अजय बोकिल
सोशल मीडिया के वैश्विक साम्राज्य का अदना-सा नागरिक होने के नाते एक डर मुझे अक्सर सताने लगा है। डर इस बात का कि बोर्ड परीक्षाओं के रिजल्ट हो, किसी की सालगिरह हो, किसी की पुण्य तिथि हो, किसी के पुरस्कार हाथ लग जाए, किसी की ताजपोशी हो, किसी की तैनाती हो या किसी का अचानक परिवार प्रेम जाग जाए और वह आपसे शुभकामनाओं और आशीर्वाद की खैरात इस आग्रह के साथ मांगने लगे कि ‘इसे आप के आशीर्वाद की जरूरत है’ तो कोई क्या करे, सिवाय अगले की इच्छापूर्ति के।
बीते एक हफ्ते से देश और राज्यों की बोर्ड परीक्षाओं के नतीजे आ रहे है। बच्चे भी धड़ाधड़ इतने ज्यादा नंबरों से पास हो रहे हैं कि अपने स्कूली जीवन में पास होकर आज सठियाने तक उम्र के सफर पर अनकही शर्मिंदगी महसूस होने लगी है। सोशल मीडिया में मैंने जितने होनहारों के नाम तस्वीरें और प्राप्तांकों के परसेंटेज देखे तो लगा कि उस टैलेंट को खुद आगे बढ़कर बधाई दूं, जिसके 90 फीसदी से कम अंक आए हों। लगा कि जब एवरेस्ट पर चढ़ने का चार्म भी आम हो गया हो तो भोपाल की मनुआभान की टेकरी पर चढ़ना भी बड़ी उपलब्धि है।
मेरिट को पल-पल जताने वाली अंकों की इस बौछार के चलते यूं ही अपने बचपन में झांका तो याद आया कि तब बोर्ड परीक्षाओं का रिजल्ट अखबार में छपने पर ही पता चलता था। कोई जुगाडू या अखबार में अप्रोच रखने वाला जरूर पहले पता कर लेता था, लेकिन सामान्य तौर पर परीक्षार्थियों की व्याकुल नजरें सुबह-सुबह अखबार लाने वाले उन हॉकरों पर लगी रहती थीं, जो आवाज लगाकर रिजल्ट वाला विशेष अंक बेचा करते थे। मौका लगे तो 20 पैसे के अखबार की प्रति ज्यादा में भी बेच लेते थे।
तब के और आज के रिजल्ट देखने की मानसिकता में फर्क यह है कि अब सब एक क्लिक पर उपलब्ध है, बशर्ते आप सही जगह क्लिक करें। अब रिजल्ट डिवीजन वाइज खोजना नहीं पड़ता। ब्लड टेस्ट रिपोर्ट की तरह वह सीधे आपके नंबर और परसेंटेज बता देता है। हमारे जमाने में लोग थर्ड डिवीजन से आहिस्ता-आहिस्ता ऊपर की ओर बढ़ते थे। सेकंड डिवीजन हो तो और अच्छा। गुड सेकंड नाम की भी एक ‘आत्मसंतोषी’ केटेगरी हुआ करती थी, जिसमें 55 से 59 फीसदी अंक वाले शान से जगह पाते थे। उसके बाद 60 परसेंट का हिमालयी रास्ता शुरू होता था।
फर्स्ट क्लास में पास हुए तो समझो गंगा नहा लिए। यानी कहीं भी अच्छे कोर्स और कॉलेज में एडमिशन की गारंटी। लेकिन आजकल के नतीजे और परसेंटेज देखता हूं तो मन बैठा जाता है। अब तो अमिताभ की तर्ज पर ब्रिलियंट स्टूडेंट की लाइन ही 90 परसेंट से शुरू होती है। 60 वाले तो कहीं गिनती में ही नहीं होते। गुड सेकंड या थर्ड डिवीजन जैसे शब्द तो ट्रैश में चले गए हैं। यूं कहें कि 60 परसेंट का मतलब अब पास होना है। होशियार कहलाना है तो आपको नब्बे के पार ही जाना है। इस क्रिकेट में दौड़ कर रन बनाने वालों की कोई जगह नहीं है।
