शैक्षणिक संस्थानों में लटकते ताले

राकेश अचल

आज एक शुष्क लेकिन जरूरी विषय पर लिख रहा हूँ। विषय है देश के शैक्षणिक संस्थानों में तालाबंदी। कोरोना संकट के चलते देश में किंडर गार्डन स्कूलों से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक के शैक्षणिक संस्थानों में ताले लटके हैं और विकल्प के तौर पर देश में अचानक ऑनलाइन शिक्षा प्रणाली पर जोर दिया जा रहा है। इस नयी व्यवस्था से देश में शिक्षा का स्तर, शिक्षा व्यवसाय में बेरोजगारी जैसे महत्वपूर्ण प्रश्न भी खड़े हो गए हैं, लेकिन इनके बारे में कोई जवाब देने के लिए तैयार नहीं है।

देश में कुल कितने शैक्षणिक संस्थान हैं, इसका कोई इकजाई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, लेकिन कहा जाता है कि शिक्षा देश में अध्ययन-अध्यापन के जरिये रोजगार देने वाला दसवां बड़ा क्षेत्र है। जिसे कोरोना ने डस लिया है। स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों की इमारतों में सन्नाटा पसरा है। स्टाफ को वेतन देने के लाले हैं, बसें खड़ी-खड़ी खटारा हो रही हैं। उनके तमाम टैक्स अदा करने ही पड़ रहे हैं लेकिन सरकार ने इनके बारे में बहुत कुछ सोचा नहीं है।

दुनिया के सबसे लम्बे लॉकडाउन से गुजर चुके भारत देश में अनलॉक-2 में सरकार ने बहुत कुछ खोल दिया है, लेकिन शैक्षणिक संसथान नहीं खोले हैं। आप मॉल जा सकते हैं, रेस्टोरेंट जा सकते हैं, मंदिर जा सकते हैं, रेल और हवाई यात्रा कर सकते हैं, लेकिन स्कूल, कॉलेज नहीं जा सकते। आखिर क्यों? संक्रमण का खतरा क्या सिर्फ शैक्षणिक संस्थानों में है?

शैक्षणिक संस्थानों में आने-जाने वाले सब पंजीकृत लोग होते हैं। वहां संक्रमण की पहचान मॉल या रेस्टोरेंट के मुकाबले ज्यादा आसानी से की जा सकती है। लेकिन जिद है कि शैक्षणिक संस्थानों को नहीं खोला जाएगा। एक महामारी को ढाल बनाकर देश के भविष्य से खिलवाड़ करने की ये कौन सी तकनीक है?

कोरोना संकट के चलते देश में ऑनलाइन शिक्षा को बढ़ावा दिया जा रहा है। मैं अपने घर में देखता हूँ कि इंटरनेट की गति धीमी है या फिर कनेक्टिविटी का संकट है। कभी स्क्रीन पर बच्चे दिखाई देते हैं तो शिक्षक अदृश्य हो जाते हैं और जब शिक्षक दिखाई देते हैं तो छात्र अदृश्य हो जाते हैं। कभी स्पीकर काम नहीं करता और कभी कैमरा। सबके पास लैपटॉप नहीं है और मोबाइल की स्क्रीन इतनी छोटी होती है कि बच्चों की आँखें दुखने लगती हैं।

वेबनार जैसे प्रयोग भी मन समझाने के अलावा कुछ नहीं हैं। अध्ययन-अध्यापन का जो प्रभाव कक्षा में होता है वो ऑनलाइन हो सकता होगा इसमें कम से कम मुझे तो संदेह है। शहरों में तो फिर भी ऑनलाइन क्लासें लग रही हैं लेकिन गांवों में तो कोई इंतजाम है ही नहीं।

ऑनलाइन शिक्षा के समर्थक इस बात से संतुष्ट हो सकते हैं कि उनके बच्चे उनकी नजरों के सामने हैं। लेकिन वे इस प्रणाली से कितना क्या हासिल कर रहे हैं इसका अनुमान उन्हें शायद नहीं है। ऑनलाइन शिक्षा प्रणाली बच्चों के स्वास्थ्य के साथ उनके मानसिक विकास में भी बाधक बन रही है। बच्चे सामुदायिकता से वंचित हो रहे हैं। शैक्षणिक संस्थानों में केवल किताबें ही नहीं पढ़ाई जातीं और भी बहुत कुछ सिखाया जाता है। अनुशासन और प्रयोगात्मकता ऑनलाइन नहीं सीखी जा सकती। ऑनलाइन पढ़ने वालों पर अपने शिक्षक के व्यक्तित्व का प्रभाव शून्य होता है।

संकटकाल में मर्यादाओं को त्यागना पड़ता है इसलिए आप ऑनलाइन शिक्षा का सहारा ले सकते  हैं, मैं भी इसके खिलाफ नहीं हूँ। लेकिन मेरा कहना तो ये है कि शैक्षणिक संस्थानों पर ताला लगाकर किसी संकट का सामना नहीं किया जा सकता। शैक्षणिक संस्थानों में सोशल डिस्टेंसिंग रेलों, मॉल और रेस्टोरेंट के मुकाबले कहीं ज्यादा आसानी से लागू कराई जा सकती है। इसलिए सरकार को इस विषय में सोचना चाहिए। दुःख की बात ये है कि इस विषय में न तो शैक्षणिक संस्थानों से बात की जा रही है और न पालकों से। मुझे लगता है कि शैक्षणिक संस्थानों के भविष्य के बारे में सरकार को सभी पक्षों से बातचीत करना चाहिए।

आपको याद दिला दूँ कि भारत की शैक्षणिक प्रणाली और संस्‍थान पहले से दुनिया के दूसरे देशों के मुकाबले में बहुत पीछे हैं। दुनिया के श्रेष्ठ 250 विश्वविद्यालयों में भी हमारा नाम नहीं लिया जाता। हमारे यहां उच्च शिक्षा की तो छोड़िये हायर सेकेंडरी शिक्षा तक के लिए मध्यवर्ग में बच्चों को विदेशों में भेजने की होड़ लगी है। ऐसे में ये ऑनलाइन शिक्षा तो और कबाड़ा करने वाली है। अभी सरकार ने 31 जुलाई तक शैक्षणिक संस्थानों को बंद रखने का फैसला किया है। इसलिए इस विषय पर राष्ट्रव्यापी विमर्श के लिए काफी समय है। एक जागरूक पालक/अभिभावक और नागरिक होने के नाते आपको भी इस विमर्श का हिस्सा बनना चाहिए। अन्यथा शिक्षा को कोरोना से बचाना कठिन हो जाएगा।
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