बाजारवाद में जन पत्रकारिता आखिरी सांस ले रही है संजय

-संजय उवाच-

दीपक गौतम

प्रश्न : कोरोना काल में बड़े अखबार के संपादक जी क्या कर रहे हैं संजय?
उत्तर : महाराज, कोरोना काल में संपादक जी अपने अधीनस्थों को लगातार त्रस्त कर रहे हैं। कई कलमकारों को संपादक जी ने अपने स्वामियों के निर्देश पर सड़क पर ला दिया है। आपको जानकर शायद आश्चर्य हो, लेकिन वे 10 से 30 हजार रुपये की मासिक दिहाड़ी वालों का इधर-उधर ट्रांसफर, इससे ज्यादा वेतन वाले पत्रकारों की नौकरी हरने और वेतनों को जीभर कटौती कर कास्ट कटिंग करने आदि के कार्य में लिप्त हैं। सम्भवतः सम्पादक जी न चाहते हुए भी ये सब करने के लिए विवश हैं महाराज। उनकी विवशता है कि पूर्व में मजीठिया वेज बोर्ड के मुद्दे की तरह ही इस बार भी पत्रकारों की बजाय वो अपने संस्था के साथ खड़े रहें। उन्हें अपनी नौकरी बचानी है राजन। आप तो जानते ही हैं कि बाजारवाद के इस दौर में पत्रकारिता का प्रबंधन करना वो सीख ही गए हैं प्रभु। ऐसे में प्रबंधन ही तो है जो उन्हें नौकरी सहित सुरक्षित रखेगा।

प्रश्न : मुझे दिव्य दृष्टि से बताओ संजय क्या मीडिया मालिकों के पास धन की इतनी कमी है कि पत्रकारों की नौकरी छीन ली जाए?
उत्तर : भगवन, अपने काले धन को छिपाने के लिए ज्यादातर सेठ जी लोगों ने अपना धन कोविड-19 के एक सरकारी मद में दान दे दिया है। इस विपरीत समय में कोरोना काल का हवाला देकर भी हर माह वेतन में कटौती प्रभावितों की मदद के बहाने लगातार की जा रही है प्रभु। लेकिन कितना धन वास्तव में जरूरतमंदों तक पहुंचता है, यह तो यक्ष प्रश्न है राजन। अतएव मैं तो इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि इन धनकुबेरों के पास इतनी भी धन की कमी नहीं है कि कुछ माह पत्रकार साथियों को पूरा वेतन न दे सकें। ये तो विपत्ति को अवसर में बदल रहे हैं। इनके लिए धन की समस्या इतनी भी विकराल नहीं है भगवन। इसके पहले पेड न्यूज, न्यूज मैनेजमेंट, विज्ञापन, सत्ता की ब्रांडिंग जैसे और कई उपक्रमों से इन्होंने बहुत धन जमा किया है प्रभु।

प्रश्न : तो फिर कोरोना काल में अखबारों के पन्ने और अखबार क्यों लगातार घट रहे हैं संजय?
उत्तर : अखबारों का काम नहीं सिमटा है भगवन, उनका विज्ञापन, पेड न्यूज, न्यूज़ मैनेजमेंट आदि घट गया है। यूँ भी ज्यादातर अखबार अब विज्ञापनों के लिए ही तो निकल रहे थे। अखबार में अब खबरें तो किसी नमकीन पदार्थ में पड़ने वाले नमक की मात्रा जितनी होती जा रही हैं। इस समय पेड न्यूज से लेकर सत्ता की ब्रांडिंग और धन कमाने के दूसरे हथकंडों तक सब बाजार ठंडा हो गया है। ऐसे में सेठ लोग असहज हो रहे हैं प्रभु। परन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि इसके पहले मीडिया मालिकान ने मुनाफाखोरी नहीं की। इन्होंने हर प्रकार से धन समेटा है महाराज। भारतवर्ष में 80 फीसदी से ज्यादा मीडिया व्यवसाय धनकुबेरों के पास है। ऐसे में छोटे मीडिया संस्थान कोरोना काल का सहारा लेकर इस धंधे से बाहर निकल रहे हैं। बड़े संस्थान अपना स्वरूप बदल रहे हैं, इंटरनेट के युग में सब डिजिटल की ओर बढ़ रहे हैं। क्योंकि कम खर्चा, बेहतर भविष्य, ज्यादा मुनाफा जैसा लुभावना पथ उन्‍हें दिख रहा है।