मैं समझ नहीं पाता कि बीते चार दशकों में बच्चों में ऐसी कौन सी बौद्धिक क्रांति या प्रजातीय उत्परिवर्तन हो गया है कि वो अंकों के आसमान को इतनी आसानी से छूकर अपनी मुट्ठी में बंद कर लेते हैं। क्या यह योग्यता का लोकव्यापीकरण है या परीक्षा प्रणाली इतनी सरल हो गई है कि नाइंटी परसेंट से नीचे लाना मानो फेल होके के माफिक हो गया है? हैरानी की बात यह है कि इतने भारी-भरकम अंक लाने के बाद भी ज्यादातर बच्चे अभिव्यक्ति के स्तर पर उन्नीसे ही दिखते हैं। उलटे सोशल मीडिया पर एक्टिव रहने को ही वो जीवन की सच्चाई मानने लगते हैं।
इसका यह अर्थ नहीं है कि परीक्षाओं में अच्छे अंक लाना बाएं हाथ का खेल है। यकीनन परीक्षा अभी भी परीक्षा की तरह होती होगी, भले ऑनलाइन हो। बच्चे भी पढ़ाई करते ही होंगे। हो सकता है कि प्रतिस्पर्द्धा में आगे निकलने की इच्छा या दबाव उन्हें इतने झोली भर अंक लाने को प्रेरित करते होंगे। हालांकि कई बार ये डर भी लगता है कि बच्चे इतने अंक कहीं अपने बचपन की कीमत चुका कर तो नहीं ला रहे?
कुछ जानकारों का कहना है कि अंकों की इस ‘महालूट’ की वजह वो परीक्षा प्रणाली है, जिसमें वस्तुनिष्ठ सवालों का ही बोलबाला होता है। डिस्क्रिप्टिव जवाबों का जमाना वैसे ही चला गया है, जैसे कि पत्र लिखना अब बीते वक्त की कला है। आज जब डिजिटल मीडिया में खबरें भी ‘वन मिनिट या टू मिनिट रीड’ के हिसाब से परोसी जा रही हों, तब लंबे सवालों के लंबे जवाब देने का जोखिम अब कोई नहीं उठाता। यह समय तेजी का है और यह तेजी नंबरों में भी उछलते सेंसेक्स की तरह साफ दिखाई पड़ती है।
पहले भी मां बाप अपने बच्चों की कामयाबी से गौरवान्वित होते थे, लेकिन इसका अहसास दूसरों को कराने की सुध उन्हें नहीं होती थी। खुशी का सेलीब्रेशन एकाध लड्डू खिलाने, बुजुर्गों के पैर छूने और ईश्वर को नमन करने पर खत्म हो जाता था। अभिभावक भी दो ही शब्दों से वास्ता रखते थे पास या फेल। लेकिन बच्चे इन्हीं के बीच से जीवन की राह बूझते हुए आगे बढ़ते जाते थे।
आजकल बच्चों के भारी भरकम परसेंटेज से भी ज्यादा कौतुहल मुझे ‘दे दाता के नाम’ टाइप याचित शुभकामनाओं-सांत्वनाओं में लगता है। मसलन किसी का बर्थ डे है तो अभिभावक तत्काल सोशल मीडिया पर पोस्ट कर उसके लिए फ्रेंड्स को शुभकामनाओं का रिमाइंडर देने से नहीं चूकेंगे। इसके बाद भी आपने कोई बधाई या शुभकामना नहीं डाली तो आपका नाम ‘मित्रद्रोही’ की लिस्ट में शुमार हो सकता है।
