यूं साकार हो सकता है आदर्श गाँव का सपना

डॉ. अनिल सौमित्र 

भारत सरकार के मुखिया नरेन्द्र मोदी जी ने पिछली सरकार में आदर्श ग्राम की योजना प्रस्तुत की थीl उन्होंने सभी सांसदों से इस योजना को धारण करने का आग्रह किया था। हालांकि प्रधानमंत्री जैसा चाहते थे वैसा काम नहीं हो सका। नेतृत्व, जनप्रतिनिधि और सरकार के स्तर पर यह योजना फिलहाल सुप्तावस्था में है। किन्तु इस ‘सांसद आदर्श ग्राम योजना’ में अपार संभावनाएँ निहित हैं। आदर्श ग्राम योजना की इन संभावनाओं को चुनौती के रूप में स्वीकार करने का वक्त है।

इस चुनौती को स्वीकार कर न सिर्फ प्रधानमंत्री की नजरों में समाया जा सकता है, बल्कि महात्मा गांधी और दीनदयाल उपाध्याय जैसे महापुरुषों के स्वप्न को साकार करने का पुण्य भी अर्जित किया जा सकता है।  यह भी एक संयोग है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ग्राम विकास और कुटुंब प्रबोधन के माध्यम से अनुकूल स्थिति का निर्माण कर दिया है।

गाँव का पुनरुत्थान होना चाहिए। भारतीय गाँव यहाँ के शहरों की सभी जरूरतें पूरी करते रहे हैं। लेकिन भारत अब गरीब हो रहा है क्योंकि गाँव स्वावलंबी नहीं रहे और शहर विदेशी तंत्र और माल के बाजार बन गए। भारत के शहर विदेशों पर और भारत गाँव शहरों पर आश्रित हो गए हैं।

स्वावलंबी गाँव अर्थात वह गाँव जो अपनी सभी जरूरतें स्वयं से ही पूरी कर ले। कोई भी सामग्री बाहर से लाने की स्थिति न हो, बल्कि पड़ोस के गाँव को, बस्ती और शहर को भी कुछ देने की स्थिति में हो। गाँव के व्यक्तियों में, परिवारों में और पड़ोसी गाँवों में परस्परावलंबन हो। गाँव में सभी के लिए पर्याप्त खाद्यान्न, पशुओं के लिए चारागाह, खेल-कूद का बंदोबस्त, पाठशाला, नाटकशाला और सभा-भवन होना चाहिए।

भूजल और सतही जल का पर्याप्त भण्डार हो। प्राकृतिक संसाधनों का समुचित प्रबंधन होता हो। गाँव न्याययुक्त और अपराध मुक्त हो। हर गाँव का अपना वैविध्य और वैशिष्ट्य हो। हर गाँव का अपना वैद्य, शिक्षक, शिल्पकार, इतिहासकार, कवि, लेखक और न्यायविद हो। हर गाँव का अपना विशेष धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र हो। शिक्षा, ज्ञान और विद्या के मामले में हर गाँव की अपनी विशिष्ट पहचान हो। गाँव कृषि, गौ-पालन, कारीगरी और स्थानीय कला-कौशल केन्द्रित हो।

गांधी जी ने बार-बार जोर देकर कहा है कि अगर गाँवों का नाश होता है तो भारत का भी नाश हो जाएगा। गाँवों में फिर से जान तभी आ सकती है जब उनकी उपेक्षा रुके। हमें गाँवों वाले भारत या शहरों वाले इंडिया में किसी एक को प्राथामिकता देनी होगी। भारत प्रारम्भ से ही गाँव प्रधान रहा है। भारत का शहरीकरण नई प्रवृत्ति है।  भारत में शहरों का विकास विदेशी आधिपत्य और प्रभाव में हुआ है। वर्तमान व्यवस्था में शहर, गाँव के शोषक के रूप में जाने जा रहे हैं। ग्रामीण आबादी का शहरों की ओर बेतहाशा पलायन चिंताजनक है।

अगर सच में शहर को गाँव की चिंता है तो उसके लिये कुछ बातें तत्काल अपने हाथ में लेनी होंगी। मसलन-नागरिक अपने नित्य उपयोग की वस्तुएं प्राथमिकता के आधार पर ग्रामीण की बनाई हुई लें। गाँव-शहर विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों और सरकारी दफ्तरों में गाँव में बने खादी कपड़ों का चलन बढे। हर गाँव में वहां के कौशल, कारीगरी, विशेषता और रचनात्मक प्रयोगों को दर्शाने वाली प्रदर्शनी होनी चाहिए। हर गाँव में सहकारी और निजी गौशालाएं अनिवार्य रूप से होनी चाहिए। गाँव की पहचान वहां संचालित पंचायत राज प्रणाली, कुटीर-ग्रामोद्योग, श्रम और उद्यम आधारित जीवनचर्या, परम्परागत खेल, भजन-कीर्तन, चौपाल, चिकित्सा के लिए दादी-माँ का बटुआ जैसे व्यवस्थाएं हों।

