अजय बोकिल
दुर्दांत अपराधी विकास दुबे के (तयशुदा) एनकाउंटर के बाद जिस तरह टीवी चैनलों और राजनीतिक दलों ने सवालों की झड़ी लगाई, उससे लगा कि मानो यह बूझे हुए जवाबों का सवालों से एनकाउंटर है। जहन में यह सवाल भी उठा कि लोकस्मृति में कौन-सा न्याय कायम रहता है? अपराधी को निपटाने वाला त्वरित न्याय अथवा लंबी कानूनी प्रक्रिया के उपरांत होने वाला न्याय? खतरनाक अपराधी का किसी भी रूप में जिंदा रहना ज्यादा घातक है या उसका खत्म हो जाना ही न्याय की आश्वस्ति है?
अपराधियों के एनकाउंटर की कहानियां लोकस्मृति में ‘हीरोइक’ इमेज के साथ जिंदा रहती हैं या फिर जनता के धैर्य की परीक्षा लेने के बावजूद विधि सम्मत न्याय ही लोगों को सच्चा न्याय महसूस होता है? क्यों कसाब और निर्भया कांड के आरोपियों को मिली फांसी की सजा से ज्यादा लोगों को उनकी बिरयानी और कानून के साथ आंख मिचौली याद रहती है? क्यों लोग हैदराबाद रेप कांड के आरोपियों के न्याय चौखट पर पहुंचने से पहले ही पुलिस द्वारा एनकाउंटर कर दिए जाने पर फूल मालाएं लेकर दौड़ पड़ते हैं? और क्यों निर्भया के निर्मम बलात्कार और हत्या करने के आरोपियों को अंतत: फांसी पर चढ़ाने के बाद भी लोकमानस वैसा खुश नहीं होता, जैसा कि उसे सभ्य समाज का सदस्य होने के नाते होना चाहिए?
ये तमाम पेचीदा और आत्ममंथन करने वाले सवाल फिर पूछे जा रहे हैं तो एक बार फिर समाज दो खेमों में बंटता दिख रहा है। एक वो जो अपराधियों को कानून की हांडी पकने तक पालने के पक्ष में कतई नहीं है, दूसरा वो, जो सभ्य समाज की पहचान इसी को मानता है कि अपराधी खुद कुछ भी करे, लेकिन उसे सजा देश के कानून के मुताबिक और उसकी पूरी प्रक्रिया के पालन के बाद ही मिलनी चाहिए।
इसका एक अर्थ यह है कि विकास दुबे जैसे खूंखार अपराधी ने भले 8 पुलिसवालों का ‘एनकाउंटर’ कर दिया हो, लेकिन उसको सजा-ए-मौत (अगर दी जा सके तो) कानून की लंबी सुरंग से गुजर कर ही दी जानी चाहिए। भले ही इसमें कितना वक्त लगे। क्योंकि यही संविधान सम्मत प्रक्रिया है। दूसरा विचार यह कहता है कि जब विकास दुबे जैसे मुजरिम ने 8 पुलिस वालों को मारते वक्त इस बात का रत्ती भर विचार नहीं किया कि उनकी विधवाओं और बच्चों का क्या होगा, उनके मंगलसूत्र अपराध की किस धारा के तहत सुरक्षित होंगे, ऐसे नराधम को क्या जीने का हक भी है?
यह विचार भी मन को झकझोर देता है कि विकास के गुर्गे जब पुलिसवालों को मार रहे थे, तब खून की यह होली विकास और उसकी पत्नी सीसीटीवी कैमरों के माध्यम से मोबाइल पर देख रहे थे। उसी विकास की पत्नी, एनकाउंटर के बाद अपने पति के अंतिम दर्शन की भीख पुलिस से मांग रही थी। आखिर किसका वैधव्य समाज कमतर माने? हम इसे संवेदना की किस भाषा में समझें और किस तर्क से इसे जायज ठहराएं?
दरअसल मानवाधिकार और वैधानिक न्याय के सवाल इसी बिंदु पर आकर लड़खड़ाने लगते हैं। शायद इसलिए कि अपराध या अन्याय का शिकार हमारा अपना कोई नहीं होता। मरने वाला या मारने वाला भी कोई नजदीकी नहीं होता। हम दूर बैठे एक तराजू में नैतिक-अनैतिक, राजनीतिक और गैर राजनीतिक पाप-पुण्य का वजन तौलते रहते हैं। यह कड़वी सचाई है कि विकास जैसे अपराधियों को पालने वाला भी यही समाज है। राजनेताओं और पुलिस से उसकी सांठगांठ गहरी थी।
बिकरू गांव और आसपास का इलाका उसी के रहमो करम पर जिंदा था। जो लोग बेबस थे, उनकी बेबसी का पुरसाने हाल भी कोई नहीं था। अपने तगड़े नेटवर्क के चलते विकास तमाम हत्याओं के मामलो में साफ बरी हो गया था। जिनकी हत्याएं हुईं उनके परिजन ‘कानून के राज’ का कोई सबक याद नहीं कर सके। यहां तक कि भाजपा सरकार के एक मंत्री स्तर के नेता की थाने में हत्या के बाद भी कोई पुलिस वाला विकास के खिलाफ कोर्ट में गवाही देने की हिम्मत नहीं जुटा सका।
क्योंकि उन्हें पता था कि ऐसा किया तो बाद में उन्हें बचाने कोई मानवाधिकारवादी नहीं आएगा। उनके सामने दो ही विकल्प थे या तो वो विकास जैसों के कोप से खुद को बचा लें, या फिर अपनी नौकरी बचा लें। भले ही उन्हें आलोचना का शिकार होना पड़े। क्योंकि कानून अपराधी को सजा भले दे दे, लेकिन सजा दिलवाने वाले के जिंदा रहने की गारंटी नहीं लेता। ऐसे में आम इंसान क्या करे, किसे सही माने?
