आकाश शुक्ला
‘पूर्णता’ या शत-प्रतिशत सही होना ईश्वरीय गुण है। कोई भी व्यक्ति, सरकार, समाज, धर्म न तो शत-प्रतिशत सही हो सकता है, न ही शत-प्रतिशत गलत। हम जब किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व का आकलन करते हैं तो यह बात आती है कि कोई कितना भी महान क्यों ना हो शत-प्रतिशत सही नहीं होता। उसमें कुछ ना कुछ नकारात्मक बातें भी रहती हैं। परंतु उसके व्यक्तित्व की अच्छाइयां, बुराइयों पर भारी पड़ती हैं।
जब किसी व्यक्ति की अच्छाइयां उसकी बुराइयों को न्यूनतम कर देती हैं तब ही वह व्यक्ति महानता की ओर कदम बढ़ाता है। अंततोगत्वा उसकी यही अच्छाइयां उसे महान बनाती हैं। अपने गुणों को नियंत्रित करने की यही कुशलता किसी भी व्यक्ति को आजीवन और उसके जीवन के बाद भी दुनिया में याद रखने योग्य बना देती हैं। इसे ही हम महानता के नाम से जानते हैं। अच्छाइयां सदैव अनुकरणीय, उदाहरणीय और प्रशंसनीय होती है ।
इसके ठीक विपरीत एक अन्य स्थिति का निर्माण होता है। जो व्यक्ति के पतन का कारण बनता है। वही व्यक्ति जो अपनी अच्छाइयों को प्रकट कर, बड़ा कर, उन पर अडिग रहकर और जीवन में उन्हें अपनाकर तथा अपनी बुराइयों को नियंत्रण में रख कर जीवन को एक आदर्श की तरह जीता है और महानता को प्राप्त करता है, यदि ऐसा ही व्यक्ति इसके विपरीत आचरण को अंगीकृत कर ले मतलब अपनी अच्छाइयों को दबा ले और तात्कालिक लाभ के लिए बुराइयों को प्रकट करे, उन्हें बढ़ाए, उनका प्रदर्शन करे तो वह निश्चित तौर पर पतन और निकृष्टता को उपलब्ध होता है।
एक ही व्यक्ति में दोनों संभावनाएं या आशंकाएं एक साथ विद्यमान होती हैं। वही व्यक्ति महानता को और वही व्यक्ति निकृष्टता को प्राप्त हो सकता है। मानव, दैव और दानव के गुणों को एक साथ जीता है। अब यह उसके हाथ में है कि वह अपने आप को किस तरह प्रोजेक्ट करे। दैव की तरह या दानव की तरह। इसी संदर्भ में स्वर्ग और नरक की कल्पना की गई है। यदि व्यक्ति तात्कालिक लाभ के चक्कर में पड़कर अपने दुर्गुणों को प्रमोट करता है या प्रोजेक्ट करता है तो वह इसी जीवन में नर्क को प्राप्त होता है।
और यदि वह धैर्यपूर्वक अपनी अच्छाइयों पर अडिग रहता है और उन्हीं गुणों का विकास करता है और उन्हें ही समाज में फैलाता है तो वह महानता को प्राप्त होता है। देवत्व को प्राप्त होता है। अपने आसपास भी एक स्वर्ग का निर्माण कर लेता है। अपने जीवन को स्वर्ग बना लेता है। जो कुछ भी है वह यहीं भोगना पड़ता है।
यह भी एक अद्भुत तथ्य है कि इन गुणों और दुर्गुणों को प्रबंधित किया जा सकता है। सुधारा जा सकता है। अपने दुर्गुणों को स्वीकार कर उन पर विचार करके। इंसान बुरा नहीं होता, परंतु अपनी बुराइयां और गलतियों को स्वीकार नहीं करना जरूर बुरा होता है। क्योंकि जब हम हमारी गलतियां और बुराइयां स्वीकार नहीं कर पाते तो हम उन्हें सुधारने का प्रयास भी नहीं करते हैं। यही हममें बुराइयां बढ़ाता है और अच्छाइयां कम करता है।
यह सच है कि यदि व्यक्ति शत-प्रतिशत सही हो जाए तो वह व्यक्ति नहीं रह जाता ईश्वर हो जाता है। पूर्णता मानवीय स्वभाव नहीं है। लेकिन पूर्णता की ओर जाने की कोशिश जरूर मानवीय स्वभाव है। यह कोशिश हर इंसान को करना चाहिए। यही स्वभाव व्यक्ति को अच्छा और महान इंसान बनाने का काम करता है। इंसानियत को भी जीवित रखता है। इंसानियत ही हमें अन्य लोगों से हटकर पूर्णता की ओर ले जाती है, यह जिंदगी भर चलने वाली एक सतत प्रक्रिया है, और यह समाज में हमारी स्वीकार्यता बढ़ाती है।