राकेश अचल
भारतीय जनमानस में अनेक संस्कृतियां ऐसी रची-बसी हैं जैसे दूध-पानी में। ऐसी ही संस्कृतियों में से एक है ‘लिफाफा संस्कृति।’ लिफाफा संस्कृति कितनी पुरानी है ये बता पाना मुश्किल काम है लेकिन आप मानकर चलिए कि जबसे कागज जन्मा है, तभी से लिफाफा भी चल रहा है। लिफ़ाफ़े का कोई प्रमाण मोहन जोदाड़ो या हड़प्पा की खुदाई में नहीं मिला लेकिन भारत में जबसे अरबी जुबान चलन में आयी ये लिफाफा भी साथ में ही आ गया और एक बार जो आया तो आजतक वापस नहीं गया।
लिफ़ाफ़े की याद अचानक नहीं आई। ये तो हमारे मध्यप्रदेश के ट्रांसपोर्ट कमिश्नर की पुरानी लापरवाही से लिफाफा एक बार फिर चर्चा में आ गया। वे एक ‘लिफाफा वीडियो’ के साथ कोरोना की तरह सोशल मीडिया पर वायरल क्या हुए सरकार ने उन्हें उनके पद से हटा दिया। हमारी सरकार को किसी ने बताया ही नहीं कि बेचारे ट्रांसपोर्ट कमिश्नर ने ऐसा कोई असांस्कृतिक काम नहीं किया जो उन्हें ऐसी सजा दी जाए। वे बेचारे भारतीय संस्कृति में प्रचलित लिफाफा संस्कृति का निर्वाह ही तो कर रहे थे!
समाज में, सरकार में, व्यवस्था में, कारोबार में लेनदेन की पुरानी परम्परा है। लोग पहले बेशर्मी के साथ लेनदेन करते थे लेकिन जबसे लिफाफा वजूद में आया शर्मा-हया के साथ लेनदेन करने लगे। भारतीय समाज में कुछ और चले या न चले लेकिन कोई भी मौक़ा हो लिफाफा चलता ही है। बिना लिफ़ाफ़े के आप न किसी के गृह प्रवेश में जा सकते हैं और न शादी-विवाह में। जन्मदिन समारोह हो या कोई और मंगल कार्य, लिफाफा चलता ही है। व्यक्ति समारोह में जाने से पहले एक बार अपनी पत्नी को साथ ले जाना भूल सकता है लेकिन लिफाफा ले जाना कभी नहीं भूलता।
सरकारी व्यवस्था और व्यवहार में आपको चाहे नजराना देना हो या शुकराना बिना लिफ़ाफ़े के नहीं दिया जा सकता। जिसका लिफाफा जितना श्रेष्ठ होता है समाज में उसका रसूख उतना ज्यादा होता है। एक जमाना था जब ‘व्यवहार’ खुल्ल्म-खुल्ला दिया जाता था, भले ही राशि एक रुपया ही क्यों न हो। लेकिन फिर जमाना ऐसा आया कि सब कुछ लिफ़ाफ़े में दिया जाता है भले ही राशि करोड़ों में हो।
पहले लिफाफों का लेखा-जोखा रखा जाता था, घरों में तीन पीढ़ियों की लिफाफा पंजिकाएं होती थीं। इनका इस्तेमाल संदर्भ के तौर पर किया जाता था। लेकिन जैसे-जैसे समाज बदल रहा है, लिफाफा संस्कृति भी बदल रही है। देश में जब बहुचर्चित हवाला काण्ड हुआ तो लिफ़ाफ़े की जगह डायरी पकड़ी गयी थी। अगर उस समय लिफाफा इस्तेमाल किया जाता तो मुमकिन है कि हवाला काण्ड हुआ ही नहीं होता।
देश में जब कभी भी लिफ़ाफ़े को हेय दृष्टि से देखा गया और लेनदेन में उसके इस्तेमाल में कोताही बरती गयी, आदमी को भुगतना पड़ा। आज की पीढ़ी को पता नहीं होगा लेकिन हमारे जमाने में भाजपा के एक अध्यक्ष हुए थे बंगारू लक्ष्मण और कांग्रेस के एक दिग्गज हुए थे सुखराम। ये लिफ़ाफ़े का इस्तेमाल न करने के कारण ही धरे गए थे। लेकिन जब हमारे ट्रांसपोर्ट कमिश्नर को (एक पुराने वीडियो में) लिफाफा संस्कृति का सम्मान और पालन करते हुए भी पकड़ा गया और पद से हटाया गया तो हमारे साथ लिफ़ाफ़े को भी धक्का लगा।
इस घटना में टीसी साहब से ज्यादा मानहानि लिफ़ाफ़े की हुई। अब लिफ़ाफ़े में क्या था। ये तो कोई नहीं जानता? मुमकिन है कि कोई नुस्खा हो, कोई प्रेमपत्र हो, मंत्री जी का कोई सन्देश हो! कम से कम लिफ़ाफ़े की जांच तो की जाना चाहिए थी।
