गांवों से गायब होती जा रही है ‘कोहरी’

दीपक गौतम 

गांव को महसूस करना, समझना, उसको जीना जितना सरल है, कभी-कभी लगता है उसे लिखना शायद उतना ही कठिन है। गांव के अनकहे किस्से आसपास यूँ बिखरे पड़े होते हैं कि उन्हें समेटने की कोशिश में अपने अंदर का बहुत कुछ खो जाता है। थोड़ा सा अफसोस, थोड़ी मायूसी, थोड़ा दुःख कहीं न कहीं आंख के किसी कोर से आंसू बनकर लुढ़क ही जाता है। इस देश का हर गांव अपने आप में एक पूर्ण संस्था है, जिसने अब तक अपनी जीवटता से कुछ ऐसी संस्कृति सहेज रखी है, जिसके लिए शहरों को भी मुंह ताककर गांव की ओर देखना पड़ेगा।

इन दिनों धीरे-धीरे देसी त्‍योहारों को मनाने के लुप्त हो रहे देशज तौर-तरीकों ने गांव की संस्कृति को ही छिन्न-भिन्न सा कर दिया है। गंवई संस्कृति में रचने-बसने वाला हर शख्स शायद यह जानता होगा कि गांव में खान-पान के साथ उसके रीति-रिवाज भी पकते हैं। अभी कुछ दिनों पहले ही एक ऐसा ही त्‍योहार बीता है, जो मुझे केवल उसके एक विशेष पकवान ‘कोहरी’ की वजह से वर्षों से याद है।

‘कोहरी’ का दिव्य स्वाद मेरी जबान पर ऐसा चढ़ा है कि पिछले एक दशक से नहीं उतरा है। उससे दूर होने के बाद भी मैं इस मौसम में हर साल उसे याद करता हूं। अब जब सालभर से गांव के पास हूं, तो मुझे उसका बेसब्री से इंतजार था। लेकिन बेमौसम बरसात की तरह वो दिन अभी हाल ही में 16 या 17 जून को गुजर गया और मुझे याद ही नहीं रहा। खैर मैं अपने हिस्से की ‘कोहरी’ तो देर-सवेर अब खा ही लूंगा, लेकिन आपको भी इसे जरूर चखना चाहिए।

इसका नाम ‘कोहरी’ ही क्यों है,  इस सवाल पर अम्मा कहती हैं कि शायद कोहरे या बरसात के समय में खाये जाने के कारण इसे ‘कोहरी’ कहा जाने लगा। सम्भवतः इसका शाब्दिक अर्थ भी कुछ ऐसा ही हो।

विंध्य में सतना जिले से सटे बुंदेलखंड और बघेलखण्ड के कुछ क्षेत्रों में ‘कोहरी’ को गेहूं की नई फसल के उत्सव के रूप में देखा जाता है। अम्मा बताती हैं कि कई पीढ़ियों से आषाढ़ में लगने वाले आर्द्रा नक्षत्र के आगमन पर इसे बनाया और खाया जाता है। यह एक त्‍योहार सा होता है। कुछ स्त्रियां व्रत रखकर केवल ‘कोहरी’ को ही आहार के रूप में ग्रहण करती हैं। सयाने बताते हैं कि ‘कोहरी’ खाने के वैज्ञानिक और व्यवहारिक पहलू हैं।

बरसात की तेज शुरुआत के ठीक पहले नये गेहूं से बनी ‘कोहरी’ बरसात में होने वाले सामान्य रोगों से शरीर की रक्षा करती है। यदि यह कठिया गेहूं (हल्के कत्थे से रंग का मोटा गेहूं या अंग्रेजी में हार्ड वीट) की बनी हो तो इसका स्वाद और पौष्टिकता और बढ़ जाती है। ज्यादातर किसानों के घरों में ही इसको बनते हुये देखा जा सकता है। पहले कठिया गेहूं विशेष रूप से इसी के लिए बोया जाता था। (इस गेहूं की उपज कम होने से अब इसकी बुआई भी क्षेत्र में न के बराबर है। हालांकि तकनीक और विज्ञान के दौर में अब इसकी भी कई किस्में आ गई हैं।)

वास्तव में खड़े गेहूं से बनी यह डिश बहुत पौष्टिक होती है। गेंहूं को धो कर लगभग 8 से 10 घन्टे के लिए पानी में गला देते हैं। अमूमन जिस दिन ‘कोहरी’ बनाना होता है, उसके एक रात पहले रातभर के लिए खड़ा गेहूं औसतन ज्यादा पानी में गला देते हैं। सुबह इसे उसी पानी में उबालकर पकाते हैं। पानी सूखकर अच्छी तरह से उबलने के बाद इसमें देसी घी और शक्कर मिलाकर खाते हैं। कुछ लोग घी की जगह दूध मिलाकर भी इसे खाते हैं।

अम्मा बताती हैं कि अब इस त्‍योहार की पूजा-पाठ, व्रत सहित ‘कोहरी’ बनाने का चलन भी गांव से लगभग खत्म हो गया है। किसानों के घरों को छोड़कर जहां सयानी महिलाएं हैं, वहीं ‘कोहरी’ बनती है। इसके इतर अब इसे बनाया जाना कम गया है। मैं जिज्ञासावश ‘कोहरी’ को गूगल बाबा पर खोज रहा था, तो यह देसज नाम से नहीं मिली। लेकिन अंग्रेजी में बॉईल वीट टाइप करते ही इसके ढेरों रिजल्ट मेरे सामने थे।