गावं में सकारात्मक प्रवृत्तियों को बढ़ावा देने तथा नकारात्मकता को हतोत्साहित और दण्डित करने का पुख्ता इंतजाम हो। शिक्षा, स्वास्थ्य, सेवा और परोपकार आदि के लिए सालाना सम्मान-पुरस्कार हो। गाँव व्याधि मुक्त, गरीबी मुक्त, कुप्रथा मुक्त, नशामुक्त, अपराधमुक्त, मुकदमा मुक्त और रसायन मुक्त बनाने के लिए विशेष प्रयास किये जाएँ।

गाँव में प्रौद्योगिकी का उपयोग हो, लेकिन पहले प्रौद्योगिकी के उपयोग का औचित्य सिद्ध कर लिया जाए। उसके बाद भी प्रौद्योगिकी का उपयोग हो, प्रयोग नहीं। प्रौद्योगिकी का उपयोग इसके ग्रामीण अनुकूलन के आधार पर किया जाए। मानव क्षमताओं को विस्तार देने, शारीरिक कार्य को आसान बनाने, मानसिक कार्य को सरल बनाने के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग जायज हो सकता है।

अगर कोई प्रौद्योगिकी मानव श्रम की गरिमा भंग करने वाली हो,  ग्रामीण आजीविका पर कुठाराघात करने वाली हो तो इसका निषेध करना चाहिए। किसी भी प्रौद्योगिकी का हस्तक्षेप स्थानीय आवश्यकता के आधार पर नियोजित तरीके हो। भौतिक उन्नति से अधिक बौद्धिक, आध्यात्मिक और सामुदायिक उन्नति पर जोर हो। परिवार और कुटुंब परम्परा का संरक्षण व प्रोत्साहन हो।

इन्हीं बातों, पुरखों के सपने और देश के प्रधानमंत्री की मंशा के मद्देनजर कुछ युवा कर्मशील नई पहल के लिए लालायित हैं। इनकी लालसा को अनुभव का सहारा और साहस का संबल चाहिए। विचार यह है कि मध्यप्रदेश की क्षेत्रीय विशेषताओं के अनुसार विभिन्न अंचलों के सात लोकसभा क्षेत्रों का चयन किया जाए। इन सात लोकसभाओं के द्वारा मध्यप्रदेश की विविधता का प्रतिनिधित्व हो जाएगा। इन सातों लोकसभा क्षेत्रों के सभी विधानसभा क्षेत्रों से एक-एक गाँव का चयन किया जाए।

चयन का आधार शहर से अधिकतम दूरी और सर्वाधिक पिछड़ापन हो सकता है। गाँवों के पुनरोदय की आकांक्षा और संकल्प लिए युवाओं का समूह, सेवानिवृत्त विशेषज्ञ, स्वैच्छिक संस्थाओं की टोली नियोजन, समन्वय और उत्प्रेरण का काम कर सकती है। इस योजना से विश्वविद्यालयों को भी जोड़ा जा सकता है।

चयनित सात लोकसभा क्षेत्रों में लगभग 56 विधानसभा क्षेत्र होंगे। इस प्रकार 56 गाँव चयनित किये जा सकते हैं।  पेशेवर युवाओं की टोली को सबसे पहले गाँव पुनरोदय के लिए समर्थक समूह तैयार करना होगा। इस टोली में सम्बंधित संसदीय लोकसभा क्षेत्र के जनप्रतिनिधि सांसद, सम्बंधित विधानसभा क्षेत्र के जन-प्रतिनिधि विधायक, सम्बंधित जिला व जनपद तथा पंचायत के जनप्रतिनिधि, प्रत्येक गाँव के लिए एक स्‍वैच्छिक संस्था, एक धार्मिक-आध्यात्मिक संस्था के प्रतिनिधि हो सकते हैं।

इस समर्थक समूह से भेंट कर आदर्श गाँव योजना की परिकल्पना साझा कर, इनके सुझाव के आधार पर इस योजना को अंतिम रूप दिया जा सकता है। प्रथम चरण में सभी स्तरों के जनप्रतिनिधियों से राज्य सरकार और केंद्र सरकार की सभी योजनाओं को इन ग्रामों में क्रियान्वित कराने का सहयोग अर्जित किया जाए। इस कार्य में जनसंचार-माध्यमों का भी सहयोग लिया जाना आवश्यक होगा। प्रथम चरण एक वर्ष का हो सकता है।

दूसरे चरण में प्रत्येक गाँव की विशिष्ट सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान को चिन्हित कर उसके आधार पर इस गाँव को विकसित करने का अवसर उपलब्ध कराया जाए। अर्थात कोई गाँव पूर्णत: जैविक, कोई पूर्णत: आरोग्य, कोई शत-प्रतिशत शिक्षित, कोई पूर्णत: स्वावलंबी, तो कोई पूर्णत: अपराध और व्यसन मुक्त गाँव के रूप में स्वयं को विकसित कर सकता है।

