से लोकसभा के लिए निर्वीचित पहले सदस्य हुए। कप्तान साहब को राज्यसभा भेजा गया। यादवेंद्र सिंह जिन्हें सम्मान से भैय्या साहब कहा जाता था के साथ एक ट्रेजेडी हो गई। वे विधानसभा का चुनाव हार गए। तब के चौबीस वर्षीय समाजवादी युवातुर्क श्रीनिवास तिवारी ने उन्हे मनगँवा विधानसभा क्षेत्र से हरा दिया। यह उलटापलट न होता तो विन्ध्यप्रदेश के पहले मुख्यमंत्री यादवेंद्र सिंह ही बनते, पं. शंभूनाथ शुक्ल नहीं।

कप्तान साहब को यह टीस जिंदगी भर रही। वरिष्ठ पत्रकार मदनमोहन जोशी ने कप्तान साहब और शंभूनाथ जी के परस्पर संबंध के बारे में यादगार संस्मरण लिखा है। वे लिखते हैं कि- नवगठित मध्यप्रदेश में शंभूनाथ जी मंत्री बनाए गए तो कप्तान साहब को नहीं सुहाया। यद्यपि दोनों के बीच संबंध ऐसे थे कि कप्तान साहब भोपाल में शंभूनाथ जी के बंगले विन्ध्यकोठी में ही रुकते। दोस्तों को पांसा खेलने के बहाने वहीं बुलाते व शंभूनाथ जी के खिलाफ साजिश रचते। शंभूनाथ जी को यह सब मालूम रहता क्योंकि साजिश में रहने वाले उनसे आकर बता भी देते कि कप्तान साहब आपके बारे में क्या कह रहे हैं। वीतरागी पंडितजी हँसकर रह जाते।

संयोग देखिए कि कप्तान अवधेशप्रताप सिंह विश्‍वविद्यालय के पहले कुलपति वही पंडित शंभूनाथ शुक्ल बने जो उन्हें नहीं सुहाते थे। पंडित जी के नाम विवि. का सभाकक्ष है। अब शहडोल में भी उनके नाम से विश्‍वविद्यालय खुल गया है। पिछले साल जब एसएन शुक्ल के नाम से सरकार ने अधिसूचना जारी की तो हँसी आ गई। जिंदगी भर देसज बने रहे कप्तान साहब नई पीढी के लिए एपीएस हो गए और शंभूनाथ शुक्ल एसएनएस। आज दोनों के जीवनमूल्यों के बारे में बताने वाला कोई नहीं। हां, नामकरण से जुड़ा एक किस्सा और। मेधावी गोविंदनारायण सिंह को शिक्षा का मोल मालूम था इसलिये रीवा में विश्‍वविद्यालय उनका सपना था। वे संविद के मुख्यमंत्री थे पर संंविद की मुखिया थी राजमाता सिंधिया। तब के प्रत्‍यक्षदर्शी बताते हैं कि पद्मधर पार्क की भरी सभा में गोविंदनारायण जी ने राजमाता के समक्ष यह मांग रखी। राजमाता ने एवमस्तु कह दिया।

इसके बाद का घटनाक्रम यह कि संविद सरकार जल्दी ही गिर गई। राजा नरेशचंद्र के हफ्ते भर के मुखमंत्रित्व के बाद श्यामाचरण शुक्ल मुख्यमंत्री बने। यह सब जानते हैं कि संविद के गठन के निमित्त गोविंदनारायण थे तो संविद के पतन के योजनाकारों में शत्रुघ्न सिंह तिवारी। कांग्रेस की सरकार संविद के सभी निर्णयों को पलट रही थी। और रीवा विवि की बात तो पूर्ववर्ती गोविंदनारायण से जुड़ी थी। सो किन्तु परंतु शुरू हुआ। शत्रुघ्न सिंह तिवारी अड़ गए। कहा विवि तो रीवा में ही खुलेगा और वह भी कप्तान अवधेशप्रताप सिंह के ही नाम। और विवि खुला भी, जबकि शत्रुघ्न सिंह और गोविंदनारायण के बीच राजनीतिक अदावत जाहिर थी।

यह इसलिए हुआ क्योंकि कप्तान साहब को शत्रुघ्न सिंह अपना राजनीतिक गुरू मानते थे। बहरहाल आज जो अप्रसिंहविवि है इसकी कल्पना शायद ही गोविंदनारायण जी ने की हो। न अध्यापक ढंग के,न ही अनुसंधान, न कोई नवाचार। बस डिग्री छापने व बाँटने की वर्कशाप है। धंधा वाले पाठ्यक्रमों के मोह में प्रायःअध्यापक पढ़ाने के अलावा बाकी सब धतकरम करते हैं। ये विश्‍वविद्यालय भले ही सदियों तक न जिए पर जब तक चले तो शिक्षा जगत में इसकी धमक कम से कम अपने देश में महसूस होती रहे।

पुनश्च- विन्ध्य के ये महापुरुष परलोक में जहाँ कहीं होंं तो भी इनसे अपनी कुछ शिकायतें हैं। पहली पंडित नेहरू जब विन्ध्यप्रदेश के विलय की साजिश को अंजाम दे रहे थे तो ये आज्ञाकारी शिष्य या यों कहें गुलामों की भांति न सिर्फ मूक होकर अपने वजूद को मिटते देखते रहे वरन् विधानसभा में विन्ध्यप्रदेश की मौत का प्रस्ताव भी प्रस्तुत किया। दूसरेे, यहां के दिग्गज, कर्मठ व स्वतंत्रता सेनानी नेताओं को दरकिनार कर नेहरू जी ने जब अपने बावर्ची शिवदत्त उपाध्याय को 57 व फिर 62 में लोकसभा का उम्मीदवार बनाकर भेजा तो ये प्रतिरोध नहीं कर सके।

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