क्योंकि ‘टाइगर’ ज़िंदा है

राकेश अचल
जन-प्रतिनिधि अब जनप्रतिनिधि नहीं रहे, वे टाइगर हो गए हैं और उन्हें कुछ न कुछ अजूबा कर अपने ज़िंदा होने का प्रमाण भी देना पड़ने लगा है। सियासत का ये नया संस्करण है। इस संस्करण में सियासत के जंगली होने के संकेत भी छिपे हैं। ये आपके ऊपर है कि आप उन्हें पहचान पाते हैं या नहीं।
जहाँ तक मुझे याद है कि जनप्रतिनिधियों में अपने आपको ‘टाइगर’ या ‘लॉयन’ कहने की परम्परा नई नहीं है, इसकी शुरुवात तो बघेलखण्ड ने बहुत पहले कर दी थी। चंबल अंचल में इसका प्रचलन अब हुआ है, क्योंकि यहां अब तक बाग़ी ही होते थे, टाइगर या लॉयन नहीं। ग्वालियर-चंबल की राजनीति में आजादी के बाद से लगातार अपनी मौजूदगी बनाये रखने वाले सिंधिया घराने में भी कभी कोई टाइगर पैदा नहीं हुआ। बागी जरूर हुए। खुद आज के टाइगर ज्योतिरादित्य सिंधिया की दादी श्रीमती विजयाराजे ने 1967 में और फिर 1975 में अपने बाग़ी होने का प्रमाण दिया था।
हमने तो अब तक मध्‍यप्रदेश में सफेद शेरों के बारे में सुना था। सियासत में सफेद शेर के नाम से मशहूर रहे रीवा के एक तिवारी जी को भी देखा था। वे हमारे सूबे में मंत्री भी रहे और विधानसभा के अध्यक्ष भी। इसी इलाके से अर्जुन सिंह भी आये लेकिन उन्होंने कभी अपने आपको शेर या टाइगर नहीं कहा। दिग्विजय और कमलनाथ का तो टाइगर या लायन कहलाने का सवाल ही नहीं। भाजपा के शिवराज ने जरूर गुर्राहट दिखाकर एकआध बार कहीं गलती से अपने आपको टाइगर कहा हो तो मुझे याद नहीं है। पुलिस में जरूर एक बार एक डीआईजी अपने आपको टाइगर कहलाना पसंद करते थे, अब उनका कोई अता-पता नहीं है।
बहरहाल बात सिंधिया घराने के नए टाइगर की चल रही है। चूंकि मुझे इस परिवार की राजनीति में सक्रिय सभी पीढ़ियों को निकट से देखने का अवसर मिला है, इसलिए मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि ज्योतिरादित्य सिंधिया ने यदि अपने आपको टाइगर घोषित किया है तो इसे प्रमाणित करके भी दिखाया है। राजनीति में उनकी दादी की छवि एक भद्र महिला की थी, उन्होंने बाग़ी बनना पसंद किया लेकिन कभी राजहठ नहीं दिखाया और इसीलिए वे भाजपा के लिए पूज्य बनी रहीं।राजमाता के बेटे माधवराव सिंधिया भी गजब के भद्र राजनेता थे, उनमें राजहठ थी, लेकिन वे कभी अकड़े नहीं और न ही उन्होंने राजनीति में गुणा-भाग करना सीखा। लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस से बगावत करने के साथ ही भाजपा में पहुँच कर अपनी सुविधा और शर्तों का पालन कराने के साथ ही दिखा दिया उनके स्वभाव में टाइगर के सभी गुण हैं।
सियासी कारोबार में बने रहने के लिए गुणा-भाग आना बहुत जरूरी है। मैं सिंधिया के दलबदल से निजी रूप से क्षुब्ध था लेकिन नए घटनाक्रम के बाद मेरा क्षोभ कम हो गया है, मुझे लगता है कि वे भविष्य के एक प्रामाणिक नेता साबित होंगे और कांग्रेस हो या भाजपा उनके प्रभामंडल को भुला नहीं पाएगी। सिंधिया ने पिछले सौ दिन में मध्यप्रदेश की राजनीति की शक्ल-सूरत बदल दी है लेकिन काम अभी अधूरा है। मंत्रिमंडल में एक बड़ा हिस्सा हासिल करने के बाद अब सिंधिया की जिम्मेदारी और बढ़ गयी है। अब 22-24 सीटों के लिए होने वाले विधानसभा के उपचुनाव शिवराज के नाम पर नहीं महाराज के नाम पर लड़े जायेंगे। इन चुनावों के नतीजे ही ये तय करेंगे कि टाइगर सचमुच ज़िंदा है।
यहां मैं एक बात और कह देना चाहता हूँ कि सिंधिया के भाजपा में आने के बाद, अब तक जो क्षत्रप थे, वे या तो समूल नष्ट हो जायेंगे या फिर सिंधिया के खिलाफ एकजुट हो जायेंगे। सिंधिया से जोखने की ताकत भाजपा के मौजूदा क्षत्रपों में से किसी एक में नहीं है। सिंधिया ने पिछले विधान सभा चुनाव में अपनी पहुंच ग्वालियर-चंबल से आगे निकल कर मालवा, बुंदेलखंड तक बनाई थी, अब वे बघेलखण्ड और महाकौशल में भी अपनी उपस्थिति बढ़ाएंगे और भविष्य में भाजपा के सर्वमान्य नेता के रूप में स्थापित होने की कोशिश करेंगे। यदि ऐसा होता है तो सिंधिया के साथ उस दल को भी लाभ होगा जिसके साथ वे रहेंगे। वैसे भी हार्स ट्रेडिंग के जमाने में हर दल एक टाइगर चाहता ही है।

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टीम मध्‍यमत

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