इसी खड़े उबले गेहूं या अपनी ‘कोहरी’ (वीट बेरीज) को दुनिया के अलग-अलग देशों में कई प्रकार से खाया जाता है। ‘कोहरी’ के कई चमत्कारिक गुण भी आपको गूगल पर सहज ही मिल जाएंगे। कहने का आशय यह है कि गंवई संस्कृति में सहज ही घुले विज्ञान का कोई तोड़ नहीं है। वर्षों से खान-पान और त्‍योहारों के नाम पर चली आ रही वैज्ञानिकता आपको खोजने पर मिलेगी।

यह संस्कृति में घोलकर कुछ इस तरह पिला दी गई है कि आप इसे अपनाने के लिए बाध्य रहें। अब यह समाप्त होने से धीरे-धीरे हमारा रक्षाकवच ध्वस्त हो रहा है। (एक बार के ‘कोहरी’ का डोज पूरे बरसात भर सर्दी-जुकाम और वायरल फीवर की ढाल था।) ऐसे ढेरों त्‍योहारों के खान-पान का अध्ययन करेंगे, तो विज्ञान ही नज़र आएगा।

इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि गांव से ‘कोहरी’ अब लुप्त हो रही है। लेकिन इंटरनेट पर वही ‘कोहरी’ बॉईल वीट की डिश के नाम पर पांच सितारा होटल के मीनू में रजिस्टर्ड है। इन दिनों जब गांव के पास हूं, तो इसे और अधिक जानने-समझने की कोशिश में हूं। सोचता हूँ कि शहरों के भोग-विलास और वैभव से दूर गांव की हरियाली का भला कोई तोड़ हो सकता है? नहीं बिल्कुल नहीं!

आलम यह है कि गांव में व्याप्त इसी सहज सांस्कृतिक ज्ञान की विरासत को सम्भालने में नई पीढ़ी असमर्थ है। क्योंकि भांग और गांजे की संस्कृति को तो नई पीढ़ी ने हाथोंहाथ घोलकर पी लिया है, लेकिन गांव में व्याप्त दवा के पुराने देसी नुस्खे हों, ढोलक-मंजीरों की थाप हो, गांव की संगीत मंडलियों की गम्मत हो, गाय-भैंस या अन्य जानवरों का सरल उपचार हो या फिर सयानों का सहज मौसम विज्ञान अब सब ‘कोहरी’ की ही तरह लुप्तप्राय हो चला है।

हम 80-90 के दशक की पैदाइश वाले लोग वर्षों से आजीविका के लिए गांव छोड़कर बाहर तो हैं। लेकिन यही भूल बैठे हैं कि बस इस एक और पीढ़ी के बाद हम में से शायद कोई नहीं है, जो यह दावे से कह सके कि मैं गांव से हूं। मेरे पास वह सारा सहज ज्ञान है, जो हमारे सयाने बिना पोथी और इंटरनेट के आस-पास के वातावरण और अपने जमीनी अनुभवों से बटोरकर यूं ही बांटते रहे हैं।

मसलन पुरवइया हवा चलेगी तो मौसम क्या होगा? घर में अम्मा अब भी उंगलियों पर गिनकर एकादशी से लेकर तीज-त्‍योहार तक सबका गुणा-गणित निकालकर बता देती हैं। उन्हें अब भी कैलेंडर की जरूरत नहीं पड़ती है। उन्हें ठंड से लेकर बारिश और गरमी तक का सारा सहज ज्ञान भी अपनी उसी कैलकुलेशन के अनुसार ग्रह-नक्षत्रों के हिसाब से हो जाता है। वह भी बहुत सहज और स्वाभाविक रूप से।

गहराई से सोचने पर पता लगता है कि सयानों के साथ रहते-रहते यह सारा का सारा सहज ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी लगातार हस्तांतरित होता रहा है। लेकिन 80-90 के दशक के बाद वाली लगभग पीढ़ी तो बस गर्मी की छुट्टियों या तीज-त्‍योहारों पर ही अपने माँ-बाप के साथ गांव पहुंचती है। वो भला अब कैसे जान पाएगी कि गांव क्या है, क्यों है या किस चिड़िया का नाम है?

धीरे-धीरे किशोर हो रही इस पीढ़ी को तो शहर का दो कमरे का किराए वाला मकान ही अपना घर लगता है। उसका बचपन भी तो वहीं आसपास के किसी पार्क में खेलते हुए बीता है। वो तो गांव की सौंधी मिट्टी में लोटा ही नहीं, उसका स्वाद भी नहीं चखा, फिर उसे गांव वाले घर के आंगन, गांव की चौपाल या बगीचों से मोहब्बत कैसे होगी? गांव से उसका इश्क तो परवान ही नहीं चढ़ा, वो तो गांव के प्रेम में डूबा ही नहीं।

ऐसे ढेर सारे सवाल जब मुझे घेरने लगते हैं, तो लगता है कि भांग घोंटने और छानने के सिवाय गांव की संस्कृति का कोई और हिस्सा आने वाली पीढ़ी को नसीब होगा भी या नहीं? यह यक्ष प्रश्न है, जो ‘कोहरी’ के स्वाद की तरह मेरी आत्मा में उतर गया है। इसके उत्तर की मुझे तलाश है, क्योंकि गांव मेरे अंदर बहुत गहरे तक धंसा है, शायद इसीलिए डेढ़ दशक से ज्यादा शहरों की खाक छानने के बाद भी गांव के पास रहकर उसे जीने की कोशिश कर रहा हूं।

आप सब भी ‘कोहरी’ बनाइये और खाइये। साथ में दूसरों को भी खिलाइये। क्योंकि गांव के ये मौसम भी जीते रहना चाहिये।

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टीम मध्‍यमत

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