जयराम शुक्ल
नालंदा के बारे में प्रायः सभी ने पढ़ा/सुना होगा लेकिन बख्तियार खिलजी को वही जानते होंगे जो देश की महानता और उसके असली दुश्मनों के बारे में जानना चाहते हैं। नालंदा विश्वविद्यालय का अस्तित्व चौथी शताब्दी से बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी तक था। चीनी स्कॉलर ह्वेनसांग यहां का विद्यार्थी था।
नालंदा की ज्ञान परंपरा और संस्कृति के बारे में ह्वेनसांग द्वारा लिखे वृत्तांत को इतिहास में सबसे प्रामाणिक माना जाता है। उसने विश्व के उच्चकोटि के शैक्षणिक संस्थान के रूप में इसका वर्णन किया है। तो नालंदा में ये बख्तियार खिलजी कहां से आ गया, यह कौन है..? आइए इसे जानें।
बख्तियार खिलजी एक तुर्क लुटेरा था जो सन् 1199 में लूटते-पाटते यहां पहुंचा। उसने नालंदा के इलाके में अपने मुट्ठी भर सैनिकों के साथ डेरा जमाया। किस्सा यह कि.. जालिम बख्तियार बीमार पड़ गया। उसके हकीमों ने दवा-दारू की लेकिन फायदा कुछ नहीं हुआ। उन्हें पता चला कि नालंदा में कोई आयुर्वेदाचार्य राहुल श्रीभद्र हैं जो सुल्तान का शर्तिया इलाज कर सकते हैं।
आचार्य श्रीभद्र को बुलाया गया। बख्तियार उन्हें देखते ही जलभुन गया कि वह किसी काफिर की दी हुई दवा नहीं खाएगा, भले ही मर जाए। आयुर्वेद की उच्च परंपरा में यह आदर्श है कि चाहे दुश्मन ही क्यों न हो यदि वह पीड़ित है तो वैद्य का यह धर्म है कि उसका हर संभव इलाज करे। आप सभी जानते होंगे कि लंकाधिपति रावण के राजवैद्य सुषेण ने मूर्क्षित लक्ष्मण का इलाज किया था और उनकी बताई हुई संजीवनी बूटी को हनुमानजी लेकर आए थे।
सो आचार्य श्रीभद्र ने तय किया कि वे हर हाल में इसका इलाज करेंगे। उन्होंने बख्तियार के हकीमों को एक कुरान दी व कहा कि सुल्तान से कहो कि वह.. फलां पृष्ठ से फलां पृष्ठ तक कुरान पढ़ ले ठीक हो जाएगा। हकीमों ने श्रीभद्र की दी हुई कुरान बख्तियार को दी। कुरान के पन्ने पलटते ही चमत्कार हुआ, सुल्तान ठीक हो गया।
हुआ यह था कि आयुर्वेदाचार्य श्रीभद्र ने कुरान के उन पन्नों पर दवाओं का अदृश्य लेप लगा दिया था। बख्तियार थूक लगाकर पन्ने पलटता गया, पढ़ता गया। थूक लगाने की प्रक्रिया में दवा मुँह में गई और वह चंगा हो गया। बाद में हकीमों को श्रीभद्र ने यह रहस्य बता दिया।
हकीमों ने सुल्तान को इससे अवगत कराया। जालिम बख्तियार वैद्यराज का शुक्रिया मानने की बजाय यह सोचने लगा कि इन काफिरों के पास जब इतना ज्ञान है तो वे कुछ भी कर सकते हैं। बस उसका शैतानी दिमाग सक्रिय हुआ और नालंदा विश्वविद्यालय पर हमला बोल दिया। प्रयोगशालाओं और पुस्तकालयों को आग के हवाले कर दिया।
ह्वेनसांग के अनुसार नालंदा के पुस्तकालय में 10 लाख से ज्यादा पांडुलिपियाँ और पुस्तकें थीं। छह महीनों तक नालंदा धू-धूकर जलता रहा। बख्तियार जिस की वजह से जिंदा बचा उसी की निमित्त पुस्तकों को जलाकर खाक कर दिया। बिहार में उजड़ा हुआ नालंदा है। उसके समीप बसा हुआ बख्तियारपुर है, हमें चिढ़ाता हुआ।
