हेमंत पाल
इन दिनों मध्यप्रदेश में भाजपा असमंजस में हैं। पार्टी दिखा तो नहीं रही, पर समझ जरूर रही है कि उसके लिए आने वाला वक़्त अच्छा नहीं है। सत्ता बचाने के लिए भाजपा को 24 उपचुनाव में से कम से कम 10 सीटें तो जीतना ही होंगी। 24 में से 22 सीटें तो सिंधिया के साथ कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए लोगों की हैं। भाजपा की दिक्कत ये है कि उसे पार्टी के अपने वफादारों को किनारे करके इन बागियों को इसलिए जिताना है, क्योंकि यह उसकी सियासी मज़बूरी है।
लेकिन, यदि 22 में से ज्यादातर बागी जीत गए, तो उसे हमेशा सिंधिया की प्रेशर पॉलिटिक्स का शिकार होना पड़ेगा। अभी तक जो पार्टी खुली गुटबाजी से बची थी, उसमें सत्ता के दो केंद्र बन जाएंगे। ऐसे में क्या ये आशंका सही लग रही है, कि भाजपा 10 से ज्यादा सीटों पर मेहनत करने के मूड में नहीं है। वो उतने ही बागियों को उपचुनाव जिताना चाहती है, जितने से उसकी सरकार बची रहे। क्योंकि, ज्यादा सीटें जीतने से जो जोखिम बढ़ेगा, वो पार्टी अनुशासन के लिए ठीक नहीं है।
भाजपा ने मध्यप्रदेश में कांग्रेस के 22 विधायकों के पाला बदलने के बाद सरकार बनाई थी। उनमें से कई मंत्री भी थे। वादे के मुताबिक शिवराज ने ज्यादातर को किसी तरह समायोजित तो कर लिया, पर इससे भाजपा में जो अंदरूनी नाराजी का माहौल बन गया, वो दिक्कत देने वाला है। दिखाने को सबकुछ सामान्य बताया जा रहा है, जबकि पार्टी के अंदर गुस्से का लावा खदबदा रहा है। कई बड़े नेता सिंधिया समर्थकों को ज्यादा तवज्जो देने से रूठे हैं।
लेकिन, पार्टी के प्रदेश नेतृत्व की मजबूरी है कि उसे संभलकर चलना है। उसे भाजपा के पुराने नेताओं को भी साधकर रखना है और सिंधिया से किए वादे भी निभाना है। उधर जिस तरह सिंधिया की प्रेशर पॉलिटिक्स रंग दिखा रही है, आगे की राह आसान नहीं लग रही। ऐसी स्थिति में शिवराजसिंह को न केवल कांग्रेस से आए इन नेताओं को चुनाव जिताना है, बल्कि उन सीटों पर भाजपा के उन नेताओं को भी संभालना है, जो बागी कांग्रेसियों के भाजपा में आने से प्रभावित हुए हैं।
उपचुनाव में चंबल जीतना भाजपा के लिए सबसे मुश्किल है। पार्टी हर मोर्चे पर मुस्तैदी से जुटी है, पर मतदाता और भाजपा के पुराने नेताओं, कार्यकर्ताओं के मन की थाह लेना मुश्किल है। सिंधिया समर्थक कार्यकर्ताओं और भाजपा कार्यकर्ताओं के बीच सामंजस्य भी आसान नहीं है। यदि चुनाव के पहले इनमें तालमेल नहीं हुआ, तो यहाँ भाजपा को विधानसभा चुनाव की तरह नुकसान उठाना पड़ सकता है।
ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ बगावत कर भाजपा में आने वाले 22 में से 14 तो मंत्री बन गए, लेकिन 8 ऐसे हैं जिन्हें कोई पद नहीं मिला। उन पर उपचुनाव जीतने की चुनौती अलग है। उपचुनाव जीतने की राह इतनी आसान भी नहीं है कि भाजपा निश्चिंत हो जाए। सिंधिया के जिन समर्थकों को मंत्री बनने का मौका नहीं मिला, उनमें कांग्रेस के टिकट पर अंबाह से विधानसभा चुनाव जीते कमलेश जाटव, अशोक नगर से जजपाल सिंह जज्जी, करेरा से जसवंत जाटव, ग्वालियर पूर्व से मुन्नालाल गोयल, गोहद से रणवीर जाटव, भांडेर से रक्षा सरैनिया, मुरैना से रघुराजसिंह कंसाना और हाटपीपलिया से मनोज चौधरी हैं।
रणवीर जाटव को छोड़कर बाकी 7 पहली बार विधानसभा पहुंचे थे। अब इनकी मुसीबत कई मोर्चों पर बढ़ गई है। उन्हें मतदाताओं को तो मनाना ही है, उन भाजपा नेताओं की भी मान मनौवल करना है, जिन्हें हराकर वे चुनाव जीते थे। मनोज चौधरी ने हाटपीपलिया से भाजपा के दीपक जोशी को चुनाव हराया था। अभी वे नाराज चल रहे हैं। बदनावर से भंवरसिंह शेखावत ने राजवर्धनसिंह दत्तीगाँव के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। सांवेर से तुलसी सिलावट से हारे राजेश सोनकर को पार्टी ने इंदौर जिले का अध्यक्ष बनाकर संतुष्ट करने कोशिश जरूर की, पर माहौल नहीं बता रहा कि वे खामोश रहेंगे। मसला ये कि ऐसी नाराजी अंततः भाजपा की परेशानी का ही कारण बनेगी। यही हालात ग्वालियर-चंबल इलाके में भी है।