इसी प्रकार कोई गाँव अपने उत्पादों को निर्यात करने वाला तो कोई पूर्णत: रोजगार संपन्न। कोई गाँव गौ आधारित, तो कोई वैदिक मूल्यों का आचरण करने वाला। इस प्रकार मध्यप्रदेश के 56 गाँव इन विशिष्टताओं से विभूषित हो सकते हैं। इन गाँवों को विशिष्ट पहचान के आधार पर ख्याति मिलेगी।

तीसरे चरण में गाँव की पहचान और मुख्य प्रवृत्तियों को स्थापित करने और उन्हें निरंतरता देने की पद्धति विकसित की जायेगी। इसमें संत-महात्माओं, महापुरुषों, विद्वानों और विशेषज्ञों की मदद ली जायेगी। शुरू में ये गाँव पहल और प्रयोग के केंद्र होंगे। पांच वर्ष बाद इन गाँवों का अध्ययन किया जाएगा। इस अध्ययन के आधार पर कमियों और दोषों की पहचान की जायेगी। तदनुसार अगले 5 वर्षों तक इन प्रयासों को अपेक्षित संशोधनों के साथ निरंतरता दी जा सकती है।

दरअसल ग्राम विकास के लिए यह वक्त पूरी तरह मौजूं है। वर्तमान विश्व महामारी के दौर में भारत ने स्वावलम्बन के लिए गंभीर विचार शुरू कर दिया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ‘लोकल के लिए वोकल’ का नारा दिया है। यह नारा विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था के लिए सूत्र हो सकता है। विविधता, विकेन्द्रित व्यवस्था और सामुदायिकता भारत के सनातन मूल्य हैं। यही कारण है कि कुछ कोस (किमी) की दूरी पर भोजन, भजन, भाषा और रहन-सहन की विविधता दिखाई देती है। इन्हीं भारतीय मूल्यों को याद करके भारत सरकार, अनेक स्वैच्छिक संगठन और युवा समूह सामाजिक पुनर्रचना की दिशा में अग्रसर है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ग्राम विकास के लिए बाकायदा एक विभाग ही बना रखा है। संघ के प्रयासों से देशभर में गाँव का विकास एजेंडे में आया है। सरकार और समाज नए तरीके से सोचने को बाध्य हुए हैं। प्रधानमंत्री भी गाँवों के विकास के द्वारा भारत का विकास चाहते हैं। उनकी मंशा स्पष्ट है। इसीलिये उन्होंने पिछले कार्यकाल में सांसद आदर्श ग्राम योजना की आधारशिला रखी। हालांकि यह योजना आंशिक तौर पर ही क्रियान्वित हो पाई। इसके लिए सम्बंधित सांसदों को जिम्मेदार माना जाना चाहिए जो विकास के बजाय अन्य प्रकार की राजनीतिक गतिविधियों में उलझे रहे।

इस बात की गहरी पड़ताल भी आवश्‍यक है कि आखिर किन कारणों से ‘प्रधानमंत्री आदर्श ग्राम योजना’ परवान न चढ़ सकी। लोकसभा के सांसद इस योजना के प्रति क्यों उदासीन और निष्क्रिय रहे। क्या एक सांसद इतना सामर्थ्यशाली और योजक भी नहीं होता है कि वह अपने संसदीय क्षेत्र के एक गाँव को आदर्श बना सके। कोई जनप्रतिनिधि, युवा समूहों और स्वैच्छिक संस्थानों के साथ गाँव के विकास के लिए पहल न कर सके।

अब इस बात की तैयारी होनी चाहिए कि युवा समूह और स्वैच्छिक संस्थाएं सभी जनप्रतिनिधियों का सहयोग लेकर प्रधानमंत्री की इस मुहिम को आगे बढायें।  आज जबकि पूरा देश महात्मा गांधी की 150 वीं जयंती मनाने की तैयारी कर रहा है। केंद्र सरकार, विभिन्न राज्य सरकारें और विभिन्न संस्थान गांधी की 150 वीं जयंती की तैयारियों में है। लेकिन गाँवों के विकास का व्यावहारिक रोडमैप ही गांधी को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

इस ग्राम विकास योजना के आधार पर गाँवों में भारतीय मूल्यों को पुनर्जीवित करने का भागीरथ प्रयास हो सकता है। शुरुआत मध्यप्रदेश के 56 गाँवों से हो सकती है। संभव है बाद में एक गाँव को देखकर दूसरा गाँव अपना ढर्रा बदले। वह भी अपनी पहचान और विविधतता के आधार पर स्वावलंबी गाँव बनने की कवायद करे। प्रधानमंत्री अपने जूनून के पक्के हैं। आवश्यकता इस बात की है कि देश उनके जूनून में सहभागी हो।

प्रधानमंत्री का जूनून जिस दिन सांसदों, विधायकों, युवा उद्यमियों, विशेषज्ञों और अन्य जन प्रतिनिधियों का जूनून बन गया, समझ लें कि भारत के स्वर्णिम भवितव्य की शुरुआत हो गई। सभी ठान लें तो गाँवों के वैविध्य के आधार पर एक श्रेष्ठ भारत के स्वप्न को साकार होते देर न लगेगी।

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