शशिकांत त्रिवेदी
आज एक पत्रकार ने आत्महत्या कर ली। कुछ समय पहले तक वह दूसरों को हिम्मत दे रहा था। भारत में महानतम चिकित्सक, वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री, शूरवीर, सर्वगुणसंपन्न के अवतार के बावजूद, एम्स अस्पताल में बहुत योग्य चिकित्सक आते हैं। मरीज के अचानक ऐसे व्यवहार का मतलब है दिमाग में ‘हैप्पी हॉर्मोन’ की अचानक कमी होना। इस कमी का खास कारण है बाज़ार से फल और हरी सब्जियां गायब होना या कोई ऐसी दवा जिससे ये गड़बड़ा गया हो।
मतलब दिमाग तक tryptophan नामक रसायन का न पहुँचना जो Serotonin को बनाता है। Serotonin उन हैप्पी हॉर्मोन्स में से एक है जो इंसान के दिमाग में, मुन्नाभाई की भाषा में केमिकल लोचा नहीं होने देता। अखबार में छपने वाले लेख पढ़ने और पढ़वाने से, कि निराश न हों, आत्महत्या न करें, जीवन बहुत सुंदर है, पॉजिटिव रहें, मंडे पॉजिटिव रहें, इन सबसे कुछ नहीं होगा…
दिमाग में चल रहे न्यूरोट्रांसमीटर की गड़बड़ी को दवाओं से या सही डाइट से ही ठीक किया जा सकता है। जैसे किसी को बुखार हो तो उसे तमाम अखबारी ज्ञानियों का ज्ञान पढ़वाने से बुखार ठीक नहीं होगा। उसे बुखार उतारने की दवा देनी होगी। serotonin के अलावा और भी तीन दूसरे हॉर्मोन होते हैं जैसे ऑक्सिटोसिन, डोपामिन और एंडोर्फिन। ऑक्सीटोसिन सेक्स, प्यार वगैरह करने के लिए प्रेरक है। वही डोपामिन इंसान में कुछ करने की प्रवृत्ति जगाता है और एंडोर्फिन दर्द वगैरह कम करता है।
इनके रोल की लिस्ट बहुत लंबी है। जैसे जैसे खोज होती जा रही वैसे वैसे दिमाग खुलते जा रहे हैं। दिमाग सिर्फ जायरस और सलकस का गोला नही हैं (जायरस और सलकस दिमाग की टेढ़ी मेढ़ी संरचनाओं को कहते हैं, जो अखरोट जैसी दिखती हैं)। serotonin की कमी से बुजुर्गों में कब्जियत की शिकायत और भूख न लगना आम बात है। बहुत कम डॉक्टर बताएंगे कि बुजुर्ग शाम को दुखी क्यों होने लगते है, ज़्यादातर महिलाएं। उन्हें धूप में बिठाना चाहिए।
उनके खून की जांच करवाएं तो उनका विटामिन डी एकदम गड़बड़ आएगा, अगर वे शाकाहारी बुजुर्ग हैं तो विटामिन बी भी ऐसा ही गड़बड़ आएगा। विटामिन डी की कमी आजकल बहुत आम है। यह बुजुर्गों ही नही युवाओं में भी है। दरअसल विटामिन डी विटामिन नहीं है वह भी हॉर्मोन है। वह कैल्शियम और मैग्नीशियम के बिना संश्लेषित (synthesis) नहीं होता। हमें रोज किलो दो किलो कैल्शियम और मैग्नीशियम नहीं चाहिए, सब्जियों से ज़रूरी मैग्नीशियम आसानी से मिल जाता है बशर्ते उनके डंठल न सड़े हों। या कमजोर डंठल न हों।
विटामिन डी की कमी दिल के रोग, हड्डी के रोग, तनाव, घबराहट, दवाओं के प्रति एलर्जी, पेट की बिना कारण समस्याएं और कैंसर तक पैदा करती है। जब व्यक्ति निराश, मतलब डिप्रेस होता है तो मनोचिकित्सक उसे तुरन्त तनाव दूर करने वाली दवा दे देता है, जो नींद लाती हैं। कुछ पुराने जमाने की दवाएं जो बारब्यूटेरेट (barbiturate) ग्रुप में आती हैं, वे मरीज को दूसरी समस्याएं पैदा कर सकती हैं, जैसे बहुत मुश्किल से कोई शब्द बोल पाना। डॉक्टर मरीज की कितनी भी सी.टी. स्कैन करा ले, वो ये पता ही नहीं लगा सकता कि ये हकला क्यों रहा है।