प्रश्न : कोरोना काल में संपादक और सेठ जी खबरों पर क्या काम कर रहे हैं संजय?
उत्तर : राजन, ज्यादातर तो सत्ता की विरदावली गा कर रहे हैं। अधिकांश के चेहरे देखकर तो किसी चारण या भाट की स्मृति हो आती है प्रभु। बाजारवाद के दौर में जन पत्रकारिता और संपादक जी की नैतिकता भी आखिरी सांस ले रही है। अब मीडिया मालिकान के हित ही पत्रकारिता होते जा रहे हैं। ऐसे में सत्ता की विरदावली गाने में सम्पादक कम अखबारी प्रबंधकों को कोई पराजित नहीं कर सकता है भगवन। हालांकि मुझे कुछ मुट्ठी भर लोग ऐसे भी दिख रहे हैं, जो गुजरात के फर्जी वेंटिलेटर, पीएम केयर्स फंड के ब्‍योरे, मजदूरों की बदहाली और खस्ताहाल अर्थव्यवस्था होने की जांच-पड़ताल कर सच को जनता के सामने ला रहे हैं। राजन, अब इंटरनेट के युग में कुछ भी दबा नहीं रह पाएगा। सोशल मीडिया का ब्रम्हास्र जनता के पास है प्रभु। बाकी तो आप जानते ही हैं। आपकी ही तरह सबके अपने मोह और महत्वाकांक्षाएं हैं। इससे अधिक भला मैं और क्या कह सकता हूँ।

प्रश्न : संजय तुम फिर मुझे व्यंग्य बाण से भेदने की कोशिश कर रहे हो? मेरी और संपादक जी की महत्वाकांक्षाओं में भेद नहीं है क्या?
उत्तर : संपादक जी की कलम तो उनके स्वामियों के पास   ही गिरवी समझिए प्रभु। वे चाहकर भी वह नहीं लिख पा रहे हैं, जो लिखना चाहिए। ऐसे में लोकतंत्र के ज्यादातर दुःखद किस्से लॉकडाउन की ही तरह लॉक हैं। आप पुत्रमोह में थे, सम्पादक जी को अपने कॅरियर का मोह है। आगे बढ़ने की चाह है। वे इसके लिए बहुत कुछ पैरों तले रौंदकर आगे बढ़ रहे हैं। कभी खुद रिपोर्टर या डेस्क पर रहे इन्हीं संपादक जी ने सेठ जी के कहने पर मजीठिया की लड़ाई लड़ने वाले अपने अधीनस्थ सारे पत्रकारों की आवाजों को दबाने का काम बखूबी किया है। इसलिए उनकी महत्वाकांक्षा भी आपकी तरह बलवती है, जो मोहवश उन्हें आज यहां तक ले आई है। कोरोना काल में सम्पादक जी की नौकरी पर भी तलवार लटक रही है। कहावत है न महाराज बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होए।

प्रश्न :  तनिक दिव्य दृष्टि से देखकर बताओ संजय, क्या पीड़ित पत्रकार कोरोना काल के बाद खुद के अनादि काल से हो रहे शोषण के विरुद्ध खड़े हो पाएंगे?
उत्तर : राजन, पत्रकारों के लिए अपने शोषण के खिलाफ खड़े होने का समय तो यही कोरोना काल ही है। यदि हो सका तो इसी समय से इनका एकजुट होना शुरू होगा। इंटरनेट और सोशल मीडिया की ताकत इनकी आवाज को बुलंद करने का माध्यम बनेगी। इस आपदा को अवसर में बदलने का यही सही समय होगा महाराज। क्योंकि मैं देख रहा हूँ कि भविष्य में पत्रकार या मीडिया मजदूर बड़े-बड़े संस्थानों के बाड़ों से आजाद हो जाएंगे और इंटरनेट एवं सोशल मीडिया की ताकत से उभरी वैकल्पिक डिजिटल पत्रकारिता की ओर अग्रसर होंगे। सेठ जी लोगों के गिने-चुने संस्थान ही जनता की ख़बर करेंगे, क्योंकि जो झूठ परोसेंगे वो नकार दिए जाएंगे। नई पीढ़ी अखबार, टीवी से अधिक इंटरनेट पर समय देगी। परन्तु इस डिजिटल युग में खबरों की विश्वसनीयता का बड़ा संकट खड़ा होगा। इसे दुरुस्त होने में समय बहुत लगेगा, लेकिन एक वक्त ऐसा भी आएगा जब जनता के पास अपने-अपने क्षेत्र का एक स्वतंत्र और निष्पक्ष मीडिया होगा, जिसे जनता के बीच के कुछ लोग ही लोकतांत्रिक अंदाज में चला रहे होंगे। जनता का, जनता के लिये, जनता की ओर से चुना गया मीडिया। आगे चलकर इसके सामने सरकारें भी पानी भरती नजर आएंगी। लेकिन यह होने में काफी समय लगेगा भगवन।

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