यहां तर्क हो सकता है कि अपराधी तो अपराधी है, वह कुछ भी कर सकता है, लेकिन उसे सजा तो कानून के हिसाब से और अपेक्षित मात्रा में मिलनी चाहिए। क्योंकि समाज कानून से ही चलता है, बंदूकों से नहीं। वह कानून जो हमने ही बनाया है। अगर व्यवस्था बंदूकों से चलने लगे तो फिर लोकतंत्र या ठोकतंत्र के बीच फर्क ही क्या रह जाएगा? हम सभ्य समाज के हामी हैं। आदिम समाज के नहीं और सभ्य समाज के सजा देने के तरीके असभ्य कैसे हो सकते हैं?
यहां फिर एक पेंच है कि न्यायदान की प्रक्रिया कैसी हो, कितनी लंबी हो, किसके हितकर हो? न्याय मिलने की वो क्या समय सीमा हो कि जिसके भीतर हुआ न्याय लोगों को ‘सचमुच न्याय’ महसूस हो? जिसमें उसकी मानवीय गरिमा भी बची रह सके? इन सवालों का कोई ठोस जवाब किसी के पास नहीं है। यहां तक कि हैदराबाद रेप कांड के आरोपियों के एनकाउंटर के बाद जब यही सवाल उठा था तो एक वरिष्ठ न्यायाधीश ने कहा था कि न्याय प्रक्रिया की समयावधि इस तरह घटाना संभव नहीं है। अर्थात वह अपने ढंग से अपने तकाजों के साथ ही चलेगी। भले आप को यह धैर्य की परीक्षा लगे। तो फिर वो पीडि़त इंसान अदालत की चौखट चढ़े ही क्यों? चढ़े भी तो किसके भरोसे?
एक नसीहत हो सकती है कि कानूनी पेचीदगियों को नैतिक सवालों के साथ गड्डमड्ड न करें। क्योंकि ‘वर्दी का अपराध’ सिविलियन के अपराध से ज्यादा बड़ा है। यानी विकास के सीधे एनकाउंटर की बजाए उसे कोर्ट में अपराधी सिद्ध कर बाकायदा सजा दिलवानी चाहिए थी। बात बिल्कुल सही है। लेकिन यहां भी आम नागरिक की दुविधा यह है कि जो अपराधी जेल से भी मर्डर करवाते हों, उनकी सजा का भी क्या अर्थ है?
ऐसी ‘सजा’ का उस सामान्य व्यक्ति के लिए क्या मतलब है, जिसके पास कोई सुरक्षा कवच नहीं है। वह किसके भरोसे जीए? कोर्ट में याचिकाएं लगाने वालों के भरोसे या फिर अपनी किस्मत के भरोसे? बेशक, अपराधियों से निपटने के तरीकों और नीयत की दरार से ही सियासत का मुहाना भी खुलता है। यूपी में पुलिस ने पहले ही तय कर लिया था कि विकास को ठिकाने लगाना है, सो लगा दिया। यूपी के सीएम आदित्यनाथ ने कानपुर हत्याकांड की शर्मिंदगी से बचने के लिए कहा था कि अपराधियों को ऐसी सजा दी जाएगी, जो नजीर बनेगी।
लेकिन ये नजीर किसके लिए होगी, यह अब भी साफ नहीं है। क्योंकि विकास जैसे एनकाउंटर तो पुलिस पहले भी कई बार कर चुकी है। लेकिन एक विकास मरा तो दस नए पैदा हो गए। अगर योगी ने यह नजीर अपने सहकर्मी राजनेताओं को दी है तो उन्हें शायद ही कोई फर्क पड़े, क्योंकि यूपी जैसे राज्यों की तो पूरी सियासत ही ‘विकासवादी’ है। इस एनकाउंटर ने उन संभावनाओं का भी एनकाउंटर कर दिया है, जो कई चेहरों को बेनकाब कर सकती थी। इन पोशीदा चेहरों में नेता भी हैं, अफसर भी हैं, कारोबारी भी हैं और कानून के रखवाले और कानून को ठेंगे पर रखने वाले भी हैं।
जब कानून के राज की बात होती है तो बड़ा सवाल यही सामने आता है कि आखिर इसमें आस्था है किसकी? कानून बनाने वालों की, उसके रखवालों की या फिर उसका पालन करने वालों की? अगर किसी की नहीं है या फिर ये आस्था सुविधानुसार है तो फिर कानून का झुनझुना है किसके लिए? क्योंकि इससे डरता केवल वही है, जिसे खुदा के भी साथ होने का भरोसा नहीं रहता। उलटे वह विकास जैसे कानून को धता बताने वालों को बेखौफ विचरता देखता है।
बावजूद इन सच्चाइयों के विकास के कथित एनकाउंटर पर सवाल उठाने का हमें पूरा हक है। क्योंकि हम यही कर सकते हैं। लेकिन सवालों की लिमिटेशन यही है कि वो जवाब नहीं होते। जिनके पास जवाब हैं, वो इसे अपनी सुविधा और नजरिए के साथ देते हैं। कानूनी ढंग से सजा देना ही वांछित न्याय है, लेकिन लोगों में विश्वास जगाने के आग्रह के साथ। लोग दशहरे पर दो मिनट में रावण मारकर सिर्फ इसलिए खुश हो जाते हैं कि कम से कम अभी तो समस्या से निजात मिली। लेकिन रावण भी अगर आज जैसी न्याय प्रक्रिया से गुजरता तो उसका अंत किस रूप में होता, उस संभावित रामायण पर भी थोड़ा विचार करें।