कुछ दवाएँ जो आजकल बन्द कर दी गई हैं वे इतनी घातक होती हैं कि उनके साइड इफेक्ट्स 15-20 साल बाद मालूम होते हैं। जैसे वे डिस्टोनिया रोग पैदा कर देती हैं, जिसके कारण मरीज एक तरफ चल पाता है। serotonin ही एक ऐसा रसायन है जिसे अभी तक मेडिकल साइंस पूरी तरह समझ नहीं पाया है, इंसान के अत्यंत जटिल दिमाग को समझने में अभी 2000 साल और लगेंगे। वैसे भी मेडिकल साइंस में कोई खास तरक्की नही हुई है, कोरोना जैसे सर्दी जुकाम का इलाज भी नहीं मालूम।
तो क्या serotonin को ठीकठाक रखने की कोई दवा है? नहीं। रोज व्यायाम करें, ऐसी चीजें खाएं जिनसे यह संतुलित रह सकता है, जैसे टमाटर, दही, अखरोट, बादाम, चॉकलेट, फल, हरी और अच्छी तरह साफ धुली हुई सब्जियां। अंडे, मांस खाने की मैं सलाह नहीं देता क्योंकि मैं उनकी तरफ देखता भी नहीं हूँ। धूप में बैठें, धूप न हो तो बन्द जगह पर न रहें, दरवाजे खिड़की खुली रखें। अफसरी न झाड़ें, दफ्तर में भी खुले रहें। अगर बन्द केबिन है तो उससे बार बार खुली हवा में आते रहें।
नौकरी की चिंता न करें वह इसलिए चली गई है क्योंकि नौकरी देने वाले के बुरे दिन आ गए हैं। अच्छे डॉक्टर की सलाह के बिना कोई दवा न खाएं, भले कितना भी इंटरनेट पर मेडिकल साइंस पढ़ लिया हो। अपने हर डॉक्टर को सब कुछ बताएं मसलन आपने पांच साल पहले कौनसी दवा ली थी, क्यों ली थी, मन से ली थी या डॉक्टर्स से पूछकर ली थी। अगर डॉक्टर चिल्लाए, भड़के या नाराज हो तो उसे भी अपने साथ किसी और अच्छे डॉक्टर के पास ले जाएं।
उल्लुओं की तरह रात में न जगें, आप फेसबुक से कोई क्रांति नहीं ला सकते। (मेरी बात और है) न ही चीन युध्द लड़ने वाला। serotonin के गड़बड़ होने का सीधा मतलब है इम्यून सिस्टम का कमजोर होना। कुछ लोग कॉफी पीकर तनाव कम करते हैं। लेकिन कॉफी में कैफीन होता है जो दिमाग के एक और हॉर्मोन जिसे HPA (hypothalamic-pituitary-adrenal) हॉर्मोन कहते है उसकी एक्टिविटी बढ़ा देता है।
ये दरअसल दिमाग के दो भाग हाइपोथैलमस और पिट्यूटरी ग्लैंड के बीच तालमेल और किडनी के ऊपर एड्रेनल ग्लैंड्स से निकलने वाले epinephrine और cortisol को बढ़ा देती है। ये ग्लैंड्स हमारे दिमाग का इतना बेजोड़ चमत्कार है कि इसे सिर्फ कोई अज्ञात शक्ति ही बना सकती है। मान लीजिए कोई शेर जंगल में आपका पीछा करने लगे या भूत दिख जाए तब HPA हॉर्मोन हाइपोथैलमस और पिट्यूटरी ग्लैंड ये सुनिश्चित करते हैं कि एड्रेनल ग्लैंड से निकलने वाला epinephrine बढ़ी हुई दिल की धड़कन, ब्लड प्रेशर और सांसों को तेज करके शरीर के ज़रूरी अंगों में खून का बहाव बनाए रखे ताकि आप बेहोश न हों और कौमा में न जाएं या आपको दिल का दौरा न पड़े।
इसी ग्लैंड से cortisol निकलता है जो शरीर में जमा ग्लूकोज़ को तुरन्त रिलीज करता है ताकि आप भाग सकें या लड़ सकें। Cortisol दरअसल हायपोथैलेमस और पिट्यूटरी ग्लैंड के तालमेल को बताने वाले एक फीडबैक की तरह इस्तेमाल होता है ताकि दिमाग सही निर्णय ले सके और आप शेर से ये न कहें कि आ तेरी…। अब अगर नौकरी से निकाले जाने का तनाव है तो वह दिन रात रहने वाला है।
कॉफी ये दोनों हॉर्मोन आराम करने की स्थिति में भी एड्रेनल ग्लैंड से निकलवा लेती है, जिसकी शरीर को ज़रूरत नहीं है, लिहाजा ये तनाव पर तनाव देने जैसा है। कॉफी थोड़ी बहुत ठीक है, पर हर घण्टे पीना इन हॉर्मोन्स में गड़बड़ी का कारण बनता है। कुल मिलाकर बात ये कि मेडिकल साइंस को अभी तक यह नहीं पता कि तनाव से सेरोटोनिन कम ज्यादा होता है या सेरोटोनिन के गड़बड़ाने से तनाव होता है।
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टीम मध्यमत