आयुर्वेद पर जिन्हें शक है वे जाएं नालंदा के खंडहर और बिखरी हुई ईंटों से पूछें। बख्तियार की मजार पर जाकर चाहे उसका सजदा करें या जुतियाएं। आयुर्वेद और हमारी ज्ञान परंपरा के दुश्मन तब भी थे आज भी हैं। यह किस्सा इसलिए सुनाया क्योंकि जबसे बाबा रामदेव ने यह घोषित किया कि उनकी फर्म पतंजलि ने कोरोना से लड़ने की दवाई खोज ली है..तब से मानों पहाड़ टूट पड़ा।
बाबा को जेल भेजो, बाबा को मारो/काटो, बाबा को इस दुनिया से बेदखल कर दो। लगभग यही स्वर चारों ओर से सुनाई पड़ रहे हैं। बाबा का गुनाह यह कि उन्होंने सवा लाख की अँग्रेज़ी दवाओं के पैकेज के मुकाबले सवा चार सौ रुपये की आयुर्वेदिक गोली और किट क्यों बना ली। ऐसे लोगों की दुश्मनी बाबा से नहीं आयुर्वेद से है। वैद्य जो अबतक चुपचाप करते रहे बाबा ने ताल ठोककर उन्हीं की बाजारू भाषा में करना शुरू कर दिया।
‘द हिंदू’ में हाल ही एक लेख पढ़ा- साइंस वर्सेज नानसेंस.. यानी कि विज्ञान बनाम बेवकूफी। लेख कोरोना को लेकर प्रस्तुत की गई दवाओं पर है। इन अँग्रेजजादों के लिए आयुर्वेद नानसेंस है। वस्तुतः यही अँग्रेजजादे बख्तियार के वंशज हैं। तुरकों, मुगलों ने हमारी मेधा और सांस्कृतिक परंपरा को ठिकाने लगाया.. तब भी उनका हुक्का भरने वालों में हमारे अपने ही थे। फिर अँग्रेजों ने तबीयत से आयुर्वेद को जमींदोज किया तब भी उनकी कोर्निश बजाने वाले हमारे अपने थे।
आज मल्टीनेशनल कंपनियों ने दवा और चिकित्सा बाजार पर अपना राज कायम किया है तब भी इन कंपनियों के प्रवक्ता हमारे अपने ही हैं.. जो बाबा को कोरोना से लड़ने वाली आयुर्वेदिक दवा बनाने के इलजाम में जेल भेज देना चाहते हैं। जो ‘साइंस वर्सेज नानसेंस’ जैसे लेख लिखकर हजारों, लाखों वर्षों से चलती आ रही चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद का मजाक बना रहे हैं और हम फेसबुक व वाट्सएप में हीही करते हुए, मीम और मजाक बना रहे हैं।
अंग्रेज़ी दवाओं और अस्पतालों के मकड़जाल को अब न समझे तो कभी नहीं समझेंगे। पूरा देश कोरोना महामारी की चपेट में है। निजी क्षेत्र के अस्पतालों का धंधा दिनदूना रात चौगुना फलफूल रहा है। केंद्र सरकार व राज्य सरकारों में इतनी हिम्मत नहीं कि सभी निजी अस्पतालों का अधिग्रहण करके नागरिकों का बेहतर इलाज सुनिश्चित करें। या चिकित्सा, दवाओं को न्यूनतम दर पर उपलब्ध कराने की व्यवस्था करें।
वह कर भी नहीं सकती क्योंकि भारतीय नेताओं का अवैध धन निजी अस्पतालों और शिक्षण संस्थानों में गलकर सोने की ईंटों में बदलता है। एलोपैथी दवा बनाने वाली,पैथालॉजी व अन्य मेडिकल जाँचों से जुड़ी हुई कंपनियां जब डॉक्टरों को पचास फीसद से ज्यादा कमीशन देती हैं तो नीतिनियंता नौकरशाहों से उनका कैसा गठजोड़ होगा उसका अंदाज लगा सकते हैं। अभी एक दशक भी नहीं बीता होगा, इंदौर के कुख्यात क्लिनिक ड्रग-ट्रायल को। तब बड़ा खुलासा हुआ था कि मल्टीनेशनल दवा कंपनियों के उत्पादों के परीक्षण के लिए बेशर्म डाक्टरों ने भोले भाले मरीजों को गिनीपिग्स बना दिया था।