मंत्री बनने से वंचित रहे नेताओं में पांच अनुसूचित जाति के हैं। ये भांडेर, अंबाह, गोहद, करेरा और अशोक नगर की सुरक्षित सीट से विधानसभा चुनाव जीते थे। सभी सीटें ग्वालियर-चंबल इलाके की हैं, जहाँ जाटव समाज का वर्चस्व है। यदि उपचुनाव में बसपा ने दांव खेला, तो इन सीटों पर अनुसूचित जाति के वोटों को लेकर जमकर घमासान होगा। ऐसे में यदि इन सीटों पर भाजपा के बड़े स्थानीय नेताओं ने भितरघात किया, तो उपचुनाव के नतीजे क्या होंगे, अनुमान लगाया जा सकता है।
मंत्रिमंडल विस्तार के बाद भाजपा के पुराने नेताओं ने जिस तरह की नाराजी व्यक्त की, उससे समझा जा सकता है कि उपचुनाव में भी सबकुछ ठीक नहीं रहेगा। भितरघात की स्थिति बनी तो भाजपा लिए सत्ता बचाने की कोशिश मुश्किल होगी। एक संकट कम वोटों से पिछला विधानसभा चुनाव जीते नेताओं को फिर से उपचुनाव जिताना भी है। हाट पिपलिया से मनोज चौधरी 13 हजार वोटों से चुनाव जीते थे। तब कांग्रेस माहौल कांग्रेस के पक्ष में था।
रणवीर जाटव 23 हजार से ज्यादा वोटों से जीते थे और रक्षा सरैनिया की जीत 39 हजार वोटों से हुई थी। लेकिन, कमलेश जाटव और जजपाल जज्जी जैसे लोग तो दस हजार से भी कम से जीते थे। कमलेश जाटव को तो निर्दलीय नेहा किन्नर ने ही कड़ी टक्कर दी थी। सुवासरा से हरदीपसिंह डंग तो मात्र साढ़े 300 वोट से जीते थे। अब इन सभी को भाजपा को अपना उम्मीदवार बनाकर उपचुनाव में जीत सुनिश्चित करना है।
ये न सिर्फ इन बागी नेताओं के लिए, बल्कि ज्योतिरादित्य सिंधिया और भाजपा के लिए भी चुनौती से कम नहीं है। ऐसे में कांग्रेस के बागियों के परफॉर्मेंस पर ही शिवराज सरकार का अस्तित्व टिका है। अगर कांग्रेस ने उपचुनाव में उन सीटों पर पार्टी का कब्जा बरकरार रखा, तो प्रदेश में फिर से एक बड़ा राजनीतिक उलटफेर होने से इंकार नहीं किया जा सकता।
अभी विधानसभा उपचुनाव की तारीख घोषित नहीं हुई है। लेकिन भाजपा ने चुनाव प्रबंधन समिति तथा संसाधन समिति का गठन कर अपनी तैयारी शुरू कर दी है। इसमें चार केंद्रीय मंत्री नरेंद्रसिंह तोमर, प्रह्लाद पटेल, थावरचंद गहलोत और फग्गनसिंह कुलस्ते हैं। इसके अलावा मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वीडी शर्मा और ज्योतिरादित्य सिंधिया भी इसके सदस्य हैं।
उधर, कांग्रेस भी कसर नहीं छोड़ रही और चौंकाने वाले नतीजों की कोशिश में है। ग्वालियर इलाके के बालेंदु शुक्ला और मालवा के प्रेमचंद गुड्डू की कांग्रेस में वापसी को इसी नजरिए से देखा जा रहा है। ये सिंधिया के भाजपा प्रवेश से खुश नहीं थे, इसलिए उन्होंने फिर कांग्रेस का दामन थाम लिया। कांग्रेस इस उपचुनाव में कई बड़े नेताओं को दांव पर लगाकर भाजपा के लिए उपचुनाव को मुश्किल बनाना चाहती है। यही कारण है कि अजय सिंह, मीनाक्षी नटराजन और प्रेमचंद गुड्डू को चुनाव में खड़ा करके वह भाजपा को चुनौती देने के मूड में है। इसलिए कांग्रेस के इस दावे में दम है कि उपचुनाव के नतीजे चौंकाने वाले होंगे।
सियासी नजरिए से देखा जाए तो भाजपा को उपचुनाव की चिंता से मुक्त रहना चाहिए। क्योंकि, अपने साथियों को चुनाव जिताना भाजपा से ज्यादा सिंधिया की चिंता है। पर, लग रहा है कि भाजपा के माथे पर चिंता की लकीरें ज्यादा गहरी हैं। मंत्रिमंडल विस्तार में सिंधिया ने दबाव डालकर अपने ज्यादा समर्थकों को मंत्री बनवा लिया, जिससे भाजपा के कई नेता बाहर रह गए। फिर मलाईदार विभागों के लिए दबाव बनाया। लेकिन, ये सारा प्रेशर तभी कारगर होगा जब 22 में से ज्यादातर बागी चुनाव जीत जाएं।
लेकिन, यदि ऐसा होता है, तो भी शिवराजसिंह के लिये नया खतरा खड़ा हो जाएगा। सिंधिया समर्थक अपने नेता को मुख्यमंत्री बनाने की मांग कर सकते हैं। इसलिए जो आसार लग रहे हैं, उनका इशारा है कि भाजपा भी कूटनीति से उपचुनाव लड़ने के मूड में है। वह उतने ही बागी उम्मीदवारों को चुनाव जिताएगी जितनी सीटों की उसे जरुरत है। इससे उसकी सत्ता भी सुरक्षित रहेगी और सिंधिया के भाव भी कम हो जाएंगे। पर अभी इस कूटनीति को देखने और समझने के लिए नतीजों तक इंतजार करना होगा।