क्‍या सरकार गिराने का खेल छत्‍तीसगढ़ में भी होगा?

-छत्‍तीसगढ़ की कही-सुनी-

रवि भोई

ढाई-ढाई साल के फार्मूले का सच?
राजस्थान के राजनीतिक घटनाक्रम के बाद छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार के भविष्य को लेकर देशभर में चर्चा होने लगी है। 2018 के विधानसभा चुनाव में मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ कांग्रेस की झोली में आए। तीनों राज्यों में कांग्रेस की सरकार बनी। डेढ़ साल के भीतर ही मध्यप्रदेश कांग्रेस के हाथ से निकल गया। राजस्थान जाते-जाते बचा। कांग्रेस के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गाँधी ने तीनों राज्यों में मुख्यमंत्री के नामों के ऐलान के साथ महान विचारकों के ‘कथनों’ के साथ दावेदारों के ग्रुप फोटो भी जारी किए थे।
मध्यप्रदेश और राजस्थान में मुख्यमंत्री नहीं बन पाने वाले अब कांग्रेस के जानी दुश्मन हो गए हैं। छत्तीसगढ़ में भी दावेदारों के रिश्तों में खटास की कानाफूसी सुनने को मिल रही है। वैसे तो यहाँ चार दावेदार सामने आए थे, लेकिन तब  भूपेश बघेल और टी. एस. सिंहदेव में ढाई-ढाई साल सत्ता के बंटवारे के फार्मूले की हवा उड़ी थी और अब फिर यह बात हवा में तैरने लगी है।
कहते हैं कि इसी फार्मूले के तहत पहले भूपेश बघेल मुख्यमंत्री बने। ढाई-ढाई साल का फार्मूला कितना सच है, यह तो राहुल गाँधी, भूपेश बघेल और टी.एस. सिंहदेव ही जानते हैं। हो सकता है कांग्रेस के कुछ गिने-चुने नेताओं को भी इसकी जानकारी हो, लेकिन न तो यह फार्मूला सार्वजानिक हुआ है और न ही लिखित में ऐसा कुछ आया। लेकिन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के तेजी से लेते कई फैसले और टी.एस. सिंहदेव के रुख से आम लोगों को लग रहा है कि छत्तीसगढ़ में राजनीतिक गणित सीधा और सरल नहीं है।

पत्रकारिता विश्वविद्यालय का दर्द
लगता है छत्तीसगढ़ के पत्रकारिता विश्वविद्यालय का नामकरण विवाद चरम पर पहुँच गया है। भाजपा की रमन सिंह सरकार ने पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष स्व. कुशाभाऊ ठाकरे के नाम पर पत्रकारिता विश्वविद्यालय बनाया। भूपेश बघेल की सरकार ने इस विश्वविद्यालय का नाम बदलकर स्व. चंदूलाल चंद्राकर के नाम पर करने के लिए विधानसभा में बिल पास कर लिया है। कहते हैं बिल पर राज्यपाल ने दस्तखत करने की जगह राष्ट्रपति को भेज दिया। किसी संस्था से अपने पितृ पुरुष का नाम हटाना संभवतः भाजपा हाईकमान को भी अच्छा नहीं लग रहा है।
विवाद की शुरुआत कुलपति की नियुक्ति को लेकर शुरू हुई। कहते हैं मुख्यमंत्री के एक सलाहकार ने राज्य के बाहर के एक वरिष्ठ पत्रकार को कुलपति बनाने का आश्वासन दिया था। सलाहकार के कहने पर मुख्यमंत्री सहमत हो गए, लेकिन राज्यपाल उस नाम के लिए तैयार नहीं हुईं। राज्यपाल किसी और को चाहती थीं। इसके बाद तीसरे नाम पर सहमति बनी, लेकिन राज्यपाल ने नियुक्त कर दिया संघ की पृष्ठभूमि वाले को। वैसे भी पत्रकारिता विश्वविद्यालय में छात्रों की संख्या कोई खास नहीं है। विवाद से भविष्य पर सवाल उठने लगे हैं। अब देखें आगे-आगे क्या होता है।

वकीलों को जज बनाने का प्रस्ताव लटका
कभी-कभी काम होने से पहले हल्ला ज्यादा हो जाता है, ऐसा ही कुछ छत्तीसगढ़ में कुछ सीनियर वकीलों को जज बनाने के मामले में दिख रहा है। भूपेश बघेल की सरकार ने छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में जज बनाने के लिए तीन लोगों का नाम केंद्र सरकार को भेजा है। इसमें बेंच कोटे से एक नाम और बार कोटे से दो नाम हैं। याने एक न्यायिक अधिकारी और दो वकील। कहते हैं तीनों नाम सरकार की पसंद से भेजे गए।  प्रस्ताव दिल्ली जाने से पहले ही सीनियर वकीलों के चाहने वालों ने उनका कच्‍चा चिट्ठा भी दिल्ली भेज दिया। सुना है  केंद्र सरकार भी कांग्रेस शासित राज्यों के वकीलों को जज बनाने के प्रस्ताव पर ख़ास दिलचस्पी नहीं ले रही है। लिहाजा  मामला लटक गया है और भूपेश सरकार की मंशा और सीनियर वकीलों की इच्छा जल्दी पूरी होती नहीं दिख रही है। छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में 27 जजों के पद स्वीकृत हैं, पर वर्तमान में 11 जज ही कार्यरत हैं।

बात 14 वें मंत्री की
जब छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार थी, तब एक नेता प्रतिपक्ष को 14 वां मंत्री कहा जाता था और कुछ लोगों ने नेता प्रतिपक्ष की शिकायत हाईकमान से भी की थी। कांग्रेस की सरकार में एक भाजपा नेता को 14 वां मंत्री कहा जा रहा है। नेताजी नेता प्रतिपक्ष बनना चाहते थे, लेकिन बन नहीं पाए। कांग्रेस राज में नेताजी को मिली कुछ सरकारी सुविधाओं के कारण जनता में यह धारणा बनी है। कुछ भाजपा नेताओं की अपनी ही पार्टी के एक खेमे से, सत्ता में रहते भी पटरी नहीं बैठी और अब भी नहीं बैठ रही है।
नेताजी ने साल 2000 में पार्टी के फैसले के खिलाफ आवाज उठाई थी। नेताजी के विरोधी तेवर को देखकर तत्कालीन मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने उन्हें उपमुख्यमंत्री पद की पेशकश कर कांग्रेस में लाने की कोशिश की थी, लेकिन नेताजी ने भाजपा से नाता नहीं तोडा। यह अलग बात है कि नेताजी के जरिए तब जोगी जी को भाजपा के असंतुष्टों की थाह लग गई थी।

पुलिस के झगडे कौन सुलझाए
वैसे पुलिस का काम समाज में कानून-व्यवस्था बनाए रखना और लोगों को विवाद से बचाना है, लेकिन पुलिस महकमे में झगड़े हों तो उन्‍हें कौन सुलझाए, यह बड़ा सवाल है। कहते हैं शीर्ष स्तर पर पुलिस अफसरों में मनमुटाव और तल्खी ज्यादा है और उनको इसका खमियाजा भी भुगतना पड़ रहा है। कई सीनियर और अनुभवी के रहते ताकतवर पदों पर जूनियरों का कब्जा है और सीनियर महत्वहीन पदों पर। पुलिस महकमे के बड़े अफसरों के साथ सरकार का रवैया कॉरपोरेट व प्राइवेट सेक्टर जैसा दिखाई देता है, जहाँ वरिष्ठता नहीं, वरन रिजल्ट और लगन को तव्वजो दी जाती है।

हाथी और चींटी में टकराव
भले हाथी के सामने चींटी की कोई औकात न हो और हाथी के पैर तले चींटी कब दब जाय पता नहीं, पर कहते हैं चींटी हाथी की सूंड में घुसकर उसे परेशान तो कर ही सकती है।  ऐसा ही कुछ बिलासपुर संभाग के एक कांग्रेस नेता के साथ घटित हो गया है। कांग्रेस के कद्दावर नेता के जिले में उनसे पूछे बिना ही एक ऐसे व्यक्ति को जिले की कमान सौंप दी गई है, जिसे वे नापसंद करते हैं। कांग्रेस के दिग्गज नेता को यह नागवार गुजर रहा है।
बड़े नेता ने उनकी नापसंदगी के बावजूद उनके ही क्षेत्र में जिम्मेदारी देने को लेकर पार्टी के नेताओं को चेता दिया है और हाईकमान तक बात भी पहुंचा दी है। कद्दावर नेता की नाराजगी से जिला स्तर के नेता की विदाई तो मानी जा रही है। कहते है जिला स्तर का नेता भी चतुर चालाक निकला, वह बदले में मोलभाव करते जिले की नेतागिरी छोड़ने के एवज में सरकारी उपक्रम में पद मांगने लगा है।

वक्त का खेल
विधानसभा चुनाव के वक्त कांग्रेस के एक बड़े नेता ने पार्टी को मजबूत करने और विधानसभा सीट में जीत दिलाने के लिए पुराने व नाराज लोगों की वापसी के साथ उनसे कुछ वादे भी किए थे। राज्य में कांग्रेस की सरकार दो तिहाई से ज्यादा बहुमत से आ भी गई। बड़े नेता अब कैबिनेट मंत्री बन गए हैं। हाल में कांग्रेस की सरकार ने कर्मठ लोगों व जीत के शिल्पकारों को निगम-मंडलों के पद से नवाजा। उपक्रमों में पद बांटते समय बड़े नेता ने दुर्ग संभाग के एक नेता को पार्टी प्रत्याशी के पक्ष में काम करने के एवज में पद देने की वकालत की तो उनके ही सहयोगी मंत्री ने विरोध कर दिया। चुनाव के वक्त बड़े नेता भले ही पावर में थे। अब कहते हैं विरोध करने वाले नेता भूपेश सरकार में उनसे ज्यादा पॉवरफुल हो गए हैं। ऐसे में बात तो पॉवरफुल मंत्री की ही सुनी जाएगी। इसे ही कहते हैं समय का खेल।

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