आज के कोरोनाकाल में जब सब कुछ दांव पर लगा हुया है तब लिफाफा संस्कृति को बचाना तो राष्ट्र गौरव का काम माना जाना चाहिए। जैसे कहते हैं न कि-‘पापी को पहला पत्थर मारने का हक उसे है जिसने पाप न किया हो’, इसी तरह किसी भी सरकार को लिफ़ाफ़े के खिलाफ जाने का हक तभी है जब उसके किसी मंत्री ने लिफाफा न लिया हो! लिफाफा न लेने वाला बिरला ही हो सकता है। हमारे पिताश्री सरकारी ओहदे पर थे इसलिए हमें तो लिफ़ाफ़े बाल्य काल से मिलते रहे हैं।
पत्रकारिता में तो होली-दीवाली लिफ़ाफ़े लेनदेन की पुरानी प्रथा है। एक जमाने में ट्रांसपोर्ट के अलावा जितने भी निर्माण विभाग हैं उनमें ऐसे शुभ अवसरों पर लिफाफे लेने के लिए लम्बी कतारें आते हुए हमने देखी हैं। हमारे जैसे लोग इन कतारों में भले न लगते हों लेकिन उन तक भी लिफाफा घर का पता बूझते हुए पहुँच ही जाता है।
समाज के जितने अनुभवी लोग हैं लिफाफा देखकर ही मजमून भांप जाते थे, कम से कम कवि और नेता के अलावा पुलिस वाले तो लिफ़ाफ़े के अंदर रखे खत या नोट का आकार-प्रकार और संख्या का अनुमान तो लगा ही लेते थे। आजकल लिफाफा संस्कृति संकट में है क्योंकि अब नेटबैंकिंग आ गयी है। लोग लिफाफे लेने के बजाय सीधे अपने खाते में खाने-पीने की चीजें ट्रांसफर करा लेते हैं, लेकिन जो डरपोक लोग हैं वे आज भी लिफाफों पर निर्भर हैं। लिफाफा न हो तो शायद कुछ भी न हो। अब लिफाफे लेने-देने के तरीके और अवसर बदल गए हैं। ये सब एहतियात के तौर पर किया जाने लगा है।
लिफाफा दरअसल एक समाजवादी संस्कृति है। राजा हो या रंक सब लिफ़ाफ़े में यकीन रखते हैं। आप मानें या न मानें हमने तो अपने महाराज की शादी में भी लिफाफा दिया था। राजा की लड़कियों की शादी में व्यवहार बिना लिफाफे के दिया था सो आजतक भुगत रहे हैं, क्योंकि सबको पता चल गया था कि हमने राजा के यहां नेग में कितने रूपये दिए थे? फौरी तौर पर लिफाफा आपकी औकात को छुपा लेता है।
औकात का पता तो लिफाफा खुलने के बाद ही चलता है और जब लिफाफा खुलता है तब गिने-चुने लोग मौजूद होते हैं। सरकारी हल्के में लिफाफा खुलने को अब टेंडर खुलना कहने लगे हैं। अब तो बड़े पदों पर पदस्थापना हो या किसी विश्वविद्यालय में कुलपति की नियुक्ति का मामला, बिना लिफ़ाफ़े के हो ही नहीं पाता। सबके नाम लिफ़ाफ़े में बंद होते हैं। अब लिफाफा खुलना किसी लाटरी के खुलने जैसा हो गया है।
मेरी छोटी सी समझ कहती है कि लिफाफा संस्कृति ही नहीं एक सभ्यता भी है, शास्त्र भी है इसलिए इसे हर स्तर पर संरक्षण मिलना चाहिए। सरकारें यदि किसी लिफाफा प्रेमी के खिलाफ कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई करती हैं तो उसका विरोध होना चाहिए। भले ही ये विरोध केवल विरोध के लिए हो। हमारी मान्यता है कि जब तक समाज में लिफाफा है तभी तक समाज में शर्मा-हया है। बिना लिफ़ाफ़े का लेनदेन तो आभूषणविहीन स्त्री जैसा है। इसलिए जहाँ तक हो सके आप लिफ़ाफ़े लीजिये, लिफाफे दीजिये भले ही कोरोना से बचने के लिए उन्हें ढंग से सेनेटाइज करा लीजिये।
अंतत: लिफाफा प्रेम और भाईचारे का प्रतीक है और ऐसे प्रतीक आज के समाज की सबसे बड़ी जरूरत हैं, क्योंकि समाज में सबसे ज्यादा खतरा इसी भाईचारे को है। भाई लोग चारे को छोड़ना ही नहीं चाहते। हमने तो लिफाफों का अनादर आजतक नहीं किया। आज भी अगर कोई भूले-भटके लिफाफे के साथ आता है तो हम उसे पूरे आदर के साथ स्वीकार करते हैं, भले ही लिफाफा बैरंग और बे-रंग ही क्यों न हो।