आप मानकर चलिए कि जीएसटी की तरह आपको हर मांगी गई शुभकामना डिलीवर करनी ही है। ये शुभेच्छाएं भी अमूमन उनके लिए मांगी जाती हैं, जिनके बारे में आप ज्यादा जानना तो दूर, अक्सर कुछ भी नहीं जानते। मसलन कौन किस का बेटा या बेटी है, दामाद है, सास है, बापूजी हैं, माताजी हैं, भांजा है, भतीजी है। लेकिन चूंकि वो है और फेसबुक पर है, तो दाद तो आपको देनी ही होगी। क्योंकि यही आपका सोशल मीडियाई कर्तव्य है।
बात अगर शुभकामनाओं तक ही होती, तब भी ठीक था। आजकल लोग सांत्वना और मातमपुरसी भी मांग कर लेने लगे हैं। पिछले दिनों एक मातृभक्त ने मां के अंतिम संस्कार के पहले अर्थी पर रखी पार्थिव देह की तस्वीर यह कहकर पोस्ट की कि ‘मां चली गई..।‘ यानी आप दो आंसू जरूर बहाएं। उस बंदे को मां के अंतिम संस्कार से ज्यादा चिंता इस बात की थी कि फेसबुक पर मां की डेडबॉडी का स्टेटस अपडेट होने से न रह जाए।
कोई बीमार हुआ तो उसके जल्द ठीक होने की दुआ करना सदेच्छा से ज्यादा आपकी मजबूरी है, क्योंकि आप सोशल मीडिया फ्रेंड हैं। परस्पर भरोसे का आलम यह है कि जब तक आप अस्पताल के आईसीयू में वेंटीलेटर वाली फोटो पोस्ट नहीं करते, तब तक कोई नहीं मानेगा कि आप बीमार हैं। तस्वीर पोस्ट हुई नहीं कि ‘गेट वेल सून’ के कमेंट आना शुरू।
इन याचित (मांगी गई) शुभकामनाओं, सांत्वनाओं और दुआओं में लोगों का वास्तविक इन्वाल्वमेंट कितना होता है, कहना मुश्किल है। लगता है कि हम जीवन का हर पल अब ‘वर्चुअली’ ही एंज्वाय करने पर विवश हैं। सफलता पर सिर पर स्नेह भरा हाथ फेरना, हर जन्म दिन को जिम्मेदारियों के बढ़ते बोझ के रूप में देखना-मनाना, सेलीब्रेशन को इंवेट बनाने से यथासंभव परहेज करना अब आउटडेटेड होने की निशानी है।
पहले अच्छी या बुरी खबर मिलते ही लोग खुद मिलने आते या जाते थे। सफलता की सिर्फ सूचना दी जाती थी। उसी का रिप्लाय शुभकामना और दुआओं के रूप में आता था। उसी तरह दुख या गमी की इत्तिला दी जाती थी, लोग आंसू पोंछने खुद जुटने लगते थे। सोशल मीडिया ने समाज में ‘एक्चुअल’ दूरियां बढ़ा दी हैं। लोग एक मैसेज पोस्ट कर या कमेंट ठोक कर अपना सामाजिक दायित्व पूरा कर लेते हैं। विडंबना तो यह है कि आपकी व्यक्तिगत बधाई या दुहाई भी सोशल मीडिया कमेंट या ट्रेंड के मुकाबले बेमानी हो सकती है।
ऐसा नहीं कि जो बदल रहा है, सब खराब और अवांछनीय है। तर्क हो सकता है कि शुभकामनाएं मांग लेने में बुराई ही क्या है? एक कमेंट या एक लाइक डाल देने में आपकी जेब से क्या जाता है? उलटे आप खुद को अनफ्रेंड होने के दंड से बचा लेते हैं। सही है। वक्त बदला है, बिन मांगे मोती तो क्या, भीख भी नहीं मिलती। ये तो महज बधाई-वधाई का मामला है।