इसके एवज में उन्हें क्या मिला इसका भी खुलासा हुआ था। अब पूरा कांड दफन है, बात आई गई हो चुकी। न जाने कितने मरीज ड्रग ट्रायल का दंश भोग रहे होंगे। सो इसलिए ये जो ऐलोपैथिक का प्रेशर ग्रुप है वह बचे खुचे ‘आयुष’ को भी खा जाना चाहता है। डब्ल्यूएचओ की गाइडलाइन्स है कि महामारी की यदि कोई दवा न हो तो उसकी संभाव्य दवाओं और चिकित्सा को आजमाने में कोई हर्ज नहीं।
यहां सिर्फ बाबा की बात नहीं.. बाबा भी वैसा ही धंधा कर रहा है जैसा कि मल्टीनेशनल्स। नैतिकता का सवाल यह कि इस होड़ में आयुर्वेद को रोकने की कोशिशें क्यों होती हैं? उसे भी एलोपैथी के खिलाड़ियों जैसे पैंतरे आजमाने दीजिए। आयुर्वेद हमारी सनातन परंपरा से चला आ रहा है। ऋगवेद से उसके सूत्र निकले। अथर्ववेद तो आयुर्वेद पर ही केंद्रित है।
चिकित्साशास्त्र के उद्भव व विकास में समूची दुनिया में सुश्रुत और चरक वैसे ही पढाए जाते हैं जैसे हम विज्ञान में डार्विन और लैमार्क को पढ़ते हैं। सुश्रुत संहिता आज भी शल्यचिकित्सा शास्त्र की गीता है। ऑपरेशन करने के सौ उपकरणों का उसमें वर्णन है। ईसा पूर्व के मगध सम्राट बिंबिसार के काल में एक चिकित्सक जीवक का नाम आता है। जीवक ने बिंबिसार के भगंदर का आपरेशन किया था।
उस काल के चिकित्सकों में मस्तिष्क, स्नायुतंत्र, आँखों के आपरेशन की सिद्धहस्तता थी। छठवीं-सातवी,शताब्दी में तो ज्ञान-विज्ञान अपने चरमोत्कर्ष पर था। भौतिकशास्त्री कणाद और गणितशास्त्री आर्यभट्ट इसी काल के थे। नागार्जुन नालंदा के समय के ही महान चिकित्सक थे जो कटे अंग जोड़ देते थे। उल्लेख मिलता है कि उन्होंने एक ऐसा लेप बनाया था कि शरीर में उसे लपेटने के बाद बल्लम, बरछी, भाले, तलवार असर नहीं करते थे।
वे प्राणवायु की खोज में लगभग सफल ही हो चुके थे कि उनके गुरु ने इसे विधि के विधान के प्रतिकूल बताते हुए, इस खोज पर रोक लगा दी। हमारे पौराणिक इतिहास में आयुर्वेद और चिकित्सा विज्ञान को लेकर जो कुछ भी है वह कपोल कल्पना नहीं, यथार्थ है और उसके सूत्र आज भी कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में हैं।
तुर्कों, मुगलों, अंग्रेजों ने हमारी सनातन संस्कृति और ज्ञान परंपरा का भारी नुकसान किया है। अब बख्तियार खिलजियों के देसी वंशज भी वही कर रहे हैं। आखिरी में अपने आसपड़ोस की बात करते हुए सिलसिले को विराम लागाते हैं। अब जरा शहर के ऐसे लोगों पर नजर डालिए या अपने ऊपर की पीढ़ी से उनके बारे में पूछिए, अवश्य ऐसे वैद्य मिलेंगे जैसा कि हमारे विंध्य क्षेत्र में थे। हमारे विन्ध्य क्षेत्र में मेरी और मेरे ऊपर की पीढ़ी के लोग वैद्य अनसुइया प्रसाद शुक्ल के बारे में जरूर जानते होंगे। सौभाग्य से वे हमारे ही परिवार के पूज्य व अग्रज थे। सन् 40 से लेकर 80 तक उनका दौर था। वे आयुर्वेद और प्राकृतिक चिकित्सा के जानकार ही नहीं वैज्ञानिक भी थे।
उन दिनों शहर के प्रमुख ऐलोपैथिक डॉक्टरों से ज्यादा मरीजों की भीड़ उनके दवाखाने में जुटती थी। आयुर्वेद के स्वाभिमान को लेकर इतने जाग्रत थे कि उनकी फीस शहर के बड़े से बड़े डॉक्टरों से एक रुपए ज्यादा थी। यद्यपि वे अस्सी फीसद मरीजों को निःशुल्क देखते थे। रीवा में मेरी स्कूली शिक्षा उन्हीं के सानिध्य में बीती, सो मैं आँखोँ देखी सचाई ही बयान करूँगा।
तब रीवा में मेडिकल कालेज भी था और बड़ा अस्पताल भी, लेकिन महिलाओं के एक ऐसे असाध्य समझे जाने वाले रोग का इलाज उनके पास था जिसे ‘प्रदर’ कहते हैं। मैडम डाक्टर सत्यवती खनीजो और डा. गीता बनर्जी स्त्रीरोग की ख्यात विशेषज्ञ व प्राध्यापक थीं, लेकिन वे प्रायः प्रदर रोग के मरीजों को वैद्यजी के पास ही भेजती थीं। उन दिनों वैद्यजी प्रायः सभी बड़े चिकित्सकों के पारिवारिक परामर्शदाता हुआ करते थे।
आयुर्वेद के इस उच्च शिखर को आज के दौर में भी मैंने देखा है। उनकी रसायनशाला में अमीर-गरीब का कोई भेद नहीं था। वे नाड़ी बाद में देखते पहले मरीज की आर्थिक हैसियत पूछते थे। फर्ज करिए गाँव का कोई गरीब ह्रदयरोग से पीड़ित है तो वो उसकी दवा उसके अंदाज में बताते कि उसके निदान के लिए वह स्वयं ही घर में कैसे औषधीय काढ़ा बना सकता है।
मरीज हैसियत वाला हुआ तो उस जमाने में भी वे दो से पाँच हजार की दवा लिखते या स्वयं बनाकर देते। अमीर और गरीब दोनों की दवाएँ बराबर कारगर रहती थीं। उनके पास कई असाध्य मर्जों के सफल नुस्खे थे जो तब तक एलोपैथी में खोजे नहीं जा सके थे। पूज्य अनसुइया प्रसाद जी जैसे वैद्य इंदौर, भोपाल, जबलपुर, ग्वालियर, रायपुर, इलाहाबाद और बनारस में भी उस काल में रहे होंगे, या आज भी उस परंपरा को जारी रखे होंगे।
कमी हमारी है, हमारे तंत्र की है कि उन पर वैसा भरोसा नहीं रहा क्योंकि.. आयुर्वेद की इस महान सनातन परंपरा के दुश्मन बख्तियार खिलजी आज भी हैं, रूप बदलकर जो इसे सफल और लोकव्यापी होने नहीं देना चाहते। संस्कृत सुभाषितानि में प्रसिद्ध श्लोक है, हजारों वर्ष पूर्व किसी ऋषि-महर्षि का रचा हुआ-
वैद्यराज नमस्तुभ्यं यमराज सहोदर।
यमस्तु हरति प्राणान् वैद्यो प्राणानं धनानि च।।
अर्थात- हे वैद्यराज, यम के भाई, तुम्हें प्रणाम्। यमराज तो सिर्फ प्राण भर ही हरते हैं और तुम प्राणों के साथ धन भी। हजारों वर्ष पूर्व लिखा हुआ यह सुभाषित श्लोक आज की व्यावसायिक चिकित्सा और चिकत्सकों पर कितना सटीक बैठता है, वास्